प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद

महाभारत शान्ति पर्व के मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 269वें अध्याय में प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि एवं कपिल के संवाद का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद

कपिल ने कहा- यम-नियमों का पालन करने वाले संन्‍यासी ज्ञानमार्ग का आश्रय लेकर परब्रह्म परमात्‍मा को प्राप्‍त होते हैं। वे इस दृश्‍य प्रपंच को नश्‍वर समझते हैं। सम्‍पूर्ण लोकों में उनकी गति का कहीं कोई अवरोध नहीं होता। उन्‍हें सर्दी-गर्मी आदि द्वन्‍द्व विचलित नहीं करते। वे न तो किसी को प्रणाम करते हैं और न आशीर्वाद ही देते हैं। इतना ही नहीं, वे विद्वान पुरुष कामनाओं के बन्‍धन में भी नहीं बंधते हैं। सम्‍पूर्ण पापों से मुक्‍त, पवित्र और निर्मल होकर सर्वत्र विचरते रहते हैं। वे मोक्ष की प्राप्ति और सर्वस्‍व के त्‍याग के लिये अपनी बुद्धि में दृढ़ निश्चय रखते हैं। ब्रह्म के ध्‍यान में तत्‍पर एवं ब्रह्मस्‍वरूप होकर ब्रह्म में ही निवास करते हैं। उन्‍हें वे सनातन लोक प्राप्‍त होते हैं, जहाँ शोक और दुख का सर्वथा अभाव है तथा जहाँ रजोगुण (काम-क्रोध आदि) का दर्शन नहीं होता। उस परमगति को पाकर उन्‍हें गार्हस्‍थ्‍य-आश्रम में रहने और यहाँ के धर्मों के पालन करने की क्‍या आवश्‍यकता रह जाती है? स्यूमरश्मि ने कहा- ज्ञान प्राप्‍त करके परब्रह्म में स्थित हो जाना ही यदि पुरुषार्थ की चरम सीमा है, यदि वही उत्तम गति है, तब तो गृहस्‍थ-धर्म का महत्त्व और भी बढ़ जाता है; क्‍योंकि गृहस्‍थों का सहारा लिये बिना कोई भी आश्रम न तो चल स‍कता है और न तो ज्ञान की निष्‍ठा ही प्रदान कर सकता है। जैसे समस्‍त प्राणी माता की गोद का सहारा पाकर ही जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार गृहस्‍थ-आश्रम का आश्रय लेकर ही दूसरे आश्रम टिके हुए हैं। गृहस्‍थ ही यज्ञ करता है, गृहस्‍थ ही तप करता है। मनुष्‍य जो कुछ भी चेष्टा करता है- जिस किसी भी शुभ कर्म का आचरण करता है, उस धर्म का मूल कारण गार्हस्‍थ्‍य-आश्रम ही है।

समस्‍त प्राणधारी जीव संतान के उत्‍पादन आदि से सुख का अनुभव करते हैं, परंतु संतान गार्हस्‍थ्‍य-आश्रम के सिवा अन्‍यत्र किसी तरह सुलभ नहीं है। कुश-काश आदि तृण, धान-जौ आदि औषधि, नगर के बाहर उत्‍पन्‍न होने वाली दूसरी औषधियाँ तथा पर्वत पर होने वाली जो औषधियाँ हैं, उन सबका मूल भी गार्हस्‍थ्‍य-आश्रम ही है (क्‍यों कि वहीं के यज्ञ से पर्जन्‍य (मेघ) की उत्‍पत्ति होती है, जिससे वर्षा आदि के द्वारा तृण-लता, औषधियाँ उत्‍पन्‍न होती हैं)। प्राणस्‍वरूप जो औषधियाँ हैं; उससे बाहर कोई दिखायी नहीं देता। गृहस्‍थाश्रम के धर्मों का पालन करने से मोक्ष नहीं होता है, ऐसी किसकी वाणी सत्‍य होगी। जो श्रद्धारहित, मूढ़ और सूक्ष्‍मदृष्टि से वंचित हैं, अस्थिर, आलसी, श्रान्‍त और अपने पूर्वकृत कर्मों से संतप्‍त हैं, वे अज्ञानी पुरुष ही संन्‍यास-मार्ग का आश्रय ले गृहस्‍थाश्रम में शान्ति का अभाव देखते हैं। वैदिक धर्म की सनातन मर्यादा तीनों लोकों का हित करने वाली एवं ध्रुव हैं। ब्राह्मण पूजनीय है और जन्‍मकाल से ही उसका सबके द्वारा समादर होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍य– तीनों वर्णों में गर्भाधान से पहले वेदमन्‍त्रों का उच्‍चारण किया जाता है। फिर लौकिक और पारलौकिक सभी कार्यों में निसंदेह उन वेदमन्त्रों की प्रवृति होती है।[1]

मृतक के दाह-संस्‍कार में, पुन: देह धारण करने में, देह धारणकर लेने पर, मृत व्‍यक्ति की तृप्ति के लिये प्रतिदिन तर्पण और श्राद्ध करने में, वैतरणी के निमित्त गौओं तथा अन्‍य पशुओं का दान करने में तथा श्राद्धकर्म में दिये हुए पिण्‍डों का जल के भीतर विसर्जन करने में भी वैदिक मन्‍त्रों का उपयोग होता है- इन सब कार्यों के मूल वेद-मन्‍त्र हैं। अर्चिष्‍मत्, बर्हिषद् तथा कव्‍यवाह संज्ञक पितर भी मृत व्‍यक्ति के (सुख- शान्ति एवं प्रसन्‍नता) के लिये मन्‍त्र-पाठ की अनुमति देते हैं। मन्‍त्र ही सब धर्मों के कारण हैं। वे ही वेद-मन्‍त्र जब पुकार-पुकारकर कहते हैं कि मनुष्‍य देवताओं, पितरों और ऋषियों के जन्‍म से ही ऋणी होते हैं, तब गृहस्‍थाश्रम में रहकर उन ऋणों को चुकाये बिना किसी का भी मोक्ष कैसे हो सकता है? श्रीहीन और आलसी पण्डितों ने कर्मों के त्‍याग से मोक्ष मिलता है– ऐसा मत चलाया है। यह सुनने में सत्‍य-सा आभासित होता है, परंतु है मिथ्‍या। इस मार्ग में किसी को वेद के सिद्धन्‍तों का तनिक भी ज्ञान नहीं है। जो ब्राह्मण वेद-शास्‍त्रों के अनुसार यज्ञ का अनुष्‍ठान करता है, उस पर पापों का आक्रमण नहीं हो सकता और न पाप उसे अपनी ओर खींच ही सकते हैं। वह अपने किये हुए यज्ञों और उनमें उपयोगी पशुओं के साथ ऊपर के पुण्‍य लोक में जाता है और स्‍वयं सब प्रकार के भोगों से तृप्‍त होकर दूसरों को भी तृप्‍त करता है। वेदों का अनादर करने से, शठता से तथा छल-कपट से कोई भी मनुष्‍य परब्रह्म परमात्‍मा को नहीं पाता है। वेदों तथा उनमें बताये हुए कर्मों का आश्रय लेने पर ही उसे परब्रह्म की प्राप्ति होती है।

कपिल जी ने कहा– बुद्धिमान पुरुष के लिये दर्श, पौर्णमास, अग्निहोत्र तथा चातुर्मास्‍य आदि के अनुष्‍ठान का विधान है; क्‍योंकि उनमें सनातन धर्म की स्थिति है। परंतु जो संन्‍यास धर्म स्‍वीकार करके कर्मानुष्‍ठान से निवृत हो गये हैं तथा धीर, पवित्र एवं ब्रह्मस्‍वरूप में स्थित हैं, वे अविनाशी ब्रह्म को चाहने वाले महात्‍मा पुरुष ब्रह्मज्ञान से ही देवताओं को तृप्‍त करते हैं। जो सम्‍पूर्ण भूतों के आत्‍मारूप से स्थित हैं और सम्‍पूर्ण प्राणियों को आत्‍म भाव से ही देखते हैं, जिनका कोई विशेष पद नहीं है, उन ज्ञानी पुरुष का पदचिह्न ढूँढने वाले- उनकी गति का पता लगाने वाले देवता भी मार्ग में मोहित हो जाते हैं। मनुष्‍यों के हाथ-पैर, वाणी, उदर और उपस्‍थ- ये चार द्वार हैं। इनका द्वारपाल होने की इच्‍छा करे अर्थात इन पर संयम रखें। वह शास्‍त्रवाक्‍यों के अनुसार इन चारों द्वारों के संयम से प्राप्‍य ऋक्, यजु:, साम, अथर्वरूप चार मुखों से युक्‍त परमपुरुष को भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं अष्‍टांगयोग- इन चार उपायों से प्राप्‍त करता है। बुद्धिमान पुरुष जूआ न खेले, दूसरों का धन न ले, नीच पुरुष का बनाया हुआ अन्‍न न ग्रहण करे और क्रोध में आकर किसी को मार न बैठे– ऐसा करने से उसके हाथ-पैर सुरक्षित रहते हैं। किसी को गाली न दे, व्‍यर्थ न बोले, दूसरों की चुगली या निन्‍दा न करे, मितभाषी हो, सत्‍यवचन बोले इसके लिये सदा सावधान रहे– ऐसा करने से वाक्-इन्द्रियरूप द्वार की रक्षा होती है।[2]

उपवास न करें, किंतु बहुत अधिक भी न खायें, सदा भोजन के लिये लालायित न रहें। सज्‍जनों का संग करे और जीवननिर्वाह के लिये जितना आवश्‍यक हो, उतना ही अन्न पेट में डालें- इससे उदर द्वार का संरक्षण होता है। वीर युधिष्ठिर! अपनी धर्मपत्नि के साथ ही विहार करे, परायी स्त्री के साथ नहीं, अपनी स्त्री को भी जब तक वह ऋतुस्‍नाता न हुई हो, समागम के लिये अपने पास न बुलायें और मन में एक पत्निव्रत धारण करे। ऐसा करने से उसके उपस्‍थ-द्वार की रक्षा हो सकती है। जिस मनीषी पुरुष के उपस्‍थ, उदर, हाथ-पैर और वाणी- ये सभी द्वार पूर्णत: रक्षित हैं, वही वास्‍तव में ब्राह्मण है। जिसके ये द्वार सुरक्षित नहीं हैं, उसके सारे शुभ-कर्म निष्‍फल होते हैं, ऐसे मनुष्‍य को तपस्‍या, यज्ञ तथा आत्‍मचिन्‍तन से क्‍या लाभ हो सकता है? जिसके पास वस्‍त्र के नाम पर एक लंगोटी मात्र है, ओढ़ने के लिये एक चादर तक नहीं है, जो बिना बिछौने के ही सोता है, बाँहों का ही तकिया लगाता है और सदा शान्‍तभाव से रहता है, उसी को देवता ब्राह्मण मानते हैं। जो मुनि शीत-उष्‍ण आदि सम्‍पूर्ण द्वन्‍द्वरूपी उपवनों में अकेला ही आनन्‍दपूर्वक रहता है और दूसरों का चिन्‍तन नहीं करता, उसे देवता लोग ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) समझते हैं। जिसको इस सम्‍पूर्ण जगत् की नश्वरता का ज्ञान है, जो प्रकृति और उसके विकारों से परिचित है तथा जिसे सम्‍पूर्ण भूतों की गति का ज्ञान है, उसे देवता लोग ब्रह्मज्ञानी मानते हैं। जो सम्‍पूर्ण भूतों से निर्भय है, जिससे समस्‍त प्राणी भय नहीं मानते हैं तथा जो सब भूतों का आत्‍मा है, उसी को देवता ब्रह्मज्ञानी मानते हैं। परंतु मूढ़ मानव दान और यज्ञ-कर्म के फल के सिवा योग आदि के फल का अनुमोदन नहीं करते। वे उन मोक्षप्रद समस्‍त साधनों के महत्त्व को न जानने के कारण स्‍वर्ग आदि अन्‍य फलों में ही रुचि रखते हैं। किंतु उस पुराण, शाश्‍वत एवं ध्रुव यौगिक सदाचार का आश्रय लेकर अपने कर्तव्‍य कर्मों में परायण रहने वाले ज्ञानियों का तप उत्तरोत्तर तीव्रता को प्राप्‍त होता है।

प्रवृतिमार्गी मनुष्‍य योगशास्‍त्र के सूत्रों में कथित यम-नियमादि का अनुष्‍ठान नहीं कर सकते। वह यौगिक आचार आपत्तिशून्‍य, प्रमादरहित है। वह कामादि से पराभव को नहीं प्राप्‍त होता है। योगशास्‍त्र में कथित कर्मश्रेष्‍ठफल देने वाले, उन्‍नति करने वाले एवं स्‍थायी हैं; तो भी प्रवृतिमार्गी मनुष्‍य उनको गुणरहित (निष्‍फल) और अस्थिर समझते हैं। गुणों के कार्यभूत जो यज्ञ-यागादि हैं, उनके स्‍वरूप और विधि-विधान को समझना बहुत कठिन है। यदि अनुष्‍ठान भी किया जाय तो भी उनसे नाशवान फल की ही प्राप्ति होती है। इन सब बातों को तुम भी देखते और समझते हो। स्यूमरश्मि ने कहा- भगवान! 'कर्म करो' और 'कर्म छोड़ो' ये जो परस्‍पर विरुद्घ दो स्‍पष्‍ट मार्ग हैं, इनका उपदेश करने वाले वेद की प्रमाणिकता का निर्वाह कैसे हो? तथा त्‍याग कैसे सफल होता है? यह आप मुझे बताइये।[3] कपिल ने कहा- आप लोग सन्‍मार्ग में स्थित रहकर यहाँ योग मार्ग के फल का प्रत्‍यक्ष दर्शन कर सकते हैं; परंतु कर्म मार्ग में रहकर आप लोग जिस यज्ञ की उपासना करते हैं, उससे यहाँ कौन-सा प्रत्‍यक्ष फल प्राप्‍त होता है? स्‍यूमरश्मि ने कहा- ब्रह्मन! मेरा नाम स्यूमरश्मि है। मैं ज्ञान-प्राप्ति की इच्‍छा से यहाँ आया हूँ। मैंने कल्‍याण की इच्‍छा रखकर सरल भाव से ही अपनी बातें आपकी सेवा में उपस्थित की हैं, वाद-विवाद की इच्‍छा से नहीं। मेरे मन में एक भयानक संशय उठ खड़ा हुआ है, इसे आप ही मिटा सकते हैं। आपने कहा था कि तुम सन्‍मार्ग में स्थित रहकर यहाँ योगमार्ग के फल का प्रत्‍यक्ष दर्शन कर सकते हो। मैं पूछता हूँ कि आप जिसकी उपासना करते हैं, यहाँ उसका अत्‍यन्‍त प्रत्‍यक्ष फल क्‍या है? आप उसका तर्क का सहारा न लेकर प्रतिपादन कीजिये, जिससे मैं आगम के अर्थ को जान सकूँ। वेदमत का अनुसरण करने वाले शास्त्र तो आगम हैं ही, तर्कशास्‍त्र (वेदों के अर्थ का निर्णय करने वाले पूर्वोत्तर मीमांसा आदि) भी आगम हैं।

जिस-जिस आश्रम में जो-जो धर्म विहित है, वहाँ-वहाँ उसी-उसी धर्म की उपासना करनी चाहिये। उस-उस स्‍थान पर उसी-उसी धर्म का आचरण करने से ही सिद्धि का प्रत्‍यक्ष दर्शन होता है। जैसे एक जगह जाने वाली नाव में दूसरी जगह जाने वाली नाव बाँध दी जाय तो वह जल के स्‍त्रोत से अपहृत हो किसी को गन्‍तव्‍य स्‍थान तक नहीं पहुँचा सकती, उसी प्रकार पूर्वजन्‍म के कर्मों की वासना से बँधी हुई हमारी कर्ममयी नौका हम कुबुद्धि पुरुषों को कैसे भवसागर से पार उतारेगी? भगवन्! यह आप मुझे बताइये, मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे उपदेश दीजिये। वास्‍तव में इस जगत के भीतर न कोई त्‍यागी है न संतुष्‍ट, न शोकहीन है न नीरोग। न तो कोई पुरुष कर्म करने की इच्‍छा से सर्वथा शून्‍य है, न आसक्ति से रहित है और न सर्वथा कर्म का त्‍यागी ही है। आप भी हम लोगों की ही भाँति हर्ष और शोक प्रकट करते हैं। समस्‍त प्राणियों के समान आपके समक्ष भी शब्‍द, स्‍पर्श आदि विषय उपस्थित और गृहीत होते हैं। इस प्रकार चारों वर्णों और आश्रमों के लोग सभी प्रवृतियों में एकमात्र सुख का ही आश्रय लेते हैं- उसी को अपना लक्ष्‍य बनाकर चलते हैं, अत: सिद्धान्‍तत: अक्षय सुख क्‍या है, यह बताइये। कपिल ने कहा- जो-जो शास्‍त्र जिस-जिस अर्थ का आचरण-प्रतिपादन करता है, वह-वह सभी प्रवृतियों में सफल होता है। जिस साधन का जहाँ अनुष्‍ठान होता है, वहाँ-वहाँ अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। जो ज्ञान का अनुसरण करता है, ज्ञान उसके समस्‍त संसार बन्‍धन का नाश कर देता है। बिना ज्ञान की जो प्रवृति होती है, वह प्रजा को जन्‍म और मरण के चक्‍कर में डालकर उसका विनाश कर देती है। आप लोग ज्ञानी हैं, यह बात सर्वविदित है। आप सब ओर से नीरोग भी हैं; परंतु क्‍या आप लोगों में से कोई भी किसी भी काल में एकात्‍मता को प्राप्‍त हुआ है? (जब एकमात्र अद्वितीय आत्‍मा अर्थात् ब्रह्म की ही सत्‍ता का सर्वत्र बोध होने लगे, तब उसे एकात्‍मता का ज्ञान कहते हैं)।[4]

शास्‍त्र को यथार्थ रूप से न जानकर कुछ लोग वितण्‍डावाद के ही बल से राग-द्वेष से अभिभूत होने के कारण अहंकार के अधीन हो गये हैं। वे शास्‍त्रों के यथार्थ तात्‍पर्य को न जानने के कारण शास्‍त्रदस्‍यु (शास्‍त्रों के अर्थ पर डाका डालने वाले लुटेरे) कहे जाते हैं। सर्वव्‍यापी ब्रह्म का भी अपलाप करने के कारण ब्रह्मचोर की पदवी से विभूषित होते हैं। शम-दम आदि साधनों का कभी अनुष्‍ठान नहीं करते हैं तथा दम्‍भी और मोह के वश में पड़े रहते हैं। वे शम-दम आदि साधनों को सदा निष्‍फल ही देखते और समझते हैं। ज्ञान, ऐश्‍वर्य आदि सदगुणों की जिज्ञासा नहीं करते हैं। उन तमोमय शरीर वाले पुरुषों का तमोगुण ही सबसे बड़ा अवलम्‍ब है। जिस प्राणी की जैसी प्रकृति होती है, उस प्रकृति के वह अधीन होता है। उसके भीतर द्वेष, काम, क्रोध, दम्‍भ, असत्‍य और मद- ये प्रकृतिजनित गुण सदा ही विद्यमान रहते हैं। परमगति प्राप्‍त करने की इच्‍छा वाले संयमशील यदि इस प्रकार सोच-विचारकर शुभ और अशुभ दोनों का परित्‍याग कर देते हैं। स्यूमरश्मि ने कहा- ब्रह्मन! मैंने यहाँ जो कुछ कहा है, वह सब शास्‍त्र से प्रतिपादित है; क्‍योंकि शास्‍त्र के अर्थ को जाने बिना किसी की किसी भी कार्य में प्रवृति नहीं होती। जो कोई भी न्‍यायोचित आचार है, वह सब शास्‍त्र है, ऐसा श्रुति का कथन है। जो अन्‍यायपूर्ण बर्ताव है, वह अशास्‍त्रीय है, ऐसी श्रुति भी सुनी जाती है। शास्‍त्र के बिना अर्थात शास्‍त्र की आज्ञा का उल्‍लघंन करके कोई प्रवृति सफल नहीं हो सकती, यह विद्वानों का निश्‍चय है। जो वैदिक वचनों के विरुद्ध है, वह सब अशास्‍त्रीय है, ऐसा श्रुति का कथन है। बहुत-से मनुष्‍य प्रत्‍यक्ष को ही मानने वाले हैं। वे शास्‍त्र से पृथक इहलोक पर ही दृष्टि रखते हैं। शास्‍त्रोक्‍त दोषों को नहीं देखते हैं और जैसे हम लोग शोक करते हैं, वैसे ही वे भी अवैदिकमत का आश्रय लेकर शोक किया करते हैं। आप-जैसे ज्ञानियों को भी सब जन्‍तुओं के समान ही इन्द्रियों के विषयों का अनुभव होता है। इस प्रकार चारों वर्णों और आश्रमों की जो प्रवृत्तियाँ हैं, उनमें लगे हुए मनुष्‍य एकमात्र सुख का ही आश्रय लेते हैं- उसे ही प्राप्‍त करना चाहते हैं।

उनमें से हम जैसे लोग अज्ञान से हतबुद्धि, तुच्‍छ विषयों में मन लगाने वाले तथा तमोगुण से आवृत हैं। आप ऊहापोह करने में समर्थ-कुशल हैं, अत: सार्वदेशिक सिद्धान्‍त के रूप में मोक्षसुख की अनन्‍तता बताकर आपने मन से हमें शान्ति पहुँचायी है। जो आपके समान एकाकी, योगयुक्‍त, कृतकृत्‍य और मन पर विजय पाने वाला है तथा जो केवल शरीर का अथवा उसकी रक्षा के लिये स्‍वल्‍प भिक्षान्‍नमात्र का सहारा लेकर सम्‍पूर्ण दिशाओं में विचरण कर सकता है, जिसने न्‍यायशास्‍त्र का परित्‍याग कर दिया है तथा जो सम्‍पूर्ण संसार को नाशवान होने के कारण गर्हित समझता है, ऐसा पुरुष ही वेद-वाक्‍यों का आश्रय लेकर 'मोक्ष है' यह साधिकार कह सकता है। गृहस्‍थाश्रम के अनुसार जो यह कुटुम्‍ब के भरण पोषण से सम्‍बन्‍ध रखने वाला कार्य है तथा दान, स्‍वाध्‍याय, यज्ञ, संतानोत्‍पादन एवं सदा सरल और कोमल भाव से बर्ताव करना रूप जो कर्म है, यह सब मनुष्‍य के लिये अत्‍यन्‍त दुष्‍कर है।[5] यदि यह सब दुष्‍कर कर्म करके भी‍‍ किसी को मोक्ष नहीं प्राप्‍त हुआ तो कर्ता को धिक्‍कार है। उसके उस कार्य को धिक्‍कार है। और इसमें जो परिश्रम हुआ, वह व्‍यर्थ हो गया। यदि कर्मकाण्‍ड को व्‍यर्थ समझकर छोड़ दिया जाय तो यह नास्तिकता और वेदों की अवहेलना होगी; अत: भगवन्! मैं यह सुनना चाहता हूँ कि कर्मकाण्‍ड किस प्रकार सुगमतापूर्वक मोक्ष का साधक होगा? ब्रह्मन! आप मुझे तत्त्व की बात बताइये। मैं शिष्‍य भाव से आपकी शरण में आया हूँ। गुरुदेव! मुझे उपदेश कीजिये। आपको मोक्ष के स्‍वरूप का जैसा ज्ञान है, वैसा ही मैं भी सीखना और जानना चाहता हूँ।[6]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 269 श्लोक 1-13
  2. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 269 श्लोक 14-25
  3. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 269 श्लोक 26-39
  4. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 269 श्लोक 40-51
  5. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 269 श्लोक 52-65
  6. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 269 श्लोक 66-68

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राजधर्मानुशासन पर्व
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उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश | ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन | राजा पृथु के चरित्र का वर्णन | वर्णधर्म का वर्णन | आश्रम धर्म का वर्णन | ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व | वर्णाश्रम धर्म का वर्णन | राजर्धम का वर्णन | इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद | राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल | राष्ट्र की रक्षा और उन्नति | राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन | वसुमना और बृहस्पति का संवाद | राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन | राजा के प्रधान कर्तव्य | दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन | राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण | धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म | राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता | विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान | राज्य के कर्तव्य का वर्णन | युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन | उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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