- महाभारत शान्ति पर्व के मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 284 में पार्वती के रोष एवं खेद के निवारण करने के लिए भगवान शिव के द्वारा दक्ष-यज्ञ के विध्वंस का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
दक्ष के यज्ञ में देवता आदि का वर्णन
जनमेजय ने कहा- ब्रह्मन! वैवस्वत मन्वन्तर में प्रचेताओं के पुत्र दक्ष प्रजापति का अश्वमेघ यज्ञ कैसे नष्ट हो गया? दक्ष के यज्ञ में मेरा आवाहन न होना पार्वती के दु:ख का कारण बन गया है- यह जानकर भगवान शंकर, जो सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा हैं, जब कूपित हो उठे, तब फिर उन्हीं की कृपापूर्ण प्रसन्नता से दक्ष प्रजापति का यह यज्ञ कैसे सम्पन्न हुआ? मैं यह वृतान्त जानना चाहता हूँ, आप इसे यथार्थ रूप से बताने की कृपा करें।
वैशम्पायन जी ने कहा- प्राचीन काल की बात है- हिमालय के पार्श्ववर्ती गंगाद्वार हरिद्वार के शुभ देश में, जहाँ ऋषियों तथा सिद्ध पुरुषों का निवास है, प्रजापति दक्ष ने अपने यज्ञ का आयोजन किया था। वह स्थान गन्धर्वों और अप्सराओं से भरा था। भाँति-भाँति के वृक्ष समूह और लताएँ वहाँ सब ओर छा रही थीं। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ प्रजापति दक्ष ऋषिसमुदाय से घिरे हुए बैठे। उस समय पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोक के निवासी भी वहाँ जुटे हुए थे और वे सब-के-सब हाथ जोड़कर प्रजापति को प्रणाम करके उनकी सेवा में खड़े थे। देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग, राक्षस, हाहा और हूहू नामक गन्धर्व, तुम्बुरू, नारद, विश्वावसु, विश्वसेन तथा दूसरे-दूसरे गन्धर्व और अप्सराएँ वहाँ उपस्थित थीं। आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य और मरुद्गण- ये सब-के-सब इन्द्र के साथ यज्ञ में भाग लेने के लिये वहाँ पधारे थे। उष्मपा (सूर्य की किरणों का पान करने वाले), सोमपा (सोमरस पीने वाले), धूमपा (यज्ञ में धूम-पान करने वाले) और आज्यपा (घृत-पान करने वाले) पितर और ऋषि भी ब्रह्मा जी के साथ उस यज्ञ में पधारे थे। ये तथा और भी बहुत-से चतुर्विध प्राणिसमुदाय जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज वहाँ उपस्थित हुए थे। जिन्हें निमन्त्रित करके बुलाया गया था, वे सब देवता अपनी पत्नियों के साथ विमान पर बैठकर आते समय प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे।[1]
दक्ष और दधीचि का संवाद
(महामुनि दधीचि भी उस यज्ञमण्डप में उपस्थित थे। उन्होंने देखा कि देवता और दानव आदि का समाज तो खूब जुटा हुआ है; परंतु भगवान शंकर दिखायी नहीं देते हैं। जान पड़ता है उनका आवाहन नहीं किया गया है। इससे उनके मन में बड़ा दु:ख हुआ।) उन सब देवताओं को वहाँ उपस्थित देख दधीचि क्रोध में भर गये और बोले- 'सज्जनों! जिसमें भगवान शिव की पूजा नहीं होती है, वह न यज्ञ है और न धर्म। यह यज्ञ भी भगवान शिव के बिना यज्ञ कहने योग्य नहीं रहा। इसका आयोजन करने वाले लोग वध और बन्धन की दुर्दशा में पड़ने वाले हैं। अहो! काल का कैसा उलट-फेर है। इस महायज्ञ में अत्यन्त घोर विनाश उपस्थित होने वाला है; किंतु मोहवश कोई देख नहीं रहे हैं- समझ नहीं पाते हैं।'[1] ऐसा कहकर माहयोगी दधीचि ने जब ध्यान लगाकर देखा, तब उन्हें भगवान शंकर और मंगलमयी वरदायिनी देवी पार्वती जी का दर्शन हुआ।
उनके पास ही महात्मा नारद जी भी दिखायी दिये, इससे उनको बड़ा संतोष हुआ। योगवेत्ता दधीचि को यह निश्चय हो गया कि ये सब देवता एकमत हो गये हैं। इसीलिये इन्होंने महेश्वर को यहाँ निमन्त्रित नहीं किया है। यह बात ध्यान में आते ही दधीचि यज्ञशाला से अलग हो गये और दूर जाकर कहने लगे- 'सज्जनों! अपूजनीय पुरुष की पूजा करने से और पूजनीय महापुरुष की पूजा न करने से मनुष्य सदा ही नरहत्या के समान पाप का भागी होता है। मैंने पहले कभी झूठ नहीं कहा है और आगे भी कभी झूठ नहीं कहूँगा। इन देवताओं तथा ऋषियों के बीच मैं सच्ची बात कह रहा हूँ। भगवान शंकर सम्पूर्ण जगत की सृष्टि करने वाले, सम्पूर्ण जीवों के रक्षक, स्वामी तथा सबके प्रभू हैं। तुम सब लोग देख लेना, वे इस यज्ञ में प्रधान भोक्ता के रूप में उपस्थित होंगे।
दक्ष ने कहा- हाथों में शूल और मस्तक पर जटाजूट धारण करने वाले बहुत-से रुद्र हमारे यहाँ रहते हैं। वे ग्यारह हैं और ग्यारह स्थानों में निवास करते हैं। उनके सिवा दूसरे किसी महेश्वर को मैं नहीं जानता। दधीचि बोले- मैं जानता हूँ, आप सब लोगों का ही यह मिल-जुलकर किया हुआ निश्चय है। इसीलिये उन महादेव जी को निमन्त्रित नहीं किया गया है; परंतु मैं भगवान शंकर से बढ़कर दूसरे किसी देवता को नहीं देखता। यदि यह सत्य है तो प्रजापति दक्ष का यह विशाल यज्ञ निश्चय ही नष्ट हो जायेगा। दक्ष ने कहा- महर्षे! देखो, विधिपूर्वक मन्त्र से पवित्र की हुई यह हवि सुवर्ण के पात्र में रखी हुई है। यह यज्ञेश्वर श्री विष्णु को समर्पित है। भगवान विष्णु की कहीं समता नहीं है। मैं उन्हीं को हविष्य का यह भाग अर्पित करूँगा। ये भगवान विष्णु ही सर्वसमर्थ, व्यापक और यज्ञ भाग अर्पित करने के योग्य हैं।[2]
शिव-पार्वती संवाद
(दूसरी ओर कैलास पर्वत पर) पार्वती देवी (बहुत दुखी होकर) कह रही थीं- आह, मैं कौन-सा व्रत, दान या तप करूँ, जिसके प्रभाव से आज मेरे पतिदेव अचिन्त्य भगवान शंकर को यज्ञ का आधा अथवा तिहाई भाग अवश्य प्राप्त हो? क्षोभ में भरकर इस प्रकार बोलती हुई पत्नी की बात सुनकर भगवान शंकर हर्ष से खिल उठे और इस प्रकार बोले- 'देवि! कृशोदरांगि! तू मुझे नहीं जानती, मैं सम्पूर्ण यज्ञों का ईश्वर हूँ। मेरे विषय में किस प्रकार के वचन कहना चाहिये, यह भी तुम नहीं जानती। पर मैं सब कुछ जानता हूँ। विशाललोचने! जिनका चित्त एकाग्र नहीं है, वे ध्यानशून्य असाधु पुरुष मेरे स्वरूप को नहीं जानते। आज तुम्हारे इस मोह से इन्द्र आदि देवताओं सहित तीनों लोक सब ओर से किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये हैं। यज्ञ में प्रस्तोता लोग मेरी स्तुति करते हैं। सामगान करने वाले ब्राह्मण रथन्तर साम के रूप में मेरी महिमा का गान करते हैं। वेदवेत्ता विप्र मेरा ही यजन करते और ॠत्विज लोग यज्ञ में मुझे ही भाग अर्पित करते हैं'।
देवी ने कहा- नाथ! अत्यन्त गँवार पुरुष भी क्यों न हो, प्राय: सभी स्त्रियों के बीच में अपनी प्रशंसा के गीत गाते और अपनी श्रेष्ठता पर गर्व करते हैं- इसमें तनिक भी संशय नहीं है।[2] श्रीभगवान शिव बोले- 'देवेश्वरि! तनुमध्यमे! वरारोहे! वरवर्णिनि! मैं अपनी प्रशंसा नहीं करता हूँ। मेरा प्रभाव देखो। जिसके कारण तुम्हें दु:ख हुआ है, उस यज्ञ को नष्ट करने के लिये मैं जिस वीर पुरुष की सृष्टि कर रहा हूँ' उस पर दृष्टिपात करो।'[3]
वीरभद्र एवं महाकाली का प्राकट्य तथा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस
अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी पत्नी उमा से ऐसी बात कहकर भगवान महेश्वर ने अपने मुख से एक अद्भुत एवं भयंकर प्राणी को प्रकट किया, जो उनका हर्ष बढ़ाने वाला था। महेश्वर ने उस पुरुष को आज्ञा दी- 'वीर! तुम दक्ष के यज्ञ का नाश कर दो।' फिर तो भगवान के मुख से निकले हुए उस सिंह के समान पराक्रमी एक ही वीर ने पार्वती देवी के दु:ख और क्रोध का निवारण करने के लिये खेल ही खेल में प्रजापति दक्ष के उस यज्ञ का विध्वंस कर डाला। उस समय भवानी के क्रोध से प्रकट हुई अत्यन्त भयंकर रूपवाली महाकाली महेश्वरी ने भी अपना पराक्रम दिखाने के लिये सेवकों सहित उस वीर के साथ प्रस्थान किया था। (वीरभद्र ने किस प्रकार उस यज्ञ का विघ्वंस किया, यह प्रसंग आगे बताया गया है-) महादेव जी की अनुमति जानकर उसने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। वह वीर अपने ही समान शौर्य, रूप और बल से सम्पन्न था (उसकी कहीं उपमा नहीं थी)। भगवान शिव का वह सब कुछ करने में समर्थ क्रोध ही मूर्तिमान होकर उस वीर के रूप में प्रकट हुआ था। उसके बल, वीर्य, शक्ति और पुरुषार्थ का कहीं अन्त नहीं था। पार्वती देवी के क्रोध और खेद का निवारण करने वाला वह पुरुष वीरभद्र के नाम से विख्यात हुआ। उसने अपने रोमकूपों से रौम्य नामवाले गणेश्वरों को प्रकट किया, जो रुद्र के समान ही होने के कारण रौद्रगण कहलाये। उन सबके बल-पराक्रम भी रुद्र के समान थे।
वे भयंकर रूपधारी विशालकाय रुद्रगण सैकड़ों और हजारों की टोलियाँ बनाकर अपनी किलकारियों से आकाश को गुँजाते हुए-से दक्ष यज्ञ का विध्वंस करने के लिये बड़ी तेजी के साथ टूट पड़े। उस महाभयंकर कोलाहल से उस यज्ञ में पधारे हुए समस्त देवता व्याकुल हो उठे। पर्वत टूक-टूक होकर बिखर गये। धरती डोलने लगी, आँधी चलने लगी और समुद्र में तूफान आ गया। उस समय आग नहीं जलती थी, सूर्य का प्रकाश फीका पड़ गया; ग्रह, नक्षत्र और चन्द्रमा भी निस्तेज हो गये। इस प्रकार वहाँ चारों ओर अँधेरा छा गया। देवता, ऋषि और मनुष्य सभी छिप गये कोई दिखायी नहीं देते थे। दक्ष से अपमानित हुए रुद्रगण यज्ञशाला में सब ओर आग लगाने लगे। दूसरे भयंकर भूत उसी यज्ञ के सदस्यों को पीटने लगे। कुछ यूप उखाड़ने लगे। बहुतेरे रुद्रगण यज्ञ की सामग्री को कुचलने और रौंदने लगे। वायु और मन के समान वेगशाली कितने ही पार्षद इधर-उधर दौड़ लगाने लगे। कुछ लोग यज्ञ के उपयोग में आने वाले पात्रों तथा दिव्य आभूषणों को चर-चूर कर रहे थे। उनके बिखरकर गिरते हुए टुकड़े आकाश में छिटके हुए तारों के समान दिखायी देते थे। उस यज्ञ भूमि में जहाँ-तहाँ दिव्य अन्न, पान और भक्ष्य पदार्थों के पर्वतों-जैसे ढेर दिखायी देते थे।[3]
दूध की दिव्य नदियाँ वहाँ बहती दिखती थीं, घी और खीर की कीच जम गयी थी, दही और मट्ठा पानी की तरह बह रहे थे तथा खाँड और शक्कर वहाँ बालू की भाँति बिछ गये थे। ये सब नदियाँ षटरस भोजन प्रवाहित कर रही थीं। गुड़ के रस की छोटी-छोटी मनोरम नहरें दृष्टिगोचर होती थीं। नाना प्रकार के फलों के गूदे और भाँति-भाँति के भक्ष्य-पदार्थ प्रस्तुत किये गये थे। दिव्य पेय पदार्थ, लेह्य और चोष्य आदि जो-जो भोजन वहाँ उपलब्ध हुए, उन सबको वे रुद्रगण अपने विविध मुखों द्वारा खाने, नष्ट करने और चारों और छींटने तथा फेंकने ल्रगे। वे विशालकाय भूत रुद्रदेव के क्रोध से कालाग्नि के समान होकर देवताओं की सेनाओं को चारों ओर से डराने और क्षुब्ध करने लगे। अनेक प्रकार की आकृति वाले वे रुद्रगण खेल्रते-कूदते और देवांगनाओं को दूर फेंक देते थे। यद्यपि सम्पूर्ण देवताओं ने मिलकर प्रयत्नपूर्वक उस यज्ञ की रक्षा की थी तथापि रुद्रकर्मा वीरभद्र ने रुद्रदेव के क्रोध से प्रेरित हो सब ओर से शीघ्र ही उसे जलाकर भस्म कर दिया। तत्पश्चात उसने ऐसी भीषण गर्जना की, जो समस्त प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करने वाली थी। फिर उसने यज्ञ का सिर काटकर बड़े जोर से सिंहनाद किया और मन-ही-मन आनन्द का अनुभव किया। तब ब्रह्मा आदि देवता तथा प्रजापति दक्ष- ये सब-के-सब हाथ जोड़कर बोले- 'देवदेव! कहिये, आप कौन हैं?'[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 1-13
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 14-27
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 28-43
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 284 श्लोक 44-59
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| आपत्ति के समय राजा का धर्म
- आपद्धर्म पर्व
आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना
- मोक्षधर्म पर्व
शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना
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