राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव

महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 80 के अनुसार राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन इस प्रकार है[1]-

राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान

युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! जो छोटे-से-छोटा काम है, उसे भी बिना किसी की सहायता के अकेले मनुष्य के द्वारा किया जाना कठिन हो जाता हैं। फिर राजा दूसरे की सहायता के बिना महान् राज्य का सुचालन कैसे कर सकता है? अतः राजा की सहायता के लिये जो सचिव (मन्त्री) हो, उसका स्वभाव और आचरण कैसा होना चाहिये? राजा कैसे मन्त्री पर विश्वास करे और कैसे पर न करे? भीष्मजी ने कहा-राजन! राजा के सहायक या मित्र चार प्रकार के होते हैं-1-सहार्थं 2-भजमान 3-सहज और 4-कृत्रिम[2] इनके सिवा, राजा का एक पाँचवाँ मित्र धर्मात्मा पुरुष होता है वह किसी एक का पक्षपाती नहीं होता है और न दोनों पक्षों से वेतन लेकर कपटपूर्वक दोनों का ही मित्र बना रहता है।[1]
जिस पक्ष में धर्म होता है, उसी ओर वह भी हो जाता है अथवा जो धर्मपरायण राजा है, वही उसका आश्रय ग्रहण कर लेता है। ऐसे धर्मात्मा पुरुष को जो कार्यं न रूचे, वह उसके सामने नहीं प्रकाशित करना चाहिये; क्योंकि विजय की इच्छा रखने वाले कभी धर्ममार्ग से चलते हैं और कभी अधर्ममार्ग से। उपर्युक्त चार प्रकार के मित्रों में से भजमान और सहज- ये बीच वाले दो मित्र श्रेष्ठ समझे जाते है, किंतु शेष दो की ओर से सदा सशग रहना चाहिये। वास्तव में तो अपने कार्य को ही दृष्टि में रखकर सभी प्रकार के मित्रों से सदा सतर्क रहना चाहिये। राजा को अपने मित्रों की रक्षा में कभी असावधानी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि असावधान राजा का सभी लोग तिरस्कार करते हैं। बुरा मनुष्य भला और भला मनुष्य बुरा हो जाया करता है। शत्रु भी मित्र बन जाता है और मित्र भी बिगड़ जाता है; क्योकि मनुष्य का चित्त सदैव एक -सा नहीं रहता। अतः उसपर किसी भी समय कोई कैसे विश्वास करेगा? इसलिये जो प्रधान कार्य हो उसे अपनी आँखों के सामने पूरा कर देनी चाहिये। किसी पर भी किया हुआ अत्यन्त विश्वास धर्म और अर्थ दोनों का नाश करने वाला होता है और सर्वत्र अविश्वास करना भी मृत्यु से बढ़कर है। दूसरों पर किया हुआ पूरा-पूरा विश्वास अकाल मृत्यु के सामन है; क्योंकि अधिक विश्वास करने वाला मनुष्य भारी विपत्ति में पड़ जाता है। वह जिसपर विश्वास करता है, उसी की इच्छा पर उसका जीवन निर्भर होता है। इसलिये राजा को कुछ चुने हुआ लोगों पर विश्वास तो करना चाहिये पर उनकी ओर से सशग भी रहना चाहिये। तात! यही सनातन नीति की गति है। इसे सदा दृष्टि में रखना चाहिये।[1]

अमुक व्यक्ति से सावधान रहना

अमुक व्यक्ति मेरे मरने के बाद राजा हो सकता है और धन की यह सारी आय अपने हाथ में लें सकता है ऐसी मान्यता जिसके विषय में हो (वह भाई, पड़ोसी या पुत्र ही क्यों न हो ) उससे सदा सतर्क ही रहना चाहिये; क्योंकि विद्वान् पुरुष उसे शत्रु ही समझते हैं। वर्षा आदि का जल जिसके खेत से होकर दूसरे के खेत में जाता है, उसकी इच्छा के बिना उसके खेत की आड़ या मेड़ को नहीं तोड़ना चाहिये। इसी प्रकार आड़ न टूटने से जिसके खेत में अघिक जल भर जाता है, वह भयभीत हो उस जल कों निकालने के लिये खेत की आड़ को तोड़ डालना चाहना है। जिसमें ऐसे लक्षण जान पड़े, उसी को शत्रु समझो, अर्थात् जो अपने राज्य की सीमा का रक्षक है वह यदि सीमा तोड़ दे तो अपने राज्य पर भय आ सकता है; अतः उसे भी शत्रु ही समझना चाहिये। जो राजा की उन्नति से कभी तृप्त न हो उत्तरोत्तर उसकी अधिक उन्नति ही चाहता रहे और अवनति होने पर बहुत दुखी हो जाय, यही उत्तम मित्र की पहचान बतायी गयी है। जिसके विषय में ऐसी मान्यता हो कि मेरे न रहने पर यह भी नहीं रहेगा उस पर पिता के समान विश्वास करना चाहिये। और जब अपनी वृद्धि हो तो यथाशक्ति उसे भी सब ओर से समृद्धिशाली बनावे जो धर्म के कार्याे में भी राजा को सदा हानि से बचाने से भयभीय हो उठता है, उसके इस स्वभाव को ही उत्तम मित्र का लक्षण समझना चाहिये। जो राजा की हानि और विनाश की इच्छा रखते है, वे उसके शत्रु माने गये है।[3]-

मित्र के लक्षण

जो मित्र पर विपत्ति आने की सम्भावना से सदा डरता रहता है और उसकी उन्नति देखकर मन-ही-मन ईर्ष्या नहीं करता है ,ऐसे मित्र को अपने आत्मा के समान बताया गया है। जिसका रूप रंग सुन्दर और स्वर मीठा हो, जो क्षमशील हो, निदक न हो तथा कुलीन और शीलवान हो, वह तुम्हारा प्रधान सचिव होना चाहिये। जिसकी बुद्धि अच्छी और स्मरण शक्ति तीव्र हो, जो कार्यसाधन में कुशल और स्वभावतः दयालु हो तथा कभी मान या अपमान हो जाने पर जिसके हद्य में द्वेष या दुर्भाव नहीं पैदा होता हो, ऐसा मनुष्य यदि ऋत्विज, आचार्य अथवा अत्यन्त प्रशंसित मित्र हो तो वह मन्त्री बनकर तुम्हारें घर में रहे तथा तुम्हें उसका विशेष आदर सम्मान करना चाहिये। वह तुम्हारें उत्तम से उत्तम गोपनीय मन्त्र तथा धर्म और अर्थ की प्रकृति[4] को भी जानने का अधिकारी हैं। उस पर तुम्हारा वैसा ही विश्वास होना चाहिये, जैसा कि एक पुत्र का पिता पर होता है।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 80 श्लोक 1-12
  2. सहार्थ मित्र उनको कहते है, जो किसी शर्त पर एक दूसरे की सहायता के लिये मित्रता करते हैं। अमुक शत्रु पर हम दोनों मिलकर चढाई करें, विजय होने पर दोनों उसके राज्य को आधा आधा बाँट लेंगे- इत्यादि शर्तें सहार्थ मित्रों में होती है। जिनके साथ परम्परागत वंश सम्बन्ध से मित्रता हो, वे भजमान कहलाते है। जन्म से ही साथ रहने से अथवा घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण जिनमें परस्पर स्वाभाविक मैत्री हो जाती है वे सहज मित्र कहे गये है; और धन आदि देकर अपनाये हुए लोग कृत्रिम मित्र कहलाते है।
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 80 श्लोक 13-25
  4. प्रकृतियाँ तीन प्रकार की बतायी गयी है- अर्थप्रकृति, धर्मप्रकृति तथा अर्थ-धर्मप्रकृति। इनमें अर्थ प्रकृति के अन्तर्गत आठ वस्तुएँ है- खेती, वाणिज्य, दुर्ग, सेतु (पुल), जंगल में हाथी बाँधने के स्थान, सोने चाँदी आदि धातुओं की खान, कर-ग्रहण और सूने स्थानों को बसाना। इनके अतिरिक्त जो दुर्गाध्यद्वक्ष, बलाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, सेनापति, पुरोहित, वैद्य और ज्योतिषी- ये सात प्रकृतियाँ हैं, इनमें से धर्माध्यक्ष तो धर्मप्रकृति है और शेष छः अर्थ धर्मप्रकृति के अन्तर्गत है।

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राजधर्मानुशासन पर्व
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आपद्धर्म पर्व

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मोक्षधर्म पर्व

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उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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