पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
92. द्वारिका-गमन
भाईयों के साथ युधिष्ठिर को बार-बार लौटने को भगवान वासुदेव ने कहा। बहुत अनुरोध किया। दारुक आकर युधिष्ठिर के समीप बैठ गय और उसने बहुत बार विनयपूर्वक रथ-रश्मि धर्मराज के करों से लेने का प्रयत्न किया। तब कहीं तीन योजन तक पहुँचाकर युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के अनुरोध पर दारुक को सारथि का स्थान दिया। युधिष्ठिर तथा भीमसेन को श्रीकृष्ण ने प्रणाम किया। दोनों ने उन्हें हृदय से लगाया। अपने पदों में प्रणत नकुल सहदेव को उन हृषीकेश ने आलिंगन दिया। अब श्वेत छत्र सात्यकि ने सम्हाल लिया था। चामर, व्यजन दूसरे प्रधान वीरों ने उठा लिया। युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव श्रीकृष्ण के रथ से उतरकर भी अपने रथ पर नहीं बैठ सके। वे तब तक भूमि पर खड़े रहे, एकटक देखते रहे, जब तक गरुड़ ध्वज रथ की ध्वजा अथवा उस रथ से उड़ती धूलि भी दीखती रही। श्रीकृष्णचन्द्र को द्वारिका के लिए विदा करके, अर्जुन को उनके साथ भेजकर युधिष्ठिर अपने तीनों भाईयों के साथ उन मधुसूदन की चर्चा करते हस्तिनापुर लौटे। उन उत्तम श्लोक की चर्चा तो हस्तिनापुर के घर-घर जन-जन का जीवन बन चुकी थी। वह चर्चा ही तो अब सबकी प्रमुख दिनचर्या थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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