- महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 301 के अनुसार सांख्ययोग के फल का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
सांख्ययोग के फल का वर्णन
सत्पुरुष क्षमा से क्रोध का, संकल्प के त्याग से काम का, सत्वगुण के सेवन से निद्रा का, प्रमाद के त्याग से भय का तथा अल्पाहार के सेवन द्वारा पांचवे श्वास दोष का नाश होता है। राजन! भरतनन्दन! महाबुद्धिमान सांख्य के विद्वान सैकड़ों गुणों के द्वारा गुणों को, सैकड़ों दोषों के द्वारा दोषों को तथा सैकड़ों विचित्र हेतुओं से विचित्र हेतुओं को तत्वत: जानकर व्यापक ज्ञान के प्रभाव से संसार को पानी के फेन के समान नश्वर, विष्णु की सैकड़ों मायाओं से ढँका हुआ, दीवार पर बने हुए चित्र के समान, नरकुल के समान सारहीन, अन्धकार से भरे गड्ढे की भाँति भयंकर, वर्षाकाल के पानी के बुलबुलों के समान क्षणभंगुर, सुखहीन, पराधीन, नष्टप्राय तथा कीचड़ में फँसे हुए हाथी की तरह रजोगुण और तमोगुण में मग्न समझते हैं। इसलिये वे संतान आदि की आसक्ति को दूर करके तपरूप दण्ड से युक्त विवेक रूपी शास्त्र से राजस-तामस अशुभ गन्धों को और सुन्दर शोभनीय सात्त्विक गन्धों को तथा स्पर्शेन्द्रिय के देहाश्रित भोगों की आसक्ति को शीघ्र ही काट डालते हैं। शत्रुसूदन! तदनन्तर वे सिद्ध यति प्रज्ञारूपी नौका के द्वारा उस संसार रूपी घोर सागर को तर जाते हैं, जिसमें दुखरूपी जल भरा है। चिन्ता और शोक के बड़े-बड़े कुण्ड हैं। नाना प्रकार के रोग और मृत्यु विशाल ग्राहों के समान हैं। महान भय ही महानागों के समान हैं। तमोगुण कछुए और रजोगुण मछलियाँ हैं। स्नेह ही कीचड़ है। बुढापा ही उससे पार होने में कठिनाई है। ज्ञान ही उसका द्वीप है। नाना प्रकार के कर्मोद्वारा वह अगाध बना हुआ है। सत्य ही उसका तीर है। नियम-व्रत आदि स्थिरता है। हिंसा ही उसका शीघ्रगामी महान वेग है। वह नाना प्रकार के रसों का भण्डार है।
अनेक प्रकार की प्रीतियाँ ही उस भवसागर के महारत्न हैं। दुख और संताप ही वहाँ की वायु है। शोक और तृष्णा की बड़ी-बड़ी भँवरें उठती रहती हैं। तीव्र व्याधियां उसके भीतर रहने वाले महान जलहस्ती हैं। हड्डियां ही उसके घाट हैं। कफ फेन हैं। दान मोतियों की राशि हैं। रक्त उसके कुण्ड में रहने वाले मूँगा हैं। हंसना और चिल्लाना ही उस सागर की गम्भीर गर्जना है। अनेक प्रकार के अज्ञान ही इसे अत्यन्त दुस्तर बनाये हुए हैं। रोदनजनित आँसू ही उसमें मलिन खारे जल के समान हैं। आसक्तियों का त्याग ही उसमें परम आश्रय या दूसरा तट है। स्त्री-पुत्र जोंक के समान हैं। मित्र और बन्धु-बान्धव तटवर्ती नगर है। अहिंसा और सत्य उसकी सीमा हैं। प्राणों का परित्याग ही उसकी उताल तरंगें हैं। वेदान्तज्ञान द्वीप है। समस्त प्राणियों के प्रति दयाभाव इसकी जलराशि है। मोक्ष उसमें दुर्लभ विषय है और नाना प्रकार के संताप उस संसार सागर के बड़वानल हैं। भरतनन्दन! उससे पार होकर वे आकाशस्वरूप निर्मल परब्रह्म में प्रवेश कर जाते हैं। राजन! उन पुणयात्मा सांख्ययोगी सिद्ध पुरुषों को अपनी रश्मियों द्वारा उनमें प्रविष्ट हुआ सूर्य अर्चिमार्ग से उस ब्रह्मलोक में ले जाने के लिये ऊपर के लोकों में उसी प्रकार वहन करता है, जैसे कमल की नाल सरोवर के जल को खींच लेती है। वहाँ प्रवहनामक वायु-अभिमानी देवता उन वीतराग शक्तिसम्पन्न सिद्ध तपोधन महापुरुषों को सूर्य-अभिमानी देवता से अपने अधिकार में ले लेता है।[1]
भरतनन्दन! कुन्तीकुमार! सूक्ष्म, शीतल, सुगन्धित, सुखस्पर्श एवं सातों वायुओं में श्रेष्ठ जो वायुदेव शुभ लोकों में जाते हैं, वे फिर उन कल्याणमय सांख्ययोगियों को आकाश की ऊँची स्थिति में पहुँचा देते हैं। लोकेश्वर! आकाशभिमानी देवता उन योगियों को रजोगुण की परमागति तक वहन करता है। अर्थात तेजोमय विद्युत-अभिमानी देवताओं के पास पहुँचा देता है। राजेन्द्र! वह रजोगुण अर्थात विद्युदभिमानी देवता उनको सत्य की परम गति तक अर्थात जहाँ श्रीनारायण के पार्षदगण उनको लेने के लिये प्रस्तुत रहते हैं, वहाँ तक वहन करता है। शुद्धात्मन! वहाँ से सत्वगुण युक्त वे भगवान के पार्षद उनको परम प्रभु श्रीनारायण के पास पहुँचा देते हैं। समर्थ राजन! भगवान नारायण स्वयं उनको विशुद्ध आत्मा परब्रह्म परमात्मा में प्रविष्ट कर देते हैं। परमात्मा को पाकर तद्रूप हुए वे निर्मल योगी जन अमृतभावसम्पन्न हो जाते हैं, फिर नहीं लौटते। कुन्तीकुमार! जो सब प्रकार के द्वन्द्वों से रहित, सत्यवादी, सरल तथा सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करने वाले हैं, उन महात्माओं को वही परमगति मिलती है।
भीष्म-युधिष्ठिर संवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- निष्पाप पितामह! स्थिरतापूर्वक श्रेष्ठ व्रत का पालन करने वाले वे सांख्ययोगी महात्मा भगवान नारायण को एवं उत्तम परमात्मपद (मोक्ष) को प्राप्त कर लेने पर अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक के बीते हुए वृतान्त को फिर कभी याद करते हैं या नहीं ? (मोक्षावस्था में विशेष-विशेष बातों का ज्ञान रहता है या नहीं ? यही मेरा प्रश्न है। ) इस विषय में जो तथ्य बात है, उसे आप यथार्थरूप से बताने की कृपा करें। कुरुनन्दन! आपके सिवा दूसरे किसी पुरुष से मैं ऐसा प्रश्न नही कर सकता। सिद्धावस्था को प्राप्त ऋषियों के लिये मोक्ष में यह एक बड़ा दोष प्रतीत होता है। वह यह कि यदि मोक्ष प्राप्त होने पर भी वे यतिलोग विशेष ज्ञान में ही विचरण करते हैं अर्थात उनको पहले की स्मृति रहती है, तब तो मैं प्रवृति रूप धर्म को ही सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ। यदि कहें, मुक्तावस्था में विशेष विज्ञान का अनुभव नहीं होता तब तो उस परम ज्ञान में डूब जाने पर विशेष जानकारी का अभाव हो जाता है, इससे बढकर दुख और क्या हो सकता है ?
भीष्म जी ने कहा- तात! भरतश्रेष्ठ! तुमने यथोचित रीति से यह बहुत ही जटिल प्रश्न उपस्थित किया। इस प्रश्न पर विचार करते समय बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं। इस विषय में भी जो परम तत्व है, उसे मैं भलीभाँति बता रहा हूँ सुनों। यहाँ कपिल जी के द्वारा प्रतिपादित सांख्यमत का अनुसरण करने वाले महात्मा पुरुषों का जो उत्तम विचार है वही प्रस्तुत किया जाता है। नरेश्वर! देहधारियो के अपने -अपने शरीर में जो इन्द्रियाँ हैं, वे ही विशेष-विशेष विषयों को देखती या अनुभव करती हैं, वे ही आत्मा को विभिन्न ज्ञान कराने में कारण हैं; क्योंकि वह सूक्ष्म आत्मा उन इन्द्रियों द्वारा ही बाह्य विषयों को दर्शन या प्रकाशन करता है (मुक्तावस्था में मन और इन्द्रियों से संबंध न रहने के कारण ही उसमें इन्द्रियजनित विशेष ज्ञान का अभाव देखा जाता है।)। जैसे महासागर में उठे हुए फेन नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार जीवात्मा से परित्यक्त होने पर मनुष्य की काठ और दीवार की भाँति जड़ इन्द्रियां प्रकृति में विलीन हो जाती हैं, इसमें संदेह नहीं है।[2]
शत्रुओं को ताप देने वाले नरेश! जब शरीरधारी प्राणी इन्द्रियों सहित निद्रित हो जाता है, तब उसका सूक्ष्मशरीर आकाश में वायु के समान सर्वत्र विचरण करने लगता है अर्थात स्वप्न देखने लगता है। प्रभो! भरतनन्दन! वह जाग्रत-अवस्था की भाँति स्वप्न में भी यथोचित रीति से दृश्य वस्तुओं को देखता है तथा स्पृश्य पदार्थों का स्पर्श करता है। सारांश यह कि सम्पूर्ण विषयों का वह जाग्रत के समान ही अनुभव करता है। फिर सुषप्ति-अवस्था होने पर विषय-ज्ञान में असमर्थ हुई सम्पूर्ण इन्द्रियां अपने-अपने स्थान में उसी प्रकार विधिवत लीन हो जाती हैं, जैसे विषहीन सर्प (भय से) छिपे रहते हैं। स्वप्नावस्था में अपने-अपने स्थानों में स्थित हुई सम्पूर्ण इन्द्रियों की समस्त गतियों को आक्रान्त करके जीवात्मा सूक्ष्म विषयों में विचरण करता है, इसमें संदेह नहीं है। भरतनन्दन! धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर! परब्रह्म परमात्मा सात्त्विक, राजस और तामस गुणों को एवं बुद्धि, मन, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी- इन सबके सम्पूर्ण गुणों को तथा अन्य सब वस्तुओं को भी अपने गुणों द्वारा व्याप्त करके सभी क्षेत्रज्ञों (जीवात्माओं) में स्थित हैं, प्रभो! जैसे शिष्य अपने गुरु के पीछे चलते हैं, उसी प्रकार मन, इन्दियां और शुभाशुभ कर्म भी उस जीवात्मा के पीछे-पीछे चलते हैं।
सांख्यशास्त्र का वेदों में वर्णन
जब जीवात्मा इन्द्रियों और प्रकृति को भी लाँघकर जाता है, तब उस नारायण स्वरूप अविनाशी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है, जो द्वन्द्वरहित और माया से अतीत है। भारत! पुण्य-पाप से रहित हुआ सांख्ययोगी मुक्त होकर जब उन्हीं निर्गुण-निर्विकार नारायणस्वरूप परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है, फिर वह इस संसार में नहीं लौटता है। भरतनन्दन! इस प्रकार जीवन्मुक्त पुरुष का आत्मा तो परमात्मा में मिल जाता है, परंतु प्रारब्धवश जब तक शरीर रहता है, तब तक उसके मन और इन्द्रियां शेष रहते हैं और गुरु के आदेश पालन करने वाले शिष्यों के समान यथासमय यहाँ गमनागमन करते हैं। कुन्तीनन्दन! इस प्रकार बताये हुए ज्ञान से सम्पन्न मोक्षाधिकारी तथा आध्यात्मिक उन्नति की अभिलाषा रखने वाला पुरुष थोड़े ही समय में परम शान्ति प्राप्त कर सकता है। राजन! कुन्तीकुमार! महाज्ञानी सांख्ययोगी ऊपर बताए हुए इसी परमगति को प्राप्त होते हैं। इस ज्ञान के समान दूसरा कोई ज्ञान नहीं है। सांख्यज्ञान सबसे उत्कृष्ट माना गया है। इस विषय में तुम्हें तनिक भी संशय नहीं होना चाहियें। इसमें अक्षर, ध्रुव एवं पूर्ण सनातन ब्रह्म का ही प्रतिपादन हुआ है वह ब्रह्म आदि, मध्य और अन्त से रहित, निर्द्वन्द्व, जगत की उत्पत्ति का हेतुभूत, शाश्वत, कूटस्थ और नित्य है, ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं। संसार की सृष्टि और प्रलयरूप सारे विकार उसी से सम्भव होते हैं। महर्षि अपने शास्त्रों में उसी की प्रशंसा करते हैं। समस्त ब्राह्मण, देवता और शान्ति का अनुभव करने वाले लोग उसी अनन्त, अच्युत, ब्राह्मणहितैषी तथा परमदेव परमात्मा की स्तुति-प्रार्थना करते हैं। उनके गुणों का चिन्तन करते हुए उनकी महिमा का गान करते हैं। योग में उत्तम सिद्धि को प्राप्त हुए योगी तथा अपार ज्ञानवाले सांख्यव्रता पुरुष भी उसी के गुण गाते हैं।[3]
कुन्तीनन्दन! ऐसी प्रसिद्धि है कि यह सांख्यशास्त्र ही उस निराकार परमात्मा का आकर है। भरतश्रेष्ठ! जितने ज्ञान हैं, वे सब सांख्य की ही मान्यता का प्रतिपादन करते हैं। पृथ्वीनाथ! इस भूतलपर स्थावर और जंगम-दो प्रकार के प्राणी उपलब्ध होते हैं। उनमें भी जंगम ही श्रेष्ठ हैं। राजन! नरेश्वर! महात्मा पुरुषों में, वेदों में, सांख्यों (दर्शनों) में, योगशास्त्र में तथा पुराणों में जो नाना प्रकार का उत्तम ज्ञान देखा जाता है, वह सब सांख्य से ही आया है। नरेश! महात्मन! बड़े-बड़े इतिहासों में, सत्पुरुषों द्वारा सेवित अर्थशास्त्र में तथा इस संसार में जो कुछ भी महान देखा गया है, वह सब सांख्य ही प्राप्त हुआ है। राजन! प्रत्यक्ष प्राप्त मन और इन्द्रियों का संयम, उत्तम बल, सूक्ष्मज्ञान तथा परिणाम में सुख देने वाले जो सूक्ष्म तप बतलाये गये हैं, उन सबका सांख्यशास्त्र में यथावत वर्णन किया गया है। कुन्तीकुमार! यदि साधन में कुछ त्रुटि रह जाने के कारण सांख्यका सम्यक ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ हो तो भी सांख्ययोग के साधक देवलोक में अवश्य जाते हैं और वहाँ निरन्तर सुख से रहते हुए देवताओं को आधिपत्य पाकर कृतार्थ हो जाते हैं। तदनन्तर पुण्यक्षय के पश्चात वे इस लोक में आकर पुन: साधन के लिये यत्नशील ब्राह्मणों के यहाँ जन्म ग्रहण करते हैं। पार्थ! सांख्यज्ञानी शरीर-त्याग के पश्चात परमदेव परमात्मा में उसी प्रकार प्रवेश कर जाते हैं, जैसे देवता स्वर्ग मे। पृथ्वीनाथ! अत: शिष्ट पुरुषों द्वारा सेवित परम पूजनीय सांख्यशास्त्र में वे सभी द्विज अधिक अनुरक्त रहते हैं। राजन! जो इस सांख्य-ज्ञान में अनुरक्त हैं, वे ही ब्राह्मण प्रधान हैं, अत: उन्हें मृत्यु के पश्चात कभी पशु पक्षी आदि की योनि में जाना पड़ा हो, ऐसा नहीं देखा गया है। वे कभी नरकादि अधोगति को भी नहीं प्राप्त होते हैं तथा उन्हें पापाचारियों के बीच में भी नहीं रहना पड़ता है। सांख्य का ज्ञान अत्यन्त विशाल और परम प्राचीन है। यह महासागर के समान अगाध, निर्मल, उदार भावों से परिपूर्ण और अतिसुन्दर है। नरनाथ! परमात्मा भगवान नारायण इस सम्पूर्ण अप्रमेय सांख्य-ज्ञान को पूर्णरूप से धारण करते हैं। नरदेव! यह मैंने तुम से सांख्य का तत्व बतलाया है। इस पुरातन विश्व के रूप में साक्षात भगवान नारायण ही सर्वत्र विराजमान हैं। वे ही सृष्ठि के समय जगत की सृष्टि और संहार काल में उसको अपने में विलीन कर लेते हैं। इस प्रकार जगत को अपने शरीर के भीतर ही स्थापित करके वे जगत के अन्तरात्मा भगवान नारायण एकार्णव के जल में शयन करते हैं।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 301 श्लोक 56-74
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 301 श्लोक 75-87
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 301 श्लोक 88-105
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 301 श्लोक 106-116
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| आपत्ति के समय राजा का धर्म
- आपद्धर्म पर्व
आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना
- मोक्षधर्म पर्व
शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना
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