- महाभारत शान्ति पर्व में मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 220वें अध्याय में पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]
विषय सूची
श्वेतकेतु और सुवर्चला का संवाद
श्वेतकेतु ने कहा- शोभने! वेदों में जिन शुभ कर्मों का विधान है, मेरे साथ रहकर उन सबका यथोचितरूप से अनुष्ठान करो और यथार्थरूप से मेरी सहधर्मचारिणी बनो। मैं इसी भाव में स्थित हूँ। तुम भी इसी भाव से स्थित रहना, अत: मेरी आज्ञा के अनुसार सारे कर्म करो, फिर मैं भी तुम्हारा प्रिय कार्य करूँगा। तदनन्तर ‘ये सब कर्म मेरे नहीं हैं और मैं इनका कर्ता नही हूँ’ इस भाव से ज्ञानाग्नि द्वारा उन सब कर्मों को भस्म कर डालो, तुम परम सौभाग्यवती हो। तुम्हें सदा इसी तरह ममता और अहंकार से रहित होकर कर्म करना चाहिये और मुझे भी ऐसा करना चाहिये। श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है वैसे ही दूसरे लोग भी करते हैं, अत: लोकव्यवहार की सिद्धि तथा आत्मकल्याण के लिये हम दोनों को कर्मों का अनुष्ठान करते रहना चाहिये।
भीष्म जी कहते हैं- राजन! ऐसा उपदेश देकर सम्पूर्ण ज्ञान के एकमात्र निधि महाज्ञानी श्वेतकेतु ने सुवर्चला के गर्भ से अनेक पुत्र उत्पन्न किये। यज्ञों द्वारा देवताओं को संतुष्ट किया; फिर आत्मयोग में नित्य तत्पर रहकर वे निर्द्वन्द्व एवं परिग्रहशून्य हो गये। अपने अनुरूप पत्नी को पाकर श्वेतकेतु उसी प्रकार सुशोभित होते थे, जैसे बुद्धि को पाकर क्षेत्रज्ञ। वे दोनों पति-पत्नी लोकान्तर में भी पहुँच जाते थे और इस जगत में साक्षी की भाँति स्थित होकर प्रसन्नतापूर्वक विचरते थे।
तदनन्तर एक दिन सुवर्चला ने अपने पति श्वेतकेतु से पूछा- ‘द्विजश्रेष्ठ! आप कौन हैं, यह मुझे बताइये’! उस समय प्रवचन कुशल भगवान श्वेतकेतु ने उससे कहा- ‘देवि! तुमने मेरे विषय में जान ही लिया है, इसमें संदेह नहीं है। तुमने द्विजश्रेष्ठ कहकर मुझे सम्बोधित भी किया है; फिर उस द्विजश्रेष्ठ के सिवा और किसको पूछ रही हो?’[1] तब सुवर्चला ने अपने महात्मा पति से कहा- नाथ! मैं हृदय गुफा में शयन करने वाले आत्मा को पूछती हूँ। यह सुनकर श्वेतकेतु ने उससे कहा- ‘भामिनि! वह तो कुछ कहेगा नहीं। यदि तुम आत्मा को नाम और गोत्र से युक्त मानती हो तो यह तुम्हारी मिथ्या धारणा है; क्योंकि नाम-गोत्र होने पर देह का बन्धन प्राप्त होता है। ‘आत्मामें अहम् (मैं हूँ) यह भाव स्थापित किया गया है। तुममें भी वही भाव है। तुम भी अहम्, मैं भी अहम् और यह सब अहम् का ही रूप है। इसमें वह परमार्थतत्त्व नहीं है; फिर किस लिये पूछती हो?’ नरेश्वर! तब धर्मचारिणी पत्नी सुवर्चला बहुत प्रसन्न हुई, उसने हँसकर मुस्कराते हुए यह समयोचित्त वचन कहा। सुवर्चला बोली- ब्रह्मर्षे! अनेक प्रकार के विरोध से क्या प्रयोजन? सदा इस नाना प्रकार के क्रिया कलाप में पड़कर आपका ज्ञान लुप्त होता जा रहा है। अत: महाप्राज्ञ! आप मुझे इसका कारण बताइये, क्योंकि मैं आपका अनुसरण करने वाली हूँ। श्वेतकेतु ने कहा- प्रिये! श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, वही दूसरे लोग भी करते हैं; अत: हमारे कर्म त्याग देने से यह सारा जनसमुदाय संकरता के दोष से दूषित हो जायगा। इस प्रकार धर्म में संकीर्णता आने पर प्रजा में वर्ण संकरता फैल जाती है और संकरता फैल जाने पर सर्वत्र मात्स्य न्याय की प्रवृत्ति हो जाती है ( जैसे प्रबल मत्स्य दुर्बल मत्स्य को निगल जाते हैं, उसी प्रकार बलवान मनुष्य दुर्बलों को सताने लगते हैं।) भद्रे! सम्पूर्ण जगत का भरण-पोषण करने वाले परमात्मा श्रीहरि को यह अभीष्ट नहीं है।[2] शुभे! जगत की यह सारी सृष्टि परमेश्वर की क्रीड़ा है। धूलि के जितने कण हैं, उतनी ही परमेश्वर श्रीहरि की विभूतियाँ हैं, उतनी ही उनकी मायाएँ हैं और उतनी ही उन मायाओं की शक्तियाँ भी हैं। स्वयं भगवान नारायण का कथन है कि ‘जो मुक्तिलाभ के लिये उद्योगशील पुरुष अत्यन्त गहन गुफा में रहकर ज्ञानरूप खड्ग के द्वारा जन्म-मृत्यु के बन्धन को काटकर मेरे धाम को चला जाता है, वही विद्वान है और वही मुझे प्रिय है। वह योगी पुरुष मैं ही हूँ। इसमें संदेह नहीं है’ यह भगवान की प्रतिज्ञा है। ‘जो मूढ़, दुरात्मा, धर्मसंकरता उत्पन्न करने वाले, मर्यादाभेदक और नीच मनुष्य हैं, वे नरक में गिरते हैं और आसुरी योनि में पड़ते हैं, यह भी उन्हीं भगवान का अनुशासन है’। देवि! तुम्हें भी जगत की रक्षा के लिये लोकमर्यादा का पालन करना चाहिये। इसमें संशय नहीं है। मैं भी इसी भाव से लोक मर्यादा की रक्षा में स्थित हूँ।[2]
सुवर्चला ने पूछा- महामुने! यहाँ शब्द किसे कहा गया है और अर्थ भी क्या है? आप उन दोनों की आकृति और लक्षण का निर्देश करते हुए उनका पृथक्-पृथक् वर्णन कीजिये। अकार आदि वर्णो के समुदाय को क्रम या व्यतिक्रम से उच्चारण करने पर जो वस्तु प्रकाशित होती है, उसे ‘शब्द’ जानना चाहिये और उस शब्द से जिस अभिप्राय की प्रतीति हो, उसका नाम ‘अर्थ’ है। सुवर्चला बोली- यदि शब्द के होने पर ही अर्थ की प्रतीति होती है तो इन शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध है या नहीं? यह आप मुझे यथार्थरूप से बतावें। श्वेतकेतु ने कहा- शब्द और अर्थ में एक प्रकार से कोई नियत सम्बन्ध नहीं है। कमल के पत्ते पर स्थित जल की भाँति शब्द एवं अर्थ का अनियत सम्बन्ध है, ऐसा जानो। सुवर्चला बोली- महाप्राज्ञ! अर्थ पर ही शब्द की स्थिति है, अन्यथा उसकी स्थिति नहीं हो सकती। साधु शिरोमणे! यदि बिना अर्थ का कोई शब्द हो तो उसे बताइये। श्वेतकेतु ने कहा- अर्थ के साथ शब्द का वाचकत्वरूप सम्बन्ध है और वह सम्बन्ध नित्य है। यदि शब्द है तो उसका अर्थ भी सदा है ही। विपरीत क्रम से उच्चारण करने पर भी शब्द का कुछ-न-कुछ अर्थ होता ही है (जैसे नदी, दीन इत्यादि)। सुवर्चला बोली- शब्द अर्थात् वेद का आधार है अर्थभूत परमात्मा। ऐसा ही विद्वानों ने कहा है और यही मेरा भी मत है। उस अर्थ का आधार लिये बिना तो शब्द टिक ही नहीं सकता। परंतु आप तो इनमें कोई नियत सम्बन्ध ही नहीं मानते हैं, अत: आपका कथन प्रसिद्धि के विपरीत है। श्वेतकेतु ने कहा- मैंने प्रसिद्धि के विपरीत कुछ नहीं कहा है। देखों, आकाश के बिना पृथ्वी अथवा पार्थिव जगत् टिक नहीं सकता तथापि इनमें कोई नित्य सम्बन्ध नहीं है। शब्द और अर्थ का सम्बन्ध भी वैसा ही मानना चाहिये।[3]
सुवर्चला बोली- यह ‘अहम्’ शब्द सदा ही आत्मा के अर्थ में स्पष्टरूप से प्रयुक्त होता है; परंतु ‘यतो वाचो निवर्तन्ते’ इस श्रुति के अनुसार वहाँ वाणी की पहुँच नहीं है; अत: आत्मा के लिये ‘अहम्’ पद का प्रयोगभी मिथ्या ही होगा। श्वेतकेतु ने कहा- शुभव्रते! अहम् शब्द का आत्म भाव में प्रयोग नहीं होता; किंतु अहम् भाव का ही आत्म भाव मे प्रयोग होता है; क्योंकि सगुण पदार्थ के बोधक वचन अचिन्त्य परब्रह्म परमात्मा का बोध कराने में असमर्थ हैं। जैसे मिट्टी के घड़े में मृत्ति का भाव-भाव होता है, उसी प्रकार परमात्मा से उत्पन्न हुए प्रत्येक पदार्थ में परमात्म भाव अभीष्ट है; अत: अचिन्त्य परब्रह्म परमात्मा में अहम् भाव ही आत्मभाव है और वही यथार्थ है। ‘मैं’ ‘तुम’ और ‘यह‘ ये सब नाम परब्रह्म परमात्मा में हम लोगों द्वारा कल्पित है (वास्तविक नहीं है), अत: ‘उस परमात्मा तक वाणी की पहुँच नहीं हो पाती’ श्रुति के इस कथन से कोई विरोध नहीं है। अत: भीरू! मनुष्य भ्रान्तचित्त द्वारा ही अहम् आदि पदों का प्रयोग करता है। जैसे आकाश में स्थित सम्पूर्ण विश्व उसमें सटा हुआ-सा दीखता है, उसी प्रकार परमात्मा में स्थित हुआ सारा दृश्य प्रपंच उससे जुड़ा हुआ-सा जान पड़ता है। ब्रह्म के साथ जगत का जो सम्बन्ध है, उसी सम्बन्ध से यह उसी का कार्य जान पड़ता है। जैसे सारा जगत आकाश से पृथक् है तो भी उसके विकारों से सम्बन्ध होने के कारण सदा उससे मिश्रित ही रहता है, उसी प्रकार जगत से ब्रह्म का कोई सम्पर्क नहीं है तो भी यह उसी से उत्पन्न होने के कारण तद् रूप माना जाता है। वह ब्रह्म परम शुद्ध और उपमारहित है; अत: वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं किया ज सकता। इन चर्मचक्षुओं से उसको नही देखा जा सकता है तथा ज्ञानदृष्टि से उसका साक्षात्कार होता है, ऐसा मेरा मत है।
सुवर्चला बोली- तब तो यह मानना होगा कि जिस प्रकार निर्विकार, निराकार,नि:सीम और सर्वव्यापी आकाश का सर्वदा ही दर्शन होता है, उसी के समान ज्ञानस्वरूप आत्मा का भी दर्शन होता है।[3] श्वेतकेतु ने कहा- मनुष्य त्वचा द्वारा आकाश में स्थित वायु का बारंबार स्पर्श करता है, नासिका द्वारा आकाशवर्ती गन्ध को बारंबार सूँघता है और नेत्र द्वारा आकाश स्थित ज्योंति का दर्शन करता है। इसके सिवा अन्धकार, किरणसमूह, मेघों की घटा, वर्षा तथा तारागण का भी बारंबार दर्शन होता है; परंतु आकाश दृष्टिगोचर नहीं होता। सत्स्वरूप परमात्मा उस आकाश का भी आकाश है, अर्थात् उसे भी अवकाश देने वाला महाकाश है; यह निश्चित है, उन्हीं के लिये और उन्हीं के द्वारा इस सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि हुई है। वे ही सत्य तथा सर्वव्यापी हैं। भगवान के जो गुण सम्बन्धी नाम हैं, वे परमात्मा में औपचारिक हैं। नेत्र, मन तथा अन्य किसी इन्द्रिय के द्वारा भी उस सर्वव्यापी परमात्मा का ग्रहण नहीं हो सकता। वाणी द्वारा भी उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। केवल सूक्ष्म बुद्धि द्वारा उनका चिन्तन एवं साक्षात्कार किया जा सकता है। यह सारा प्रपंच (समष्टि एवं व्यष्टि जगत्) उन्हीं परमात्मा में प्रतिष्ठित है। ठीक उसी तरह, जैसे बड़ा और छोटा घड़ा पृथ्वी पर स्थित होते हैं। वह परमात्मा न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है, केवल ज्ञानस्वरूप है। उसी के आधार पर यह सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है। जैसे एक ही जल में मृत्तिका विशेष एवं बीज आदि द्रव्य विशेष के संयोग से रसभेद उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार प्रकृति और आत्मा के संयोग से गुण कर्म के अनुसार अनेक प्रकार की सृष्टि प्रकट होती है। जैसे प्यासा मनुष्य पानी पीकर तृप्ति लाभ करता है, उसी प्रकार साधक ब्रह्मबोधक वाक्य को स्मरण करके सदा तृप्ति एवं सम्पूर्ण ज्ञान से उसका सुख उत्तोतर अभ्युदय को प्राप्त होता है।[4]
सुवर्चला बोली- निष्पाप मुने! इस शब्द से क्या सिद्ध होने वाला है? मेरी तो ऐसी धारणा हैं कि शब्द से कुछ भी होने-जाने वाला नहीं है। परंतु पौराणिक विद्वान् ऐसा मानते है कि परमात्मा अचिन्त्य एवं वेदगम्य हैं। जैसे लोक में बहुत से शब्द निरर्थक होते हैं, उसी प्रकार वैदिक शब्द भी हो सकते हैं। मेरी बुद्धि में तो यही बात आती है; अत: आप इस विषय में यथोचित विचार करके मुझे यथार्थ बात बताने की कृपा करें। श्वेतकेतु ने कहा- ‘शुद्धस्वरूप परब्रह्म परमात्मा वेदगम्य हैं’ श्रुति का यह कथन परम सत्य है। इस विषय में नास्तिकों का कहना है कि परब्रह्म की प्रत्यक्ष उपलब्धि न होने से उक्त श्रुति का कथन व्याघात दोष से दूषित होने के कारण सत्य नहीं है। इसका उत्तर आस्तिक यों देते हैं कि सूक्ष्म शरीर विशिष्ट स्थूल देह में जीवात्मारूप से परब्रह्म की ही उपलब्धि होती है; अत: श्रुति का पूर्वोक्त कथन यथार्थ ही है। उत्तम अंगोवाली देवि! कोई लौकिक शब्द भी निरर्थक नहीं है; फिर वैदिक शब्द तो व्यर्थ हो ही कैसे सकता है। जिन शब्दों का परस्पर अन्वय नहीं होता जो एक दूसरे के असम्बद्ध होते हैं, उन्हीं को लौकिक पुरुष निरर्थक बताते हैं। किंतु शुभे! लौकिक शब्दों की ही भाँति वैदिक शब्द भी यद्यपि सार्थक समझे जाते हैं, तथापि वे साक्षात परमात्मा का बोध कराने में असमर्थ हैं; क्योंकि परमात्मा को वाणी का अगोचर बताया गया है और उनकी अगोचरता युक्तिसंगत भी है।[4]
वेदों में ब्रह्म की उपासना अथवा उसकी प्राप्ति के साधन का उपदेश है। उपासना के उपाय भी सूचित किये गये हैं। (जैसे ग्रहणकाल में चन्द्रमा और सूर्य के साथ राहु का दर्शन होता है उसी प्रकार) उपलक्षण योग से प्रत्येक शरीर में जीवात्मारूप से ब्रह्म की ही स्थिति का प्रदर्शन किया गया है। इसके सिवा नेति-नेति आदि निषेधात्मक वचनों द्वारा अनात्म वस्तु के बाधपूर्वक ब्रह्म के स्वरूप की ओर संकेत किया गया है। इसलिये शुद्धस्वरूप परमात्मा एकमात्र वेदगम्य हैं, यही मेरी सुनिश्चित धारणा है। शुभ आचरणों वाली देवि! तुम्हें यह विदित हो कि अध्यात्मतत्त्व के चिन्तन से नित्य ज्ञान दीपक की भाँति स्वष्टरूप से प्रकाशित होने लगता है। उस ज्ञान से मनुष्य परम गति को प्राप्त होते हैं। शुभे! शुद्धस्वरूपे! ज्ञानदृष्टि से सम्पन्न देवि! मैंने यह जो गूढ़ एवं यथार्थ ब्रह्मज्ञान का विषय बताया है, इसे तुमने सुना है या नही? शुभे! परब्रह्म परमात्मा का ऐश्वर्य नाना रूपों में दिखायी देता है। वायु की वहाँ तक पहुँच नहीं है। सूर्य और अग्नि उस परमपदस्वरूप परमेश्वर को प्रकाशित नहीं कर सकते। परमात्मा से ही यह सम्पूर्ण जगत परिपूर्ण है और वे ही प्रत्येक प्राणी के हृदय में आत्मारूप से निवास करते हैं। इतना ही परमात्म विज्ञान है। इतना ही अहम् पदार्थ माना गया है। हम दोनों की सत्ता नित्य नहीं है, ऐसी धारणा अज्ञान के कारण होती है। भीष्म जी कहते हैं- राजन! अपने पति श्वेतकेतु के इस प्रकार यथार्थ उपदेश देने पर सुवर्चला आनन्दमग्न हो गयी। वह निरन्तर तत्त्वज्ञाननिष्ठ रहकर तदनुरूप आचरण करने लगी। श्वेतकेतु पत्नी को साथ रखकर नित्य नैमित्तिक कर्मों में संलग्न रहते थे। वे सबके हृदय में निवास करने वाले महात्मा परमात्मा गोविन्द को अपने समस्त कर्म समर्पित करके उन्हीं के ध्यान में तन्मय रहा करते थे। राजन! इस प्रकार दीर्घकालतक परमात्मचिन्तन करके उन्होंने परमगति प्राप्त कर ली। नरेश्वर! तुमने जो प्रश्न किया था, उसके उत्तरमें मैंने यह प्रसंग सुनाया है। इस प्रकार वे दोनों पति-पत्नी गृहस्थधर्म का आश्रय लेकर परमात्मा को प्राप्त हो गये।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 220 भाग 3
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 220 भाग 4
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 220 भाग 5
- ↑ 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 220 भाग 6
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 220 भाग 7
संबंधित लेख
महाभारत शान्ति पर्व में उल्लेखित कथाएँ
राजधर्मानुशासन पर्व
युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन
| युधिष्ठिर का कर्ण को शाप मिलने का वृत्तांत पूछना
| नारद का कर्ण को शाप प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना
| कर्ण को ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुराम का शाप
| कर्ण की मदद से दुर्योधन द्वारा कलिंगराज कन्या का अपहरण
| कर्ण के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर जरासंध का उसे अंगदेश का राजा बनाना
| युधिष्ठिर का स्त्रियों को शाप
| युधिष्ठिर का अर्जुन से आन्तरिक खेद प्रकट करना
| अर्जुन का युधिष्ठिर के मत का निराकरण करना
| युधिष्ठिर का वानप्रस्थ एवं संन्यासी जीवन का निश्चय
| भीम का राजा के लिए संन्यासी का विरोध
| अर्जुन का इंद्र और ऋषि बालकों के संवाद का वर्णन
| नकुल का गृहस्थ धर्म की प्रशंसा करते हुए युधिष्ठिर को समझाना
| सहदेव का युधिष्ठिर को ममता और आसक्ति से मुक्त राज्य करने की सलाह देना
| द्रौपदी का युधिष्ठिर को राजदण्डधारणपूर्वक शासन के लिए प्रेरित करना
| अर्जुन द्वारा राज राजदण्ड की महत्ता का वर्णन
| भीम का राजा को मोह छोड़कर राज्य-शासन के लिए प्रेरित करना
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की बात का विरोध एवं मुनिवृत्ति-ज्ञानी महात्माओं की प्रशंसा
| जनक का दृष्टांत सुनाकर अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर को संन्यास ग्रहण से रोकना
| युधिष्ठिर द्वारा अपने मत की यथार्थता का प्रतिपादन
| मुनिवर देवस्थान का युधिष्ठिर को यज्ञानुष्ठान के लिए प्रेरित करना
| देवस्थान मुनि द्वारा युधिष्ठिर के प्रति उत्तम धर्म-यज्ञादि का उपदेश
| क्षत्रिय धर्म की प्रशंसा करते हुए अर्जुन पुन: युधिष्ठिर को समझाना
| व्यास जी द्वारा शंख और लिखित की कथा सुनाना
| व्यास द्वारा सुद्युम्न के दण्डधर्मपालन का महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिर को आज्ञा देना
| व्यास का युधिष्ठिर को हयग्रीव का चरित्र सुनाकर कर्तव्यपालन के लिए जोर देना
| सेनजित के उपदेश युक्त उद्गारों का उल्लेख करके व्यास का युधिष्ठिर को समझाना
| युधिष्ठिर द्वारा धन के त्याग की महत्ता का प्रतिपादन
| युधिष्ठिर को शोकवश शरीर त्यागने को उद्यत देख व्यास का समझाना
| अश्मा ऋषि एवं जनक के संवाद द्वारा व्यास द्वारा युधिष्ठिर को समझाना
| श्रीकृष्ण द्वारा नारद-सृंजय संवाद के रूप में युधिष्ठिर के शोक निवारण का प्रयत्न
| महर्षि नारद और पर्वत का उपाख्यान
| सुवर्णष्ठीवी के जन्म, मृत्यु और पुनर्जीवन का वृत्तांत
| व्यास का अनेक युक्तियों से युधिष्ठिर को समझाना
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना
| कर्मों को करने और न करने का विवेचन
| पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन
| स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप
| पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित
| अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन
| दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन
| व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश
| नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार
| चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध
| चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन
| युधिष्ठिर का राज्याभिषेक
| युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना
| युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना
| युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति
| युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम
| युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार
| युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद
| श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज
| परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न
| परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा
| श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन
| श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना
| भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना
| पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना
| श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या
| सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना
| श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत
| भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना
| भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना
| युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन
| राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता
| राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष
| राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन
| भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन
| युधिष्ठिर का भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश
| ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन
| राजा पृथु के चरित्र का वर्णन
| वर्णधर्म का वर्णन
| आश्रम धर्म का वर्णन
| ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व
| वर्णाश्रम धर्म का वर्णन
| राजर्धम का वर्णन
| इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद
| राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल
| राष्ट्र की रक्षा और उन्नति
| राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन
| वसुमना और बृहस्पति का संवाद
| राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन
| राजा के प्रधान कर्तव्य
| दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन
| राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण
| धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म
| राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता
| विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता
| ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान
| ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान
| राज्य के कर्तव्य का वर्णन
| युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन
| उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव
| केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान
| केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन
| आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट
| लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार
| रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना
| ऋत्विजों के लक्षण
| यज्ञ और दक्षिणा का महत्व
| तप की श्रेष्ठता
| राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव
| मन्त्री के लक्षणों का वर्णन
| कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य
| श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद
| मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता
| कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान
| सभासद आदि के लक्षण
| गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश
| इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व
| राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन
| दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण
| राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन
| प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश
| राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय
| प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार
| राजा के कर्तव्य का वर्णन
| उतथ्य का मान्धाता को उपदेश
| राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता
| उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व
| राजा के धर्म का वर्णन
| राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश
| वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन
| वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव
| विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन
| राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा
| शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन
| इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन
| समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन
| शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति
| सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन
| भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण
| विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन
| शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना
| दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश
| कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन
| कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना
| विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना
| गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति
| माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व
| सत्य-असत्य का विवेचन
| धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन
| सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय
| मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा
| तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य
| सरिताओं और समुद्र का संवाद
| दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ
| राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण
| सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा
| कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना
| राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन
| सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन
| सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना
| राजधर्म का साररूप में वर्णन
| दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन
| दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन
| दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन
| त्रिवर्ग के विचार का वर्णन
| पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद
| इन्द्र और प्रह्लाद की कथा
| शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन
| सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा
| राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना
| सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना
| ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना
| तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना
| ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना
| यम और गौतम का संवाद
| आपत्ति के समय राजा का धर्म
- आपद्धर्म पर्व
आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना
- मोक्षधर्म पर्व
शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज