शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद

महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 174 के अनुसार शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद का वर्णन इस प्रकार है[1]-

भीष्‍म द्वारा धर्मों के उपदेश का वर्णन

राजा युधिष्ठिर ने कहा- पितामह! यहाँ तक आपने राजधर्म संबंधी श्रेष्‍ठ धर्मों का उपदेश दिया। पृथ्‍वीनाथ, अब आप आश्रमियों के उत्तम धर्म का वर्णन कीजिये। भीष्‍म जी बोले- युधिष्ठिर, वेदों में सर्वत्र सभी आश्रमों के लिये स्‍वर्गसाधक यथार्थ फल की प्राप्ति कराने वाली तपस्‍या का उल्‍लेख हैं धर्म के बहुत-से द्वार हैं। संसार में कोई ऐसी क्रिया नहीं है, जिसका कोई फल न हो। भरतश्रेष्‍ठ, जो जो पुरुष जिस–जिस विषय में पूर्ण निश्‍चय को पहुँच जाता है (जिसके द्वारा उसे अभीष्‍ट सिद्धि का विश्‍वास हो जाता है), उसी को वह कर्तव्‍य समझता है। दूसरे विषय को नहीं। मनुष्‍य जैसे-जैसे संसार के पदार्थों को सारहीन समझता है, वैसे ही वैसे इनमें वैराग्‍य होता जाता है, इसमें संशय नहीं है। युधिष्ठिर, इस प्रकार यह जगत अनेक दोषों से परिपूर्ण है, ऐसा निश्‍चय करके बुद्धिमान पुरुष अपने मोक्ष के लिये प्रयत्‍न करे।

युधिष्ठिर ने पूछा- दादाजी, धन के नष्‍ट हो जाने पर अ‍थवा स्‍त्री, पुत्र या पिता के मर जाने पर किस बुद्धि से मनुष्‍य अपने शोक का निवारण करे? यह मुझे बताइये। भीष्‍म जी ने कहा- वत्‍स! जब धन नष्‍ट हो जाय अथवा स्‍त्री, पुत्र या पिता की मुत्‍यु हो जाय, तब ‘ओह, संसार कैसा दुखमय है’ यह सोचकर मनुष्‍य शोक को दूर करने वाले शम– दम आदि साधनों का अनुष्‍ठान करे। इस विषय में किसी हितैषी ब्राह्मण ने राजा सेनजित के पास आकर उन्‍हें जैसा उपदेश दिया था, उसी प्राचीन इतिहास को विज्ञ पुरुष दृष्‍टांत के रूप में प्रस्‍तुत किया करते हैं। राजा सेनजित् के पुत्र की मृत्‍यु हो गयी थी। वे उसी के शोक की आग से जल रहे थे। उनका मन विषाद में डूबा हुआ था। उन शोकविह्वल नरेश को देखकर ब्राह्मण ने इस प्रकार कहा- ‘राजन! तुम मूढ़ मनुष्‍य की भाँति क्‍यों मोहित हो रहे हो?

शोक के योग्‍य तो तुम स्‍वयं ही हो, फिर दूसरों के लिये क्‍यों शोक करते हो? अजी, एक दिन ऐसा आयेगा, जबकि दूसरे शोच‍नीय मनुष्‍य तुम्‍हारे लिये भी शोक करते हुए उसी गति को प्राप्‍त होंगे। ‘पृथ्‍वीनाथ, तुम, मैं और ये दूसरे लोग जो इस समय तुम्‍हारे पास बैठे है, सब वहीं जायंगे, जहाँ से हम आये है।’

शोकाकुल चित्त की शांति का वर्णन

सेनजित ने पूछा- तपस्‍या के धनी ब्राह्मण देव, आपके पास ऐसी कौन–सी बुद्धि, कौन तप, कौन समाधि, कैसा ज्ञान और कौन–सा शास्त्र है, जिसे पाकर आपको किसी प्रकार का विषाद नहीं है। सुख और दु:ख का चक्र घूमता रहता है। मैं सुख में हर्ष से फूल उठता हूँ और दु:ख में खिन्‍न हो जाता हूँ। ऐसी अवस्‍था में पड़े हुए अपने–आप के लिये मुझे निरंतर शोक होता है। यह शोक मेरे हृदय में डेरा डाले बैठा है। ब्राह्मण ने कहा- राजन, देखों इस संसार में उत्तम, मध्‍मय और अधम सभी प्राणी भिन्‍न–भिन्‍न कर्मों में आसक्‍त हो दुख से ग्रस्‍त हो रहे हैं।[1]

मैं तो अकेला हूँ। न तो दूसरा कोई मेरा है और न मैं किसी दूसरे का हूँ। मैं उस पुरुष को नहीं देखता, जिसका मैं हो तथा उसको भी नहीं देखता, जो मेरा हो (न मुझ पर किसी की ममता है, न मेरा ही किसी पर ममत्‍व)। यह शरीर भी मेरा नहीं अथवा सारी पृथ्‍वी भी मेरी नहीं है। ये सब वस्‍तुएँ जैसी मेरी हैं, वैसी ही दूसरों की भी हैं। ऐसा सोचकर इनके लिये मेरे मन में कोई व्‍यथा नहीं होती।

इसी बुद्धि को पाकर न मुझे हर्ष होता है, न शोक। जिस प्रकार समुद्र में बहते हुए दो काष्‍ठ कभी–कभी एक–दूसरे से मिल जाते हैं और मिलकर फिर अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार इस लोक में प्राणियों का समागम होता है। इसी तरह पुत्र, पौत्र, जाति–बान्‍धव और संबंधी भी मिल जाते है। उनके प्रति कभी आसक्ति नहीं बढा़नी चाहिये, क्‍योंकि ए‍क दिन उनसे बिछोह होना निश्चित है। तुम्‍हारा पुत्र किसी अज्ञान स्थिति से आया था और अब अज्ञात स्थिति में ही चला गया है। न तो वह तुम्‍हें जानता था और न तुम उसे जानते थे, फिर तुम उसके कौन होकर किसलिये शोक करते हो ? संसार में विषयों की तृष्‍णा से जो व्‍याकुलता हेाती है, उसी का नाम दुख है और उस दुख का विनाश ही सुख है।

उस सुख के बाद (पुन कामनाजनित) दुख होता है। इस प्रकार बारंबार दुख ही होता रहता है। सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता है। मनुष्‍यों के सुख और दुख चक्र की भाँति घूमते रहते हैं। इस समय तुम सुख से दुख में आ पड़े हो। अब फिर तुम्‍हें सुख की प्राप्ति होगी। यहाँ किसी भी प्रा‍णी को न तो सदा सुख ही प्राप्‍त होता है और न सदा दुख ही। यह शरीर ही सुख का आधार है और यही दुख का भी आधार है। देहाभिमानी पुरुष शरीर से जो–जो कर्म करता है, उसी के अनुसार वह सुख एवं दु:खरूप फल भोगता है। यह जीवन स्‍वभावत शरीर के साथ ही उत्‍पन्‍न होता है। दोनों के साथ–साथ विविध रूपों में रहते हैं और साथ ही साथ नष्‍ट हो जाते है। मनुष्‍य नाना प्रकार के स्‍नेह–बंधनों में बंधें हुए हैं, अत: वे सदा विषयों की आसक्ति से घिरे रहते है, इसीलिये जैसे बालू द्वारा बनाये हुए पुल जल के वेग से बह जाते हैं, उसी प्रकार उन मनुष्‍यों की विषयकामना सफल नहीं होती, जिससे वे दुख पाते रहते हैं।

तेलीलोग तेल के लिये जैसे तिलों को कोल्‍हू में पेरते हैं, उसी प्रकार स्‍नेह के कारण सब लोग अज्ञानजनित क्‍लेशों द्वारा सृष्टिचक्र में पिस रहे हैं। मनुष्‍य स्‍त्री-पुत्र आदि कुटुम्‍ब के लिये चारी आदि पाप कर्मो का संग्रह करता है, किंतु इस लोक और परलोक में उसे अकेले ही उन समस्‍त कर्मों का क्‍लेशमय फल भोगना पड़ता है। स्‍त्री, पुत्र और कुटुम्‍ब हुए सभी मनुष्‍य उसी प्रकार शोक के समुद्र में डूब जाते हैं जैसे बूढ़ें जंगली हाथी द‍लदल में फंसकर नष्‍ट हो जाते है। प्रभों! यहाँ सब लोगों को पुत्र, धन, कुटुम्‍बी तथा संबंधियों का नाश होने पर दावानल के समान दाह उत्‍पन्‍न करने वाला महान दु:ख प्राप्‍त होता है, परंतु सुख–दुख और जन्‍म–मृत्‍यु आदि यह सब कुछ प्रारब्‍ध के ही अधीन है।[2]

सुख दु:ख प्राप्ति वर्णन

मनुष्‍य हितैषी सुहृदों से युक्‍त हो या न हो, वह शत्रु के साथ हो या मित्र के, बुद्धिमान हो या बुद्धिहीन, दैव की अनुकूलता होने पर ही सुख पाता है। अन्‍यथा न तो सुहृद सुख देने समर्थ हैं, न शत्रु दुख देने में समर्थ हैं, न तो बुद्धि धन देने की शक्ति रखती है और न धन ही सुख देने में समर्थ होता है। न तो बुद्धि धन की प्राप्ति में कारण है, न मूर्खता निर्धनता में, वास्‍तव में संसार चक्र की गति का वृतांत कोई ज्ञानी पुरुष ही जान पाता है, दूसरा नहीं। बुद्धिमान, शूरवीर, मूढ, डरपोक, गूँगा, विद्वान, दुर्बल और बलवान जो भी भाग्‍यवान होगा- देव जिसके अनुकूल होगा, उसे बिना यत्‍न के ही सुख प्राप्‍त होगा। दूध देने वाली गौ बछड़े की है या उसे दुहने अथवा चराने वाले गवाले की है, या रखने वाले मालिक की हैं।

अथवा उसे चुराकर ले जाने वाले चोर की है? वास्‍तव में जो उसका दूध पीता है, उसी की वह गाय है- ऐसा विद्वानों का निश्‍चय है। इस संसार में जो अत्‍यंत मूढ़ है और जो बुद्धि से परे पहुँच गये है, वे ही मनुष्‍य सुखी है। बीच के सभी लोग कष्‍ट भोगते हैं। ज्ञानी पुरुष अन्तिम स्थतियों में रमण करते हैं, मध्‍यवर्ती स्थिति में नहीं। अन्तिम स्थिति की प्राप्ति सुखस्‍वरूप बतायी जाती है ओर दोनों के मध्‍य की स्थिति दु:खरूप कही गयी है। खोटी बुद्धिवाला मूर्ख मनुष्‍य अपने कर्मो के शुभाशुभ परिणाम कोई परवाह न करके सुख से सोता है, क्‍योंकि वह कम्‍बल से ढ़के हुए पुरुष की भाँति महान अज्ञान से आवृत रहता है। किंतु जिन्‍हें ज्ञानजनित सुख प्राप्‍त है, जो द्वन्‍द्वों से अतीत है तथा जिनमें मत्‍सरता का भी अभाव है, उन्‍हें अर्थ और अनर्थ कभी पीड़ा नहीं देते है।

जो मूढ़ता को तो लांघ चुके है, परंतु जिनको ज्ञान प्राप्‍त नहीं हुआ है, वे सुख की परिस्थियों आने पर अत्‍यंत हर्ष से फूल उठते है और दु:ख की परिस्थिति में अतिशय संताप का अनुभव करने लगते है। मूर्ख मनुष्‍य स्‍वर्ग में देवताओं की भाँति सदा विषयसुख में मग्‍न रहते है, क्‍योंकि उनका चित विषया–सक्ति के कीचड़ में लथपथ होकर मोहित हो जाता है। आरम्‍भ में आलस्‍य सुख–सा जान पड़ता है, दुख–सा लगता है, परंतु वह सुख का उत्‍पादक है। कार्यकुशल पुरुष में ही लक्ष्‍मी सहित ऐश्‍वर्य निवास करता है, आलसी में नहीं। अत: बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि सुख ये दुख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो–जो प्राप्‍त हो जाय, उसका हृदय से स्‍वागत करे, कभी हिम्‍मत न हारे।

शोक के हजारों स्‍थान है और भय के सैकड़ों स्‍थान हैं, किंतु वे प्रतिदिन मूर्खों पर ही प्रभाव डालते हैं, विद्वानों पर नहीं। जो बुद्धिमान, ऊहापोह में कुशल एवं शिक्षित बुद्धिवाला, अध्‍यात्‍मशास्‍त्र के श्रवण इच्‍छा रखने वाला, किसी के दोष न देखने वाला, मन को वश में रखने वाला और जितेन्द्रिय है, उस मनुष्‍य को शोक कभी छू भी नहीं सकता। विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह इसी विचार का आश्रय लेकर मन को काम, क्रोध आदि शत्रुओं से सुरक्षित रखते हुए उत्तम बर्ताव करे। जो उत्‍पति और विनाश के तत्त्व को जानता है, उसे शोक छू नहीं सकता।[3]

जिसके कारण शोक, ताप अथवा दु:ख हो, या जिसके कारण अधिक श्रम उठाना पड़े, वह दुख का मूल कारण अपने शरीर का एक अंग भी हो तो उसे त्‍याग देना चाहिये। मनुष्‍य जब किसी भी पदार्थ में ममत्‍व कर लेता है, तब वे ही सब उसके वैसे दुख के कारण बन जाते है। वह कामनाओं में से जिस–जिस का परित्‍याग कर देता है, वहीं उसके सुख की पूर्ति करने वाली हो जाती है। उसे पुरुष कामनाओं का अनुसरण करता है, वह उन्‍हीं के पीछे नष्‍ट हो जाता है।

संसार में जो कुछ इस लोक के भोगों का सुख है और जो स्‍वर्ग का महान सुख है, वे दोनों तृष्‍णक्षय से होने वाले सुख की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। मनुष्‍य बुद्धिमान हो, मूर्ख हो अथवा शूरवीर हो, उसने पूर्वजन्‍म में जैसा शुभ या अशुभ कर्म किया है, उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ता है। इस प्रकार जीवों को प्रिय–अप्रिय और सुख–दुख की प्राप्ति बार–बार क्रम से होती ही रहती है, इसमें संदेह नहीं है। ऐसी बुद्धि का आश्रय लेकर कामनाओं के त्‍यागरूपी गुण से युक्‍त हुआ मनुष्‍य सुख से रहता है, इसलिये सब प्रकार के भोगों से विरक्‍त होकर उन्‍हें पीठ–पीछे कर दे, अर्थात उन से विमुख हो जाय। हृदय से उत्‍पन्‍न होने वाला यह काम हृदय मे ही पुष्‍ट होता है, फिर यही मृत्‍यु का रूप धारण कर लेता है। क्‍योंकि (जब इसकी सिद्धि में कोई बाधा आती है, तब) विद्वानों द्वारा यही प्राणियों के शरीर के भीतर क्रोध के नाम से पुकारा जाता है। कछुआ जैसे अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, उसी प्रकार यह जीव जब अपनी सब कामनाओं का संकोच कर देता है तब यह अपने विद्ध अन्‍त:करण में ही स्‍वयं प्रकाशस्‍वरूप परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर लेता है।

जब यह किसी से भय नहीं मानता और इससे भी किसी को भय नहीं होता, तथा जब यह किसी वस्‍तुओं न तो चाहता है और न उससे द्वेष ही करता है, तब परब्रह्म परमात्‍मा को प्राप्‍त कर लेता है। जब यह साधक सत्‍य और असत्‍य अर्थात जगत के व्‍यक्‍त और अव्‍यक्‍त पदार्थों का, शोक और हर्ष का, भय और अभय का तथा प्रिय और अप्रिय आदि समस्‍त द्वन्‍दों का परित्‍याग कर देता है, तब उसका चित शांत हो जाता है।

जब धैर्यसम्‍पन्‍न ज्ञानवान पुरुष किसी भी प्राणी के प्रतिमन, वाणी और क्रिया द्वारा पापपूर्ण बर्ताव नहीं करता, तब परब्रह्म परमात्‍मा को प्राप्‍त कर लेता है। खोटी बुद्धि वाले मनुष्‍यों के लिये जिसका त्‍याग करना कठिन है, जो मनुष्‍य के जीर्ण (वृद्ध) हो जाने पर भी स्‍वंय कभी जीर्ण नहीं होती, तथा जो प्राणों के साथ जाने वाला रोग बनकर रहती है, उस तृष्‍णा को जो त्‍याग देता है, उसी को सुख मिलता है। राजन, इस विषय में पिङग्ला की गायी हुई गाथाएं सुनी जाती हैं, जिसके अनुसार चलकर संकटकाल में भी उसने सनातन धर्म को प्राप्‍त कर लिया था। एक बार पिंग्ला वेश्‍या बहुत देर तक संकेत स्‍थान पर बैठी रहीं, तब भी उसका प्रियतम उसके पास नहीं आया, इससे वह बड़े कष्‍ट में पड़ गयी, तथापि शांत रहकर इस प्रकार विचार करने लगी।[4]

पिङग्‍ला बोली- मेरे सच्‍चे प्रियतम चिरकाल से मेरे निकट ही रहते हैं। मैं सदा से उनके साथ ही रहती आयी हुँ। वे कभी उन्‍मत नहीं होते; परंतु मैं ऐसी मतवाली हो गयी थी कि आज से पहले उन्‍हें पहचान ही न सकी। जिसमें एक ही खंभा और नौ दरवाजे हैं, उस शरीर रूपी घर को आज से मैं दूसरों के लिये बंद कर दूंगी। यहाँ आने वाले उस सच्‍चे प्रियतम को जानकर भी कौन नारी किसी हाड़–मांस के पुतले को अपना प्राणवल्‍लभ मानेगी?

अब मैं मो‍हनिद्रा से जग गयी हूँ और निरंतर सजग हूँ- कामनाओं का भी त्‍याग कर चुकी हूँ। अत: वे नरकरूपी धूर्त मनुष्‍य काम का रूप धारण करके अब मुझे धोखा नहीं दे सकेंगे। भाग्‍य से अथवा पूर्वकृत शुभकर्मों के प्रभाव से कभी–कभी अनर्थ भी अर्थरूप हो जाता है, जिससे आज निराश होकर मैं उत्तम ज्ञान से सम्‍पन्‍न हो गयी हूँ।

अब मैं अजितेन्द्रिय नहीं रही हूँ। वास्‍तव में जिसे किसी प्रकार की आशा नहीं है, वही सुख से सोता है। आश का न होना ही परम सुख है। देखो, आशा को निराश के रूप में परिणत करके पिंग्ला सुख की नींद सोने लगी। भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! ब्राह्मण के कहे हुए इन पूर्वोक्‍त तथा अन्‍य युक्तियुक्‍त वचनों से राजा सुनजित का चित स्थिर हो गया। वे शोक छोड़कर सुखी हो गये और प्रसन्‍नतापूर्वक रहने लगे।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 174 श्लोक 1-13
  2. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 174 श्लोक 14-27
  3. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 174 श्लोक 28-42
  4. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 174 श्लोक 43-57
  5. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 174 श्लोक 58-63

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राजधर्मानुशासन पर्व
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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का 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वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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