महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान

महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत 266वें अध्याय में महर्षि गौतम और चिरकारी के उपाख्यान का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

भीष्म द्वारा गौतम और चिरकारी के संवाद का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! आप मेरे परमगुरु हैं। कृपया यह बतलाइये कि यदि कभी सर्वथा ऐसा कार्य उपस्थित हो जाय, जो गुरुजनों की आज्ञा के कारण अवश्‍य कर्तव्य हो, परंतु हिंसायुक्‍त होने के कारण दुष्‍कर एवं अनुचित प्रतीत होता हो तो ऐसे अवसर पर उस कार्य की परख कैसे करनी चाहिये? उसे शीघ्र कर डालें या देर तक उस पर विचार करता रहे। भीष्‍म जी ने कहा– बेटा! इस विषय में जानकार लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जो पहले आंगिरस-कुल में उत्‍पन्‍न चिरकारी पर बीत चुका है। ‘चिरकारी! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। चिरकारी! तुम्‍हारा मंगल हो। चिरकारी बड़ा बुद्धिमान है। चिरकारी कर्तव्‍यों के पालन में कभी अपराध नहीं करता है।’ (यह बात चिरकारी की प्रशंसा करते हुए उसके पिता ने कही थी)। कहते हैं, महर्षि गौतम के एक महाज्ञानी पुत्र था, जिसका नाम था चिरकारी। वह कर्तव्‍य-विषयों का भली-भाँति विचार करके सारे कार्य विलम्‍ब से किया करता था। वह सभी विषयों पर बहुत देर तक विचार करता था, चिरकाल तक जागता था और चिरकाल तक सोता था तथा चिर-विलम्ब के बाद ही कार्य पूर्ण करता था; इसलिये सब लोग उसे चिरकारी कहने लगे। एक दिन की बात है, गौतम ने अपनी स्‍त्री के द्वारा किये गये किसी व्‍यभिचार पर कुपित हो अपने दूसरे पुत्रों को न कहकर चिरकारी से कहा– बेटा! तू अपनी इस पापिनी माता को मार डाल'। उस समय बिना विचारे ही ऐसी आज्ञा देकर जप करने वालों में श्रेष्‍ठ ब्रह्मर्षि महाभाग गौतम वन में चले गये। चिरकारी ने अपने स्‍वभाव के अनुसार देर करके कहा, ‘बहुत अच्‍छा‘। चिरकारी तो वह था ही, चिरकाल तक उस बात पर विचार करता रहा। उसने सोचा कि ‘मैं किस उपाय से काम लूँ, जिससे पिता की आज्ञा का पालन भी हो जाय और माता का वध भी न करना पड़े।

धर्म के बहाने यह मेरे ऊपर महान् संकट आ गया है। भला, अन्‍य असाधु पुरुषों की भाँति मैं भी इसमें डूबने का कैसे साहस करूँ? पिता की आज्ञा का पालन धर्म है और माता की रक्षा करना पुत्र का प्रधान धर्म है। पुत्र कभी स्‍वतन्‍त्र नहीं होता, वह सदा माता-पिता के अधीन ही रहता है, अत: क्‍या करूँ जिससे मुझे धर्म की हानिरूप पीड़ा न हो। एक तो स्‍त्री-जाति, दूसरे माता का वध करके कौन पुत्र कभी भी सुखी हो सकता है? पिता की अवहेलना करके भी कौन प्रतिष्‍ठा पा सकता है? पिता का अनादर उचित नहीं है, साथ ही माता की रक्षा करना भी पुत्र का धर्म है। ये दोनों ही धर्म उचित और योग्‍य हैं। मैं किस प्रकार इनका उल्‍लंघन न करूँ? पिता स्‍वयं अपने शील, सदाचार, कुल और गोत्र की रक्षा के लिये स्‍त्री के गर्भ में अपना ही आधान करता और पुत्ररूप में उत्‍पन्‍न होता है। अत: मुझे माता और पिता- दोनों ने ही पुत्र के रूप में जन्‍म दिया है। मैं इन दोनों को ही अपनी उत्‍पत्ति का कारण समझता हूँ। मेरा ऐसा ही ज्ञान क्‍यों न सदा बना रहे?[1] जा‍तकर्म-संस्‍कार और उपनयन-संस्‍कार के समय पिता ने जो आशीर्वाद दिया है, वह पिता के गौरव का निश्चय कराने में पर्याप्‍त एवं सुदृढ प्रमाण है। पिता भरण-पोषण करने तथा शिक्षा देने के कारण पुत्र का प्रधान गुरु है। वह परमधर्म का साक्षात् स्‍वरूप है। पिता जो कुछ आज्ञा दे, उसे ही धर्म समझकर स्‍वीकार करना चाहिये। वेदों में भी उसी को धर्म निश्चित किया गया है। पुत्र पिता की सम्‍पूर्ण प्रीतिरूप है और पिता पुत्र का सर्वस्‍व है। केवल पिता ही पुत्र को देह आदि सम्‍पूर्ण देने योग्‍य वस्‍तुओं को देता है। इ‍सलिये पिता के आदेश का पालन करना चाहिये। उस पर कभी कोई विचार नहीं करना चा‍हिए। जो पिता की आज्ञा का पालन करने वाला है, उसके पातक भी नष्‍ट हो जाते हैं। पुत्र के भोग्‍य (वस्‍त्र आदि), भोज्‍य (अन्‍न आदि), प्रवचन (वेदाध्‍ययन), सम्‍पूर्ण लोक-व्‍यवहार की शिक्षा तथा गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्‍तोन्‍नयन आदि समस्‍त संस्‍कारों के सम्‍पादन में पिता ही प्रभु है। इसलिये पिता धर्म है, पिता स्‍वर्ग है और पिता ही सबसे बड़ी तपस्‍या है।

पिता के प्रसन्‍न होने पर सम्‍पूर्ण देवता प्रसन्‍न हो जाते हैं। पिता पुत्र से यदि कुछ कठोर बातें कह देता है तो वे आशीर्वाद बनकर उसे अपना लेती हैं और पिता यदि पुत्र का अभिनन्दन करता है- मीठे वचन बोलकर उसके प्रति प्‍यार और आदर दिखाता है तो इससे पुत्र के सम्‍पूर्ण पापों का प्रायश्चित हो जाता है। फूल डंठल से अलग हो जाता है, फल वृक्ष से अलग हो जाता है; परंतु पिता कितने ही कष्‍ट में क्‍यों न हो, लाड़-प्‍यार से पाले हुए अपने पुत्र को कभी नहीं छोड़ता है अर्थात पुत्र कभी पिता से अलग नहीं हो सकता। पुत्र के निकट पिता का कितना गौरव होना चाहिये, इस बात पर पहले विचार किया है। विचार करने से यह बात स्‍पष्‍ट हो गयी कि पिता पुत्र के लिये कोई छोटा-मोटा आश्रय नहीं है। अब मैं माता के विषय में सोचता हूँ। मेरे लिये जो यह पाञ्चभौतिक मनुष्‍य शरीर मिला है, इसके उत्‍पन्‍न होने में मेरी माता ही मुख्‍य हेतु है। जैसे अग्नि के प्रकट होने का मुख्‍य आधार अरणीकाष्‍ठ है। माता मनुष्‍यों के शरीररूपी अग्नि को प्रकट करने वाली अरणी है। संसार के समस्‍त आर्त प्राणियों को सुख और सान्‍त्‍वना प्रदान करने वाली माता ही है। जब तक माता जीवित रहती है, मनुष्‍य अपने को सनाथ समझता है और उसके न रहने पर वह अनाथ हो जाता है। माता के रहते मनुष्‍य को कभी चिंता नहीं होती, बुढ़ापा उसे अपनी ओर नहीं खींचता है। जो अपनी मां को पुकारता हुआ घर में जाता है, वह निर्धन होने पर भी मानो माता अन्‍नपूर्णा के पास चला जाता है। पुत्र और पौत्रों से सम्‍पन्‍न होने पर भी जो अपनी माता के आश्रय में रहता है, वह सौ वर्ष की अवस्‍था के बाद भी उसके पास दो वर्ष के बच्‍चे के समान आचरण करता है। पुत्र असमर्थ हो या समर्थ, दुर्बल हो या हृष्टपुष्‍ट, माता उसका पालन करती ही है। माता के सिवा दूसरा कोई विधिपूर्वक पुत्र का पालन-पोषण नहीं कर सकता।[2]

जब माता से विछोह हो जाता है, उसी समय मनुष्‍य अपने को बूढ़ा समझने लगता है, दुखी हो जाता है और उसके लिये सारा संसार सूना प्रतीत होने लगता है। मा‍ता के समान दूसरी कोई छाया नहीं है अर्थात माता की छत्रछाया में जो सुख है, वह कहीं नहीं है। माता के तुल्‍य दूसरा सहारा नहीं है, माता के सदृश अन्‍य कोई रक्षक नहीं है तथा बच्‍चे के लिए मां के समान दूसरी कोई प्रिय वस्‍तु नहीं है। वह गर्भाशय में धारण करने के कारण धात्री, जन्‍म देने के कारण जननी, शिशु का अंगवर्धन (पालन-पोषण) करने से अम्‍बा तथा वीर-संतान का प्रसव करने के कारण वीरसू कही गयी है। वह शिशु की शुश्रूषा करके शुश्रू नाम धारण करती है। माता अपना निकटतम शरीर है। जिसका मस्तिष्‍क विचारशून्‍य नहीं हो गया है, ऐसा कोर्इ सचेतन मनुष्‍य कभी अपनी माता की हत्‍या नहीं कर सकता। पति और पत्नि मैथुनकाल में सुयोग्‍य पुत्र होने के लिये जो अभिलाषा करते हैं तथापि वास्‍तव में वह अभिलाषा माता में ही प्रतिष्ठित होती है। पुत्र का गोत्र क्‍या है? यह माता जानती है। वह किस पिता का पुत्र है? यह भी माता ही जानती है। माता बालक को अपने गर्भ में धारण करती है, इसलिये उसी का उस पर अधिक स्नेह और प्रेम होता है। पिता का तो अपनी संतान पर प्रभुत्‍वमात्र है। जब स्‍वयं ही पत्नि का पाणिग्रहण करके साथ-साथ धर्माचरण करने की प्रतिज्ञा लेकर भी पुरुष परायी स्त्रियों के पास जायेंगे (और उन पर बलात्‍कार करेंगे), तब इसके लिये स्त्रियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। पुरुष अपनी स्‍त्री का भरण-पोषण करने से भर्ता और पालन करने के कारण पति कहलाता है। इन गुणों के न रहने पर वह न तो भर्ता है और न पति ही कहलाने योग्‍य है। वास्‍तव में स्‍त्री का कोई अपराध नहीं होता है, पुरुष ही अपराध करता है। व्‍यभिचार का महान पाप पुरुष ही करता है, इसलिये वही अपराधी है। स्‍त्री के लिये पति ही परमआदरणीय है, वही उसका सबसे बड़ा देवता माना गया है। मेरी माता ने ऐसे पुरुष को आत्‍मसमर्पण किया है, जो शरीर से, वेशभूषा से पिता जी के समान ही था।

ऐसे अवसरों पर स्त्रियों का अपराध नहीं होता, पुरुष ही अपराधी होता है। सभी कार्यों में अबला होने के कारण स्त्रियों को अपराध के लिये विवश कर दिया जाता है, अत: पराधीन होने के कारण वे अपराधिनी नहीं हैं। स्‍त्री के द्वारा मैथुनजनित सुख से तृप्‍त होने के लिये कोई संकेत न करने पर भी उसके काम को उद्दीप्‍त करने वाले पुरुष को स्‍पष्‍ट ही अधर्म की प्राप्ति होती है। इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार विचार करने से एक तो वह नारी होने के कारण ही अवध्‍य है, दूसरे मेरी पूजनीया माता है। माता का गौरव पिता से भी बढ़कर है, जिसमें मेरी माँ प्रतिष्ठित है। नासमझ पशु भी स्‍त्री और माता को अवध्‍य मानते हैं (फिर मैं समझदार मनुष्‍य होकर भी उसका वघ कैसे करूँ?) मनीषी पुरुष यह जानते हैं कि पिता एक स्‍थान पर स्थित सम्‍पूर्ण देवताओं का समूह है; परंतु माता के भीतर उसके स्नेहवश समस्‍त मनुष्‍यों और देवताओं का समुदाय स्थित रहता है (अत: माता का गौरव पिता से भी अधिक है)।'[3] विलम्‍ब करने का स्‍वभाव होने के कारण चिरकारी इस प्रकार सोचता-विचारता रहा। इसी सोच-विचार में बहुत अधिक समय व्‍य‍तीत हो गया। इतने में ही उसके पिता वन से लौट आये। महाज्ञानी तपोनिष्‍ठ मेधातिथि गौतम उस समय पत्नि के वध के अनौचित्‍य पर विचार करके अधिक संतप्‍त हो गये। वे दु:ख से आँसू बहाते हुए वेदाध्‍ययन और धैर्य के प्रभाव से किसी तरह अपने को सँभाले रहे और पश्‍चाताप करते हुए मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगे- अहो! त्रिभुवन का स्‍वामी इन्‍द्र ब्राह्मण का रूप धारण करके मेरे आश्रम पर आया था। मैंने अतिथि सत्‍कार के गृहस्‍थोचित व्रत का आश्रय लेकर उसे मीठे वचनों द्वारा सान्‍त्वना दी, उसका स्‍वागत-सत्‍कार किया और यथोचित रूप से अर्ध्‍य-पाद्य आदि निवेदन करके मैंने स्‍वयं ही उसकी विधिवत पूजा की।

मैंने विनयपूर्वक कहा– ‘भगवान! मैं आपके अधीन हूँ। आपके पदार्पण से मैं सनाथ हो गया। मुझे आशा थी कि मेरे इस सद्व्‍यवहार से संतुष्‍ट होकर अतिथिदेवता मुझसे प्रेम करेंगे; परंतु यहाँ इन्‍द्र की विषयलोलुपता के कारण दु:खद घटना घटित हो गयी। इसमें मेरी स्‍त्री का कोई अपराध नहीं। इस प्रकार न तो स्‍त्री अपराधिनी है, न मैं अपराधी हूँ और न एक पथिक ब्राह्मण के वेश में आया हुआ देवताओं का राज इन्‍द्र ही अपराधी है। मेरे द्वारा धर्म के विषय में स्‍त्रीवधरूप प्रमाद हुआ है, वही इस अपराध की जड़ है। ऊर्ध्‍वरेता मुनि उस प्रमाद के ही कारण ईर्ष्‍याजनित संकट की प्राप्ति बताते हैं; ईर्ष्‍या ने मुझे पाप के समुद्र में ढकेल दिया है और मैं उसमें डूब गया हूँ। जिसे मैंने पत्नि के रूप में अपने घर में आश्रय दिया था। जो एक सती-साध्‍वी नारी थी और भार्या होने के कारण मुझसे भरण-पोषण पाने की अधिकारिणी थी, उसी का मैंने प्रमादरूपी व्‍यसन के वशीभूत होने के कारण वध करा डाला। अब इस पाप से मेरा कौन उद्धार करेगा? परंतु मैंने उदारबुद्धि चिरकारी को उसकी माता के वध के लिये आज्ञा दी थी। यदि उसने इस कार्य में विलम्‍ब करके अपने नाम को सार्थक किया हो तो वही मुझे स्‍त्रीहत्‍या के पाप से बचा सकता है। बेटा चिरकारी! तेरा कल्‍याण हो। चिरकारी! तेरा मंगल हो। यदि आज भी तूने विलम्‍ब से कार्य करने के अपने स्‍वभाव का अनुसरण किया हो तभी तेरा चिरकारी नाम सफल हो सकता है। बेटा! आज विलम्‍ब करके तू वास्‍तव में चिरकारी बन और मेरी, अपनी माता की तथा मैंने जो तप का उपार्जन किया है, उसकी भी रक्षा कर।

साथ ही अपने-आपको भी पातकों से बचा ले। अत्‍यन्‍त बुद्धिमान होने के कारण तुझमें जो चिरकारिता का सहज गुण है, वह इस समय सफल हो। आज तू वास्‍तव में चिरकारी बन। तेरी माता चिरकाल से तेरे जन्‍म की आशा लगाये बैठी थी। उसने चिरकाल तक तुझे गर्भ में धारण किया है, अत: बेटा चिरकारी! आज तू अपनी माता की रक्षा करके चिरकारिता को सफल कर ले। मेरा बेटा चिरकारी कोई दु:ख या संताप प्राप्‍त होने पर भी कार्य करने में विलम्‍ब करने का स्‍वभाव नहीं छोड़ता है। मना करने पर भी चिरकाल तक सोता रहता है। आज हम दोनों माता-पिता चिरसंताप देखकर वह अवश्‍य चिरकारी बने।'[4]

राजन! इस प्रकार दुखी हुए महर्षि गौतम ने घर आने पर अपने पुत्र चिरकारी को पास ही खड़ा देखा। पिता को उपस्थित देख चिरकारी बहुत दुखी हुआ। वह हथियार फेंककर उनके चरणों में मस्‍तक झुका उन्‍हें प्रसन्‍न करने की चेष्‍टा करने लगा। गौतम ने देखा, चिरकारी पृथ्‍वी पर माथा टेक कर पड़ा है और पत्नि लज्‍जा के मारे निश्‍चेष्‍ट खड़ी है। यह देखकर उन्‍हें बड़ी प्रसन्‍नता हुई। एकान्‍त वन में उस आश्रम के भीतर रहने वाले महामना गौतम ने अपनी पत्नि तथा एकाग्रचित्त पुत्र चिरकारी को कभी अपने से अलग नहीं‍ किया। अपने आवश्‍यक कर्म जप-ध्‍यान आदि के लिये महर्षि गौतम के बाहर चले जाने पर उनका पुत्र चिरकारी यद्यपि हाथ में हथियार लेकर खड़ा था तथापि माता की रक्षा के लिये वह विनीत भाव से कुछ सोचता-विचारता रहा। इसीलिये माता को मार डालने का जो आदेश प्राप्‍त हुआ था, वह पालित न हो सका। पुत्र को अपने चरणों में नतमस्‍तक हुआ देख गौतम के मन में यह विचार हुआ कि सम्‍भवत: चिरकारी भय के मारे हथियार उठाने की चपलता को छिपा रहा है। तब पिता ने चिरकाल तक उसकी प्रशंसा करके देर तक उसका मस्‍तक सूँघा और चिरकाल तक दोनों भुजाओं से खींचकर उसे हृदय से लगाये रखा और आर्शीवाद देते हुए कहा- 'बेटा! चिरंजीवी हो।'[5]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 266 श्लोक 1-15
  2. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 266 श्लोक 16-29
  3. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 266 श्लोक 30-43
  4. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 266 श्लोक 44-58
  5. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 266 श्लोक 59-74

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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को 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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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