पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
92. द्वारिका-गमन
किसी भी प्रियजन के जाते समय अश्रु आना उसके लिए मार्ग में अमंगल का सूचक हो सकता है, अत: सब बहुत कठिनाई से अपने अश्रु रोक रहे थे। मंगलमय श्रीकृष्ण की यात्रा सुखद हो, मंगलपूर्ण हो, यह आशीर्वाद सब दे रहे थे। स्नेह बहुत शंकालु होता है। जो त्रिभुवन की रक्षा करते हैं, जिन समर्थ ने पाण्डवों की सभी संकटों में रक्षा की है, उनकी सुरक्षा के लिए युधिष्ठिर ने उनके रोकने पर भी चतुरंगिणी सेना साथ कर दी थी। धर्मराज ने चलते समय सेना को आदेश दिया था कि वह सात्यकि के आदेश का पालन करे और मार्ग में पुरी सावधानी रखे। सात्यकि का यह कहना नहीं सुना गया कि- ‘सेना अनावश्यक है। इस समय कोई ऐसा प्रबल शत्रु कहीं रहा ही नहीं है कि उसके आक्रमण की आशंका की जाय। सब विरोधी समाप्त हो गये हैं। मार्ग के राज्यों के सिंहासन पर तो इस समय कृपाकांक्षी शिशु हैं। असुर अब धरा पर बचे ही नहीं हैं और सुर सदा से श्रीकृष्ण के समर्थक तथा उनकी कृपा की कामना रखने वाले हैं।’ धर्मराज युधिष्ठिर इस परिस्थिति से अनभिज्ञ नहीं थे; किन्तु उनकी चल पाती तो वे पाँचो भाई पहुँचाने द्वारिका तक जाते। उन्हें तो बहुत दिनों तक यही खेद रहा कि उन्होंने भीमसेन को भी क्यों नहीं भेज दिया। अर्जुन को तो उन्होंने भेजा ही और इतने समर्थ सावधान शूर भाई से भी कई बार पूछा- 'तुमने अपने सब दिव्यास्त्र सम्हालकर साथ तो ले लिए हैं?' उन्होंने अर्जुन को आदेश दिया था- ‘तुम निद्राजयी हो गुडाकेश ! अत: मार्ग में विश्राम स्थान पर रात्रि में विशेष सावधान रहना; किन्तु श्रीकृष्ण को इसका पता मत लगने देना कि तुम सोये नहीं हो। अन्यथा ये स्नेह-सिन्धु तुम्हें जागते नहीं रहने देंगे।' मार्ग में पड़ने वाली सरिताओं पर, नालों पर सेतु बनवा दिये गये थे। पूरा मार्ग स्वच्छ करा दिया गया था और पर्याप्त बड़ा अग्रचर दल आगे भेज दिया गया था। जहाँ कहीं भी विश्राम करना था, वहाँ पशुओं के चारे की तथा मनुष्यों के जलपान, भोजन तथा आवास की व्यवस्था कर दी गयी थी। धर्मराज युधिष्ठिर जानते थे कि इसमें से कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। मार्ग में पड़ने वाले नगर वासीगण तथा नरेश ही नहीं, अरण्यवासी लोग भी श्रीकृष्ण के दर्शन एवं स्वागत को उत्सुक थे। वे मार्ग-सज्जित करने, स्वागत करने, जलपानादि प्रस्तुत करने में इतने उत्साह से लगे थे कि श्रीकृष्णचन्द्र को बहुत धीरे-धीरे उनका स्वागत स्वीकार करते, बहुत अधिक स्थानों पर विश्राम करते बढ़ना था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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