काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन

महाभारत शान्ति पर्व में मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 227वें अध्याय में काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

भीष्म द्वारा युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर देना

युधिष्ठिर ने पूछा- भूपाल! जो मनुष्‍य बन्‍धु-बान्‍धवों का अथवा राज्‍य का नाश हो जाने पर घोर संकट मे पड़ गया हो, उसके कल्‍याण का क्‍या उपाय है? भरतश्रेष्ठ! इस संसार में आप ही हमारे लिये सबसे श्रेष्ठ वक्‍ता हैं; इसलिये यह बात आपसे ही पूछता हूँ। आप यह सब मुझे बताने की कृपा करें।

भीष्‍म जी ने कहा- राजा युधिष्ठिर! जिसके स्त्री-पुत्र मर गये हों, सुख छिन गया हो अथवा धन नष्ट हो गया हो और इन कारणों से जो कठिन वि‍पत्ति में फँस गया हो, उसका तो धैर्य धारण करने में ही कल्‍याण है। जो धैर्य से युक्‍त है, उस सत्‍पुरुष का शरीर चिन्‍ता के कारण नष्ट नहीं होता। शोकहीनता सुख और उत्‍तम आरोग्‍य का उत्‍पादन करती है, शरीर के नीरोग होने से मनुष्‍य फिर धन-सम्‍पत्ति का उपार्जन कर लेता है। तात! जो बुद्धिमान मनुष्‍य सदा सात्त्विक वृत्ति का सहारा लिये रहता हैं। उसी को ऐश्‍वर्य और धैर्य की प्राप्ति होती हैं तथा वही सम्‍पूर्ण कर्मों में उद्योगशील होता है। युधिष्ठिर! इस विषय में पुन: बलि और इंद्र के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है।

इंद्र का बलि के पास पहुँचना

पूर्वकाल में जब दैत्‍यों और दानवों का संहार करने वाला देवासुर संग्राम समाप्‍त हो गया, वामनरूपधारी भगवान विष्‍णु ने अपने पैरों से तीनों लोकों को नाप लिया और सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले इन्‍द्र जब देवताओं के राजा हो गये, तब देवताओं की सब ओर आराधना होने लगी। चारों वर्णों के लोग अपने-अपने धर्म मे स्थित रहने लगे। तीनों लोकों का अभ्‍युदय होने लगा और सबको सुखी देखकर स्‍वयम्‍भु ब्रह्मा जी अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न रहने लगे। उन्‍हीं दिनों की बात है, देवराज इन्‍द्र अपने ऐरावत नामक गजराज पर, जो चार सुन्‍दर दाँतों से सुशोभित और दिव्‍य शोभा से सम्‍पन्‍न था, आरूढ़ हो तीनों लोकों में भ्रमण करने के लिये निकले। उस समय त्रिलोकीनाथ इन्‍द्र, रुद्र, वसु, आदित्‍य, अश्विनीकुमार, ऋषिगण, गन्‍धर्व, नाग, सिद्ध तथा विद्याधरों आदि से घिरे हुए थे। घूमते-घूमते वे किसी समय समुद्र तट पर जा पहुँचे।

इंद्र द्वारा बलि को कठोर वचन कहना

वहाँ किसी पर्वत की गुफा में उन्‍हें विरोचनकुमार बलि दिखायी दिये। उन्‍हें देखते ही इन्‍द्र हाथ में वज्र लिये उनके पास जा पहुँचे। देवताओं से घिरे हुए देवराज इन्‍द्र को ऐरावत की पीठ पर बैठे देख दैत्‍यराज बलि के मन में तनिक भी शोक या व्‍यथा नहीं हुई। उन्‍हें निर्भय और निर्विकार होकर खड़ा देख श्रेष्ठ गजराज पर चढे़ हुए शतक्रतु इन्‍द्र ने उनसे इस प्रकार कहा। दैत्‍य! तुम्‍हें अपने शत्रु की समृद्धि देखकर व्‍यथा क्‍यों नहीं होती? क्‍या शौर्य से अथवा बडे़-बूढो़ं की सेवा करने से या तपस्‍या से अन्‍त:करण शुद्ध हो जाने के कारण तुम्‍हें शोक नहीं होता है? साधारण पुरुष के लिये तो यह धैर्य सर्वथा परम दुष्‍कर है। ‘विरोचनकुमार! तुम शत्रुओं के वश में पड़े और उत्‍तम स्‍थान (राज्‍य) से भ्रष्ट हुए इस प्रकार शोचनीय दशा में पड़कर भी तुम किस बल का सहारा लेकर शोक नहीं करते हो? ‘तुमने अपने जाति भाइयों में सबसे श्रेष्ठ स्‍थान प्राप्‍त किया था और परम उत्‍तम महान भोगों पर अधिकार जमा रखा था; किंतु इस समय तुम्‍हारे रत्‍न और राज्‍य का अपहरण हो गया है, तो भी बताओं, तुम्‍हें शोक क्‍यों नहीं होता?[1] पहले तो तुम अपने बाप-दादों के राज्‍य पर बैठकर तीनों लोकों के ईश्‍वर बने हुए थे। अब उस राज्‍य को शत्रुओं ने छीन लिया; यह देखकर भी तुम्‍हें शोक क्‍यो नहीं होता है? ‘तुम्‍हे वरुण के पाश से बाँधा गया, वज्र से घायल किया गया तथा तुम्‍हारी स्त्री और धन का भी अपहरण कर लिया गया; फिर भी बोलो, तुम्‍हें शोक कैसे नहीं होता है? तुम्‍हारी राज्‍यलक्ष्‍मी नष्ट हो गयी। तुम अपने धन वैभव से हाथ धो बैठे। इतने पर भी जो तुम्‍हें शोक नहीं होता है, यह दूसरों के लिय बड़ा कठिन है। तीनों लोकों का राज्‍य नष्ट हो जाने पर भी तुम्‍हारे सिवा दूसरा कौन जीवित रहने के लिये उत्‍साह दिखा सकता है? ये तथा और भी बहुत सी कठोर बाते सुनाकर इन्‍द्र ने बलि का तिरस्‍कार किया।[2]

बलि द्वारा इंद्र को उत्तर देना

विरोचनकुमार बलि ने वे सारी बातें बड़े आनन्‍द से सुन लीं और मन में तनिक भी घबराहट न लाकर उन्‍हें इस प्रकार उत्‍तर दिया। बलि ने कहा- इन्‍द्र! जब मैं शत्रुओं अथवा काल के द्वारा भलीभाँति बन्‍दी बना लिया गया हूँ, तब मेरे सामने इस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें बनाने से तुम्‍हें क्‍या लाभ होगा?

पुरंदर! मैं देखता हूँ, आज तुम वज्र उठाये मरे सामने खडे़ हो। किंतु पहले तुममें ऐसा करने की शक्ति नहीं थी। अब किसी तरह शक्ति आ गयी है। तुम्‍हारे सिवा दूसरा कौन ऐसा अत्‍यन्‍त क्रूर वचन कह सकता है? जो शक्तिशाली होकर भी अपने वश में पड़े हुए अथवा हाथ में आये हुए वीर शत्रु पर दया करता है, उसे अच्‍छे लोग उत्‍तम पुरुष मानते है। जब दो व्‍यक्तियों में विवाद एवं युद्ध छिड़ जाता है, तब किसकी जीत होगी- इसका कोई निश्‍चय नहीं रहता है। उनमें से एक पक्ष विजयी होता है और दूसरे को पराजय प्राप्‍त होती है। इसलिये देवराज! तुम्‍हारा स्‍वभाव ऐसा न हो, तुम ऐसा न समझ लो कि मैंने अपने बल और पराक्रम से ही समस्‍त प्राणियों के स्‍वामी मुझ बलि पर विजय पायी है। वज्रधारी इन्‍द्र! आज जो तुम इस प्रकार राजवैभव से सम्‍पन्‍न हो अथवा हमलोग जो इस दीन दशा को पहुँच गये हैं, यह सब न तो तुम्‍हारा किया हुआ है और न हमारा ही किया हुआ है। आज जैसे तुम हो, कभी मैं भी ऐसा ही था और इस समय जिस दशा में हमलोग पड़े हुए हैं, कभी तुम्‍हारी भी वैसी ही अवस्‍था होगी; अत: तुम यह समझकर कि मैंने बड़ा दुष्‍कर पराक्रम कर दिखाया है, मेरा अपमान न करो। प्रत्‍येक पुरुष बारी-बारी से सुख और दु:ख पाता है।

बलि द्वारा कालक्रम का वर्णन करना

इन्‍द्र! तुम भी अपने पराक्रम से नहीं, कालक्रम से ही इन्‍द्रपद को प्राप्‍त हुए हो। काल ही मुझे कुसमय की ओर ले जा रहा है और यह काल ही तुम्‍हें अच्‍छे दिन दिखा रहा है; इसलिये आज जैसे तुम हो, वैसा मैं नही हूँ और जैसे हमलोग हैं, वैसे तुम नहीं हो। माता-पिता की सेवा, देवताओं की पूजा तथा अन्‍य सद्गुणयुक्‍त सदाचार भी बुरे दिनों में किसी पुरुष के लिये सुखदायक नहीं होता है। काल से पीड़ित हुए मनुष्‍य को न विद्या, न तप, न दान, न मित्र और न बन्‍धु-बान्‍धव ही कष्ट से बचा पाते हैं।[2] मनुष्‍य बुद्धि बल के सिवा और किसी उपाय से सैकड़ों आघात करके भी आने वाले अनर्थ को नहीं रोक सकते। कालक्रम से जिन पर आघात होता है स्‍वयं काल जिन्‍हें पीड़ा देता है, उनकी रक्षा कोई नहीं कर सकता। शक्र! तुम जो अपने को इस परिस्थिति का कर्ता मानते हो, यही तुम्‍हारे लिये दु:ख की बात है। यदि कार्य करने वाला पुरुष स्‍वयं ही कर्ता होता तो उसको उत्‍पन्‍न करने वाला दूसरा कोई कभी न होता। वह दूसरे के द्वारा उत्‍पन्‍न किया जाता है; इसलिये काल के सिवा दूसरा कोई कर्ता नहीं है। काल की सहायता पाकर मैंने तुम पर विजय पायी थी और काल के ही सहयोग से अब तुमने मुझे पराजित कर दिया है। काल ही जाने वाले प्राणियों के साथ जाता या उन्‍हें गमन की शक्ति प्रदान करता है और वही समस्‍त प्रजा का संहार करता है।[3]

इन्‍द्र! तुम्‍हारी बुद्धि साधारण है; इसलिये उसके द्वारा तुम एक-न-एक दिन अवश्‍य होने वाले अपने विनाश की बात नहीं समझ पाते। संसार में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो तुम्‍हें अपने ही पराक्रम से श्रेष्ठता को प्राप्‍त हुआ मानते और तुम्‍हें अधिक महत्‍व देते हैं। किंतु मेरे जैसा पुरुष जो जगत की प्रवृत्ति को जानता है उन्‍नति और अवनति का कारण काल प्रारब्‍ध ही है; ऐसा समझता है, वह तुम्‍हें महत्‍व कैसे दे सकता है? जो काल से पीड़ित है, वह प्राणी शोकग्रस्‍त, मोहित अथवा भ्रान्‍त भी हो सकता है। मैं होऊँ या मेरे जैसा दूसरा कोई पुरुष हो। जब काल (प्रारब्‍ध) से आक्रान्‍त हो जाता है, तब सदा ही उसकी बुद्धि संकट में पड़कर फटी हुई नौका के समान शिथिल हो जाती है। इन्‍द्र! मैं, तुम या और जो लोग भी देवेश्‍वर के पद पर प्रतिष्ठित होंगे, वे सब के सब उसी मार्ग पर जायँगे, जिस पर पहले के सैकड़ों इन्‍द्र जा चुके हैं। यद्यपि आज तुम इस प्रकार दुर्धर्ष हो और अत्‍यन्‍त तेज से प्रज्‍वलित हो रहे हो; किंतु जब समय परिवर्तित होगा, अर्थात जब तुम्‍हारा प्रारब्‍ध खराब होगा, तब मेरी ही भाँति तुम्‍हें भी काल अपना शिकार बना लेगा इन्‍द्र पद से भ्रष्ट कर देगा। युग-युग में (प्रत्‍येक मन्‍वन्‍तर में) इन्‍द्रों का परिवर्तन होने के कारण अब तक देवताओं के अनेक सहस्र इन्‍द्र काल के गाल में चले गये हैं; अत: काल का उल्‍लघंन करना किसी के लिये अत्‍यन्‍त कठिन है। तुम इस शरीर को पाकर समस्‍त प्राणियों को जन्‍म देनेवाले सनातन देव भगवान ब्रह्मा जी की भाँति अपने को बहुत बड़ा मानते हो; किंतु तुम्‍हारा यह इन्‍द्रपद आज तक (किसी के लिये भी) अविचल या अनन्‍त काल तक रहने वाला नहीं सिद्ध हुआ- इस पर कितने ही आये और चले गये। केवल तुम्‍हीं अपनी मूढ़ बुद्धि के कारण इसे अपना मानते हो। देवेश्‍वर! नाशवान होने के कारण जो विश्‍वास के योग्‍य नहीं हैं, उस राज्‍य पर तुम विश्‍वास करते हो और जो अस्थिर है, उसे स्थिर मानते हो; किंतु इसमें कोई आश्‍चर्य की बात नहीं है; क्‍योंकि काल ने जिसके हृदय पर अधिकार कर लिया हो, वह सदा ऐसी ही विपरीत भावना से भावित होता है। तुम मोहवश जिस राजलक्ष्‍मी को ‘यह मेरी है’ ऐसा समझकर पाना चाहते हो, वह न तुम्‍हारी है, न हमारी है और न दूसरों की ही है। वह किसी के पास भी सदा स्थिर नहीं रहती।[3] वासव! यह चचंला राजलक्ष्‍मी दूसरे बहुत से राजाओं को लाँघकर इस समय तुम्‍हारे पास आयी है और कुछ काल तक तुम्‍हारे यहाँ ठहरकर फिर उसी तरह दूसरे के पास चली जायगी, जैसे गौ जल पीने के स्‍थान का परित्‍याग करके चली जाती है। पुरंदर! अब तक इसने जितने राजाओं का परित्‍याग किया है, उनकी गणना मैं नहीं कर सकता। तुम्‍हारे बाद भी बहुत से नरेश इसके अधिकारी होंगे। जिन लोगो ने पहले वृक्ष, ओषध, रत्‍न, जीव-जन्‍तु वन और खानों सहित इस सारी पृथ्‍वी का उपभोग किया है, उन सबको मैं इस समय नहीं देखता हूँ।

पृथु, इलानन्‍दन पुरूरवा, मय, भीम, नरकासुर, शम्‍बरासुर, अश्वग्रीव, पुलोमा, स्‍वर्भानु, अमितध्‍वज, प्रह्लाद, नमुचि, दक्ष, विप्रचित्ति, विरोचन, ह्रीनिषेव, सुहोत्र, भूरिहा, पुष्‍पवान्, वृष, सत्‍येषु, ऋषभ, बाहु, कुपिलाश्‍व, विरूपक, बाण, कार्तस्‍वर, वह्रि, विश्‍वदंष्‍ट्र, नैर्ऋत, संकोच, वरीताक्ष, वराहाश्‍व, रुचिप्रभ, विश्‍वजित्, प्रतिरूप, वृषाण्‍ड, विष्‍कर, मधु, हिरण्‍यकशिपु और कैटभ ये तथा और भी बहुत से दैत्‍य, दानव एवं राक्षस सभी इस पृथ्‍वी के स्‍वामी हो चुके हैं। पहले के और बहुत पहले के ये पूवोक्‍त तथा अन्‍य अनेक दैत्‍यराज, दानवराज एवं दूसरे-दूसरे नरेश जिनका नाम हमलोग सुनते आ रहे हैं, काल से पीड़ित हो सभी इस पृथ्‍वी को छोड़कर चले गये; क्‍योंकि काल ही सबसे बड़ा बलवान है। केवल तुमने ही सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया हो, यह बात नहीं है। उन सभी राजाओं ने सौ-सौ यज्ञ किये थे। सभी धर्मपरायण थे और सभी निरन्‍तर यज्ञ में संलग्‍न रहते थे। वे सभी आकाश में विचरने की शक्ति रखते थे और युद्ध में शत्रु के सामने डटकर लोहा लेने वाले थे। वे सब के सब सुदृढ़ शरीर से सुशोभित होते थे। उन सबकी भुजाएँ परिघ (लोहदण्‍ड) के समान मोटी और मजबूत थीं। वे सभी सैकड़ों माया जानते और इच्‍छानुसार रूप धारण करते थे। वे सब लोग समरांगण में पहुँचकर कभी पराजित होते नहीं सुने गये थे। सभी सत्‍यव्रत का पालन करने में तत्‍पर और इच्‍छानुसार विहार करने वाले थे। सभी वेदोक्‍त व्रत को धारण करने वाले और बहुश्रुत विद्वान थे। सभी लोकेश्‍वर थे और सबने मनोवाच्छित ऐश्‍वर्य प्राप्‍त किया था। उन महामना नरेशों को पहले कभी भी ऐश्‍वर्य का मद नहीं हुआ था। वे सब के सब यथायोग्‍य दान करने वाले और ईर्ष्‍या द्वेष से रहित थे। वे सभी सम्‍पूर्ण प्राणियों के साथ यथायोग्‍य बर्ताव करते थे। उन सबका जन्‍म दक्ष कन्‍याओं के गर्भ से हुआ था और वे सभी महाबलशाली वीर प्रजापति कश्‍यप की संतान थे।[4]

इन्‍द्र! वे सभी नरेश अपने तेज से प्रज्‍वलित होने वाले और प्रतापी थे, किंतु काल ने उन सबका संहार कर दिया। तुम जब इस पृथ्‍वी का उपभोग करके पुन: इसे छोड़ोगे, तब अपने शोक को रोकने में समर्थ न हो सकोगे। तुम काम भोग की इच्‍छा को छोडों और राजलक्ष्‍मी के इस मद को त्‍याग दो। इस दशा में यदि तुम्‍हारे राज्‍य का नाश हो जाय तो तुम उस शोक को सह सकोगे। तुम शोक का अवसर आने पर शोक न करो और हर्ष के समय हर्षित मत होओ। भूत और भविष्‍य की चिन्‍ता छोड़कर वर्तमान काल में जो वस्‍तु उपलब्‍ध हो, उसी में जीवन-निर्वाह करो। इन्‍द्र! मैं सदा सावधान रहता था, तथापि कभी आलस्‍य न करने वाले काल का यदि मुझ पर आक्रमण हो गया तो तुम पर भी शीघ्र ही उस काल का आक्रमण होगा। इस कटु सत्‍य के लिये मुझे क्षमा करना।[4] देवेन्‍द्र! इस समय भयभीत करते हुए से तुम यहाँ अपने वाग्‍बाणों से मुछे छेदे डालते हो। मैं अपने को संयम रखकर शान्‍त बैठा हूँ; इसीलिये अवश्‍य तुम अपने बहुत बड़ा समझने लगे हो। देवराज! जिस काल का पहले मुझ पर धावा हुआ है, वही पीछे तुम पर भी चढ़ाई करेगा। मैं पहले काल से पीड़ित हो गया हूँ; इसीलिये तुम सामने खडे़ होकर गरज रहे हो। अन्‍यथा संसार में कौन ऐसा वीर है, जो युद्ध में कुपित होने पर मेरे सामने ठहर सके। इन्‍द्र! बलवान काल (अदृष्ट) ने मुझ पर आक्रमण किया है, इसी से तुम मेरे सम्‍मुख खडे़ हुए हो। देवताओं का वह सहस्रों वर्ष का समय अब पूरा होना ही चाहता है, जब तक कि तुम्‍हें इन्‍द्र के पद पर रहना है। काल के ही प्रभाव से मुझ महाबली वीर के अब सारे अंग उतने स्‍वस्‍थ नहीं रह गये हैं।[5]

मैं इन्‍द्रपद से गिरा दिया गया और तुम स्‍वर्ग में इन्‍द्र बना दिये गये। काल के उलट फेर से ही इस विचित्र जीवलोक में तुम सबके आराध्‍य बन गये हो। भला बताओं तो तुम कौन-सा शुभ कर्म करके आज इन्‍द्र हो गये और हम कौन-सा अशुभ कर्म करके इन्‍द्रपद से नीचे गिर गये। काल (प्रारब्‍ध) ही सबकी उत्‍पत्ति और संहार का कर्ता है। दूसरी सारी वस्‍तुएँ इसमें कारण नहीं मानी जा सकतीं; अत: विद्वान पुरुष नाश-विनाश, ऐश्‍वर्य, सुख-दु:ख, अभ्‍युदय या पराभव पाकर न तो अत्‍यन्‍त हर्ष माने और न अधिक व्‍यथित ही हो। इन्‍द्र! हम कैसे हैं, यह तुम्‍हीं अच्‍छी तरह जानते हो। वासव! मैं तुम्‍हें भली-भाँति जानता हूँ; फिर भी तुम लज्‍जा को तिलाजंलि दे क्‍यों मेरे सामने व्‍यर्थ आत्‍मश्‍लाघा कर रहे हो। वास्‍तव में काल ही यह सब कुछ कर रहा है। पहले मैं जो पुरुषार्थ प्रकट कर चुका हूँ, उसको सबसे अधिक तुम्‍हीं जानते हो। कई बार के युद्धों में तुम मेरा पराक्रम देख चुके हो। इस समय एक ही दृष्टान्‍त देना काफी होगा। शचीवल्‍लभ इन्‍द्र! पहले जब देवासुर संग्राम हुआ था, उस समय की बात तुम्‍हें अच्‍छी तरह याद होगी। मैंने अकेले ही समस्‍त आदित्‍यों, रुद्रों, साध्‍यों, वसुओं तथा मरूद्गणों को परास्‍त किया था। मेरे वेग से सब देवता युद्ध का मैदान छोड़कर एक साथ ही भाग खडे़ हुए थे। वन एवं वनवासियों सहित कितने ही पर्वत, मैने बारंबार तुम लोगों पर चलाये थे। तुम्‍हारे सिर पर भी सुदृढ़ पाषाण और शिखरों सहित बहुत से पर्वत मैंने फोड़ डाले थे; किंतु इस समय मैं क्‍या कर सकता हूँ; क्‍योंकि काल का उल्‍लघंन करना बहुत कठिन है। तुम्‍हारे हाथ में वज्र रहने पर भी मैं केवल मुक्‍के से मारकर तुम्‍हें यमलोक न पहुँचा सकूँ, ऐसी बात नहीं है। किंतु मेरे लिये यह पराक्रम दिखाने का नहीं, क्षमा करने का समय आया है। इन्‍द्र! यही कारण है कि मैं तुम्‍हारे सब अपराध चुपचाप सहे लेता हूँ। अब भी मेरा वेग तुम्‍हारे लिये अत्‍यन्‍त दु:सह है। किंतु जब समय ने पलटा खाया है, कालरूपी अग्नि ने मुझे सब ओर से घेर लिया है और मैं कालपाश से निश्चितरूप से बँध गया हूँ, तब तुम मेरे सामने खडे़ होकर अपनी झूठी बढ़ाई किये जा रहे हो। जैसे मनुष्‍य रस्‍सी से किसी पशु को बाँध लेता हैं, उसी प्रकार यह भयंकर कालपुरुष मुझे अपने पाश में बाँधे खड़ा है।[5] पुरुष को लाभ-हानि, सुख-दु:ख, काम-क्रोध, अभ्‍युदयपराभव, वध, कैद और कैद से छुटकारा यह सब काल (प्रारब्‍ध) से ही प्राप्‍त होते हैं। न मैं कर्ता हूँ, न तुम कर्ता हो। जो वास्‍तव में सा कर्ता है, वह सर्वसमर्थ काल वृक्ष पर लगे हुए फल के समान मुझे पका रहा है। पुरुष काल का सहयोग पाकर जिन कर्मों को करने से सुखी होता है, काल का सहयोग न मिलने से पुन: उन्‍हीं कर्मों को करके वह दु:ख का भागी होता है। इन्‍द्र! जो काल के प्रभाव को जानता है, वह उससे आक्रान्‍त होकर भी शोक नहीं करता; क्‍योंकि विपत्ति दूर करने में शोक से कोई सहायता नहीं मिलती, इसलिये मैं शोक नहीं करता हूँ। जब शोक करने वाले पुरुष का शोक संकट को दूर नही हटा पाता है, उलटे शोकग्रस्‍त मनुष्‍य की शक्ति क्षीण हो जाती है, तब शोक क्‍यों किया जाय? यही सोचकर मैं शोक नहीं करता हूँ।[6]

बलि के ऐसा कहने पर सहस्र नेत्रधारी पाकशासन शतक्रतु भगवान इन्‍द्र ने अपने क्रोध को रोककर इस प्रकार कहा। ‘दैत्‍यराज! मेरे हाथ को वज्र एवं वरुणपाश सहित ऊपर उठा देखकर मारने की इच्‍छा से आयी हुई मृत्‍यु का भी दिल दहल जाता है; फिर दूसरा कौन है जिसकी बुद्धि व्‍यथित न हो। तुम्‍हारी बुद्धि तत्‍व को जानने वाली और स्थिर है; इसीलिये तनिक भी विचलित नहीं होती है। सत्‍यपराक्रमी वीर! तुम निश्‍चय ही धैर्य के कारण व्‍यथित नहीं होते हो। इस सम्‍पूर्ण जगत को विनाश की ओर जाते देखकर कौन शरीरधारी पुरुष धन-वैभव, विषय-भोग अथवा अपने शरीर पर भी विश्‍वास कर सकता हैं? ‘मैं भी इसी प्रकार सर्वव्‍यापी, अविनाशी, घोर एवं गुह्य कालाग्नि से पड़े हुए इस जगत को क्षणभंगुर ही जानता हूँ। ‘जो काल की पकड़ में आ चुका है, ऐसे किसी भी पुरुष के लिये उससे छूटने का कोई उपाय नहीं है। सूक्ष्‍म से सूक्ष्‍म और महान भूत भी कालाग्नि में पकाये जा रहे हैं, उनका भी उससे छुटकारा होने वाला नहीं है। ‘काल पर किसी का भी वश नही चलता। वह सदा सावधान रहकर सम्‍पूर्ण भूतों को पकाता रहता है। वह कभी लौटने वाला नहीं है। ऐसे काल के अधीन हुआ प्राणी उससे छुटकारा नहीं पाता है। ‘देहधारी जीव प्रमाद में पड़कर सोते है; किंतु काल सदा सावधान रहकर जागता रहता है। किसी के प्रयत्‍न से भी काल को पीछे हटाया जा सका हो, ऐसा पहले कभी किसी ने देखा नहीं है। काल पुरातन (अनादि) सनातन, धर्मस्‍वरूप और समस्‍त प्राणियों के प्रति समान दृष्टि रखने वाला है। काल का किसी के द्वारा भी परिहार नहीं हो सकता और न उसका कोई उल्‍लघंन ही कर सकता है। जैसे ऋण देने वाला पुरुष व्याज का हिसाब जोड़कर ऋण लेने वालों को तंग करता है, उसी प्रकार वह काल दिन, रात, मास, क्षण, काष्ठा, लव और कला तक का हिसाब लगाकर प्राणियों को पीड़ा देता रहता है। ‘जैसे नदी का वेग सहसा बढ़कर किनारे के वृक्ष का हरण कर लेता है। उसी प्रकार ‘यह आज करूँगा और वह कल पूरा करूँगा।’ ऐसा कहने वाले पुरुष का काल सहसा आकर हरण कर लेता है। ‘’अरे! अभी-अभी तो मैने उसे देखा था। वह मर कैसे गया? इस प्रकार काल से अपहृत होने वालों के लिये अन्‍य मनुष्‍यों का प्रलाप सुना जाता है।[6]

धन और भोग नष्ट हो जाते हैं। स्‍थान और ऐश्‍वर्य छिन जाता हैं तथा इस जीव जगत के जीवन को भी काल आकर हर ले जाता है। ‘ऊँचे चढ़ने का अन्‍त है नीचे गिरना तथा जन्‍म का अन्‍त है मृत्‍यु। जो कुछ देखने में आता है, वह सब नाशवान् है, अस्थिर है तो भी इसका निरन्‍तर स्‍मरण रहना कठिन हो जाता है। ‘अवश्‍य ही तुम्‍हारी बुद्धि तत्‍व को जानने वाली तथा स्थिर है, इसीलिये उसे व्‍यथा नहीं होती। मैं पहले अत्‍यन्‍त ऐश्‍वर्यशाली था, इस बात को तुम मन से भी स्‍मरण नहीं करते। ‘अत्‍यन्‍त बलवान काल इस सम्‍पूर्ण जगत पर आक्रमण करके सबको अपनी आँच में पका रहा है। वह इस बात को नहीं देखता है कि कौन छोटा है और कौन बड़ा? सब लोग कालाग्नि में झोंके जा रहे हैं, फिर भी किसी को चेत नहीं होता। ‘लोग ईर्ष्‍या, अभिमान, लोभ, काम, क्रोध, भय, स्‍पृहा, मोह और अभिमान में फँसकर अपना विवेक खो बैठे हैं। ‘परंतु तुम विद्वान, ज्ञानी और तपस्‍वी हो। समस्‍त पदार्थों के तत्‍व को जानते हो। काल की लीला और उसके तत्‍व को समझते हो। सम्‍पूर्ण शास्त्रों के ज्ञान में निपुण हो। तत्‍व के विवेचन में कुशल, मन को वश में रखने वाले तथा ज्ञानी पुरुषों के आदर्श हो। इसीलिये हाथ पर रखे हुए आँवले के समान काल को स्‍पष्टरूप से देख रहे हो। मेरा तो ऐसा विश्‍वास है कि तुमने अपनी बुद्धि से सम्‍पूर्ण लोकों का तत्‍व जान लिया है। ‘तुम सर्वत्र विचरते हुए भी सबसे मुक्‍त हो।[7]

कहीं भी तुम्‍हारी आसक्ति नहीं है। तुमने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है; इसीलिये रजोगुण और तमोगुण तुम्‍हारा स्‍पर्श नहीं कर सकते। ‘जो हर्ष से रहित, संताप से शून्‍य, सम्‍पूर्ण भूतों का सुहृद्, वैर रहित और शान्‍तचित्‍त है, उस आत्‍मा की तुम उपासना करते हो। ‘तुम्‍हें देखकर मेरे मन मे दया का संचार हो आया है। मैं ऐेसे ज्ञानी पुरुष को बन्‍धन में रखकर उसका वध करना नहीं चाहता। ‘किसी के प्रति क्रूरतापूर्ण बर्ताव न करना सबसे बड़ा धर्म है। तुम्‍हारे ऊपर मेरा पूर्ण अनुग्रह है। कुछ समय बीतने पर तुम्‍हें बाँधने वाले ये वरुण देवता के पाश अपने आप ही तुम्‍हें छोड़ देंगे। ‘महान् असुर! जब प्रजाजनों का न्‍याय के विपरीत आचरण होने लगेगा, तब तुम्‍हारा कल्‍याण होगा। जब पतोहू बूढ़ी सास से अपनी सेवा टहल कराने लगेगी और पुत्र भी मोहवश पिता को विभिन्‍न प्रकार के कार्य करने के लिये आज्ञा प्रदान करने लगेगा, शूद्र ब्राह्मणों से पैर धुलाने लगेंगे तथा वे निर्भय होकर ब्राह्मण जाति की स्त्री को अपनी भार्या बनाने लगेंगे, जब पुरुष निर्भय होकर मानवेतर योनियों में अपना वीर्य स्‍थापित करने लगेंगे, जब काँसे के पात्र से ऊँच जाति और नीच जाति के लोग एक साथ भोजन करने लगेंगे एवं अपवित्र पात्रों द्वारा देवपूजा के लिये उपहार अर्पित किया जायगा, सारा वर्णधर्म जब मर्यादाशून्‍य हो जायगा, उस समय क्रमश: तुम्‍हारा एक-एक पाश (बन्‍धन) खुलता जायगा। ‘हमारी ओर से तुम्‍हें कोई भय नहीं है। तुम समय की प्रतीक्षा करो और निर्बाध, स्‍वस्‍थचित्‍त एवं रोगरहित हो सुख से रहो’।

इंद्र का स्वर्गलोक में जाना

बलि के ऐसा कहकर गजराज की सवारी पर चलने वाले भगवान शतक्रतु इन्‍द्र अपने स्‍थान को लौट गये। वे समस्‍त असुरों पर विजय पाकर देवराज के पद पर प्रतिष्ठित हुए थे और एकच्‍छत्रसम्राट् होकर हर्ष से प्रफुल्लित हो उठे थे। उस समय महर्षियों ने सम्‍पूर्ण चराचर जगत के स्‍वामी इन्‍द्र का भलीभाँति स्‍तवन किया। अग्निदेव यज्ञमण्‍डप में देवताओं के लिये हविष्‍य वहन करने लगे और देवेश्‍वर इन्‍द्र भी सेवकों द्वारा अर्पित अमृत पीने लगे। सर्वत्र पहुँचने की शक्ति रखने वाले श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों ने उद्दीप्‍त तेजस्‍वी और क्रोधशून्‍य हुए देवेश्‍वर इन्‍द्र की स्‍तुति की; फिर वे इन्‍द्र शान्तिचित्‍त एवं प्रसन्‍न हो अपने निवास स्‍थान स्वर्गलोक में जाकर आनन्‍द का अनुभव करने लगे।[7]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 227 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 227 श्लोक 17-31
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 227 श्लोक 32-45
  4. 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 227 श्लोक 46-66
  5. 5.0 5.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 227 श्लोक 67-82
  6. 6.0 6.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 227 श्लोक 83-99
  7. 7.0 7.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 227 श्लोक 100-119

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महाभारत शान्ति पर्व में उल्लेखित कथाएँ


राजधर्मानुशासन पर्व
युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन | युधिष्ठिर का कर्ण को शाप मिलने का वृत्तांत पूछना | नारद का कर्ण को शाप प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना | कर्ण को ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुराम का शाप | कर्ण की मदद से दुर्योधन द्वारा कलिंगराज कन्या का अपहरण | कर्ण के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर जरासंध का उसे अंगदेश का राजा बनाना | युधिष्ठिर का स्त्रियों को शाप | युधिष्ठिर का अर्जुन से आन्तरिक खेद प्रकट करना | अर्जुन का युधिष्ठिर के मत का निराकरण करना | युधिष्ठिर का वानप्रस्थ एवं संन्यासी जीवन का निश्चय | भीम का राजा के लिए संन्यासी का विरोध | अर्जुन का इंद्र और ऋषि बालकों के संवाद का वर्णन | नकुल का गृहस्थ धर्म की प्रशंसा करते हुए युधिष्ठिर को समझाना | सहदेव का युधिष्ठिर को ममता और आसक्ति से मुक्त राज्य करने की सलाह देना | द्रौपदी का युधिष्ठिर को राजदण्डधारणपूर्वक शासन के लिए प्रेरित करना | अर्जुन द्वारा राज राजदण्ड की महत्ता का वर्णन | भीम का राजा को मोह छोड़कर राज्य-शासन के लिए प्रेरित करना | युधिष्ठिर द्वारा भीम की बात का विरोध एवं मुनिवृत्ति-ज्ञानी महात्माओं की प्रशंसा | जनक का दृष्टांत सुनाकर अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर को संन्यास ग्रहण से रोकना | युधिष्ठिर द्वारा अपने मत की यथार्थता का प्रतिपादन | मुनिवर देवस्थान का युधिष्ठिर को यज्ञानुष्ठान के लिए प्रेरित करना | देवस्थान मुनि द्वारा युधिष्ठिर के प्रति उत्तम धर्म-यज्ञादि का उपदेश | क्षत्रिय धर्म की प्रशंसा करते हुए अर्जुन पुन: युधिष्ठिर को समझाना | व्यास जी द्वारा शंख और लिखित की कथा सुनाना | व्यास द्वारा सुद्युम्न के दण्डधर्मपालन का महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिर को आज्ञा देना | व्यास का युधिष्ठिर को हयग्रीव का चरित्र सुनाकर कर्तव्यपालन के लिए जोर देना | सेनजित के उपदेश युक्त उद्गारों का उल्लेख करके व्यास का युधिष्ठिर को समझाना | युधिष्ठिर द्वारा धन के त्याग की महत्ता का प्रतिपादन | युधिष्ठिर को शोकवश शरीर त्यागने को उद्यत देख व्यास का समझाना | अश्मा ऋषि एवं जनक के संवाद द्वारा व्यास द्वारा युधिष्ठिर को समझाना | श्रीकृष्ण द्वारा नारद-सृंजय संवाद के रूप में युधिष्ठिर के शोक निवारण का प्रयत्न | महर्षि नारद और पर्वत का उपाख्यान | सुवर्णष्ठीवी के जन्म, मृत्यु और पुनर्जीवन का वृत्तांत | व्यास का अनेक युक्तियों से युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश | ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन | राजा पृथु के चरित्र का वर्णन | वर्णधर्म का वर्णन | आश्रम धर्म का वर्णन | ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व | वर्णाश्रम धर्म का वर्णन | राजर्धम का वर्णन | इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद | राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल | राष्ट्र की रक्षा और उन्नति | राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन | वसुमना और बृहस्पति का संवाद | राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन | राजा के प्रधान कर्तव्य | दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन | राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण | धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म | राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता | विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान | राज्य के कर्तव्य का वर्णन | युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन | उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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