पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
12. खाण्डवदाह
उन त्रोणों के बाण कभी समाप्त नहीं होते थे। गाण्डीव धनुष किसी अस्त्र-शस्त्र से कट नहीं सकता था और न उसकी प्रत्यञ्चा ही काटी जा सकती थी। वह त्रिलोकी में पूजित धनुष प्रयोक्ता की कान्ति बढ़ा देता था। वह अग्नि प्रदत्त वानर ध्वज नन्दिघोष रथ अत्यन्त प्रकाशमान् युद्धोपयोगी सामग्रियों से पूर्ण था। उसकी ध्वजा या रथ का कोई भाग तोड़ा नहीं जा सकता था। उसमें गान्धर्व देश के वायु वेगी अश्व जुते थे। वज्र की नाभिवाला सहस्र अरों का जो चक्र अग्नि ने श्रीकृष्णचन्द्र को दिया, वह तो उनके अपने चक्र से ही समुद्भूत, उसी का प्रतिरूप था। वह शत्रु नाश करके पुन: प्रयोक्ता के पास लौट आता था और श्रीकृष्ण के करों में आकर तो वह दैव, दैत्यादि सबके लिए भीषण अमोघ काल चक्र ही हो गया। सहसा खाण्डव वन में एक साथ चारों ओर दावाग्नि प्रकट हुई और वन को सीमान्त से घेरकर मध्य भाग की ओर बढ़ने लगी। गगनचुम्बी लपटें और अपार धूम्र राशि। सम्पूर्ण वन प्राणियों के कोलाहल-चीत्कार तथा वृक्षों, क्षुपों के जलने-चटखने की ध्वनि से पूर्ण हो गया। गुफाओं में, बिलों में रहने वाले प्राणी भी चीत्कार करते इधर-उधर प्राण बचाने को भागने और चिल्लाने लगे। इन्द्र का प्रयत्न व्यर्थ था। उनके प्रयत्न का एक उलटा परिणाम हुआ कि खाण्डव वन के पक्षियों के भी उड़कर भागने का मार्ग अवरुद्ध हो गया।अर्जुन ने ऐसी बाण वृष्टि की जिससे सम्पूर्ण खाण्डव के ऊपर शरों का पूरा जाल तन गया। ऐसा जाल कि उसमें से एक बूँद जल नीचे नहीं आ पाता था। अग्नि ज्वाला से संतप्त उन शरों पर वर्षा का जल पड़ते ही वाष्प बन कर पुन: मेघों के रूप में परिवर्तित हो जाता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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