योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति

महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 306 के अनुसार योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वसिष्ठ से जनक का अनुरोध

जनक ने पूछा- मुनिश्रेष्‍ठ! आपने क्षर को अनेक रूप और अक्षर को एकरूप बताया; किंतु इन दोनों के तत्त्व का जो निर्णय किया गया है, उसे मैं अब भी संदेह की दृष्टि से ही देखता हूँ। निष्‍पाप महर्षे! जिसे अज्ञानी पुरुष (अनेक रूपमें) और ज्ञानी पुरुष एक रूप में जानते हैं, उस परमात्‍मा का तत्‍व मैं अपनी स्‍थूल बुद्धि के कारण समझ नहीं पाता हूँ। मेरे उस कथन में तनिक भी संशय नहीं है। अनघ! यद्यिप आपने क्षर और अक्षर को समझाने के लिये अनेक प्रकार की युक्तियाँ बतायी हैं तथापि मेरी बुद्धि अस्थिर होने के कारण मैं उन सारी युक्तियों को मानो भूल गया हूँ। इसलिये इस नानात्‍व और एकत्‍व–रूप दर्शन को मैं पुन: सुनना चाहता हूँ। बुद्ध (ज्ञानवान्) क्‍या है? अप्रतिबुद्ध (ज्ञानहीन) क्‍या है? तथा बुद्धयमान (ज्ञेय) क्‍या है? यह ठीक-ठीक बताइये। भगवन् मैं विद्या, अविद्या, अक्षर और क्षर तथा सांख्‍य और योग को पृथक्-पृथक् पूर्णरूप से समझना चाहता हूँ।

वसिष्‍ठ जी ने कहा— महाराज! तुम जो-जो बातें पूछ रहे हो, मैं उन सबका भली-भाँति उत्‍तर दूँगा। इस समय योगसम्‍बन्‍धी कृत्‍य का पृथक् ही वर्णन कर रहा हूँ, सुनो। योगियों के लिये प्रधान कर्तव्‍य है ध्‍यान। वही उनका परम बल है। योग के विद्वान् उस ध्‍यान को दो प्रकार का बतलाते हैं— एक तो मन की एकग्रता और दूसरा प्राणायाम। प्राणायाम के भी दो भेद हैं—सगुण और निर्गुण। इनमें से जिस प्राणायाम में मन का सम्‍बन्‍ध सगुण के साथ रहता है, वह सगुण प्राणायाम है और जिसमें मन का सम्‍बन्‍ध निर्गुण के साथ रहता है, वह निर्गुण प्राणायाम है। नरेश्‍वर! मलत्‍याग, मूत्रत्‍याग और भोजन—इन तीन कार्यों में जो समय लगता है, उसमें योग का अभ्‍यास न करे। शेष समय में तत्‍परतापूर्वक योग का अभ्‍यास करना चाहिये। बुद्धिमान् योगीको चाहिये कि पवित्र हो मनके द्वारा श्रोत्र आदि इन्द्रियों को शब्‍द आदि विषयों से हटावे एवं बाईस[2] प्रकार की प्रेरणाओं द्वारा उस जरारहित जीवात्‍मा को, जिसे मनीषी पुरुषों ने आत्‍मस्‍वरूप बताया है, चौबीस तत्‍वों के समुदायरूप प्रकृति से परे परम पुरुष परमात्‍मा की और प्रेरित करे। हमने गुरुजनों के मुख से सुना है कि जो लोग इस प्रकार प्राणायाम करते हैं, वे सदा ही परब्रह्म परमात्‍मा के जानने के अधिकारी होते हैं। जिसका मन सदा ध्‍यान में संलग्‍न रहता है, ऐसे योगी के ही योग्‍य यह व्रत है अन्‍यथा बहिर्मुख चित्तवाले पुरुष के लिये यह नहीं है। यह निश्चितरूप से जानना चाहिये। योगी सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्‍त हो मिताहारी और जितेन्द्रिय बने तथा रात्रि के पहले और पिछले भाग में मन को आत्‍मा में एकाग्र करे।[1]

मिथिलेश्वर! जब योगी मन के द्वारा सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को और बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करके पत्‍थर की भाँति अविचल हो जाय, सूखे काठ की भाँति निष्‍कम्‍प और पर्वत की तरह स्थिर रहने लगे तभी शास्‍त्र के विधान को जानने वाले विद्वान पुरुष अपने अनुभव से ही उसको योगयुक्‍त कहते हैं। जिस समय वह न तो सुनता हैं, न सूँघता है, न स्‍वाद लेता है, न देखता है और न स्‍पर्श का ही अनुभव करता है, जब उसके मन में किसी प्रकार का संकल्‍प नहीं उठता तथा काठ की भाँति स्थित होकर वह किसी भी वस्‍तु का अभिमान या सुध-बुध नहीं रखता, उसी समय मनीषी पुरुष उसे अपने शुद्धस्‍वरूप को प्राप्‍त एवं योगयुक्‍त कहते हैं। उस अवस्‍था में वह वायुरहित स्‍थान में रखे हुए निश्‍चल भाव से प्रज्‍वलित दीपक की भाँति प्रकाशित होता है। लिंग शरीर से उसका कोई सम्‍बन्‍ध नहीं रहता। वह ऐसा निश्‍चल हो जाता है कि उसकी ऊपर-निचे अथवा मध्‍य में कहीं भी गति नहीं होती। जिनका साक्षात्‍कार कर लेने पर मनुष्‍य कुछ बोल नहीं पाता, योगकाल में योगी उसी परमात्‍मा को देखे। वत्‍स! मुझे-जैसे लोगों को अपने-अपने हृदय में स्थित सब के ज्ञाता अन्‍तरात्‍मा का ही ज्ञान प्राप्‍त करना उचित है। ध्‍याननिष्‍ठ योगी को अपने हृदय में उसी प्रकार परमात्‍मा का साक्षात् दर्शन होता है जैसे धूमरहित अग्नि का, किरणमालाओं से मण्डित सूर्य का तथा आकाश में विद्युत् के प्रकाश का दर्शन होता है। धैर्यवान्, मनीषी, ब्रह्माबोधक शास्‍त्रों में निष्‍ठा रखने वाले और महात्‍मा ब्राह्मण ही उस अजन्‍मा एवं अमृतस्‍वरूप ब्रह्म का दर्शन कर पाते हैं। वह ब्रह्म अणु से भी अणु और महान् से भी महान् कहा गया है। सम्‍पूर्ण प्राणियों के भीतर वह अन्‍तर्यामीरूप से अवश्‍य स्थिर रहता हे तथापि किसी को दिखायी नहीं देता है। सूक्ष्‍म बुद्धिरूप धन-सम्‍पन्‍न पुरुष ही मनोमय दीपक के द्वारा उस लोकस्‍त्रष्‍ठा परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर सकते हैं। वह परमात्‍मा महान् अन्‍धकार से परे और तमोगुण से रहित है; इसलिये वेद के पारगामी सर्वज्ञ पुरुषों ने उसे तमोनुद (अज्ञान नाशक) कहा है। वह निर्मल, अज्ञानरहित लिंगहीन और अलिंग नाम से प्रसिद्ध (उपाधिशून्‍य) है। योगियों का योग है। इसके सिवा योग का क्‍या लक्षण हो सकता है। इस तरह साधना करने वाले योगी सब के द्रष्‍टा अजर-अमर परमात्‍मा का दर्शन करते हैं ।

तत्‍वों की उत्‍पत्ति का वर्णन

यहाँ तक मैंने तुम्‍हें यर्थारूप से योग-दर्शन की बात बतायी है, अब सांख्‍य का वर्णन करता हूँ; य‍ह विचारप्रधान दर्शन है। नृपश्रेष्‍ठ! प्रकृतिवादी विद्वान् मूल प्रकृति को अव्‍यक्‍त कहते हैं। उससे दूसरा तत्‍व प्रकट हुआ, जिसे महतत्‍व कहते हैं। महतत्‍व से अहंकार प्रकट हुआ, जो तीसरा तत्‍व है। ऐसा हमारे सुनने में आया है। अहंकार से पाँच सूक्ष्‍म भूतों की अर्थात् पंचतन्‍मात्राओं की उत्‍पत्ति हुई; यह सांख्‍यात्‍मदर्शी विद्वानों का कथन है। ये आठ प्रकृतियाँ हैं। इनसे सोलह तत्‍वों की उत्‍पत्ति होती है, जिन्‍हें विकार कहते हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन और पाँच स्‍थूलभूत- ये सोलह विकार हैं। इनमें से आकाश आदि पाँच तत्‍व और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ– ये विशेष कहलाते हैं। सांख्‍यशास्‍त्रीय विधि- विधान के ज्ञाता और सदा सांख्‍यमार्ग में ही अनुरक्‍त रहने वाले मनीषी पुरुष इतनी ही सांख्‍यसम्‍मत तत्‍वों की संख्‍या बतलाते हैं। अर्थात् अव्‍यक्‍त, महतत्‍व, अहंकार तथा पंचतन्‍मात्रा- इन आठ प्रकृतियों सहित उपर्युक्‍त सोलह विकार मिलकर कुल चौबीस तत्‍व सांख्‍यशास्‍त्र के विद्वानों ने स्‍वीकार किये हैं।[3]

जो तत्त्व जिससे उत्‍पन्‍न होता है, वह उसी में लीन भी होता है। अनुलोमक्रम से उन तत्‍वों की उत्‍पत्ति होती है (जैसे प्रकृति से महतत्‍व, महतत्‍व से अंहकार, अहंकार से सूक्ष्‍म भूत आदि के क्रम से सृष्टि होती है); परंतु उनका संहार विलोमक्रम से होता है (अर्थात् पृथ्‍वी का जल में, जल का तेज में और तेज का वायु में लय होता है। इस तरह सभी तत्‍व अपने-अपने कारण में लीन होते हैं)। ये सभी तत्‍व अन्‍तरात्‍मा द्वारा ही रचे जाते हैं । जैसे समुद्र में उठी हुई लहरें फिर उसी में शान्‍त हो जाती हैं, उसी प्रकार सम्‍पूर्ण गुण (तत्‍व) सदा अनुलोमक्रम से उत्‍पन्‍न होते और विलोमक्रम से अपने कारणभूत गुणों (तत्‍व) में ही लीन हो जाते हैं। नृपश्रेष्‍ठ! इतना ही प्रकृति के सर्ग और प्रलय का विषय है। प्रलयकाल में इसका एकत्‍व है और जब रचना होती है, तब इसके बहुत भेद हो जाते हैं। राजेन्‍द्र! ज्ञाननिपुण पुरुषों को इसी प्रकार प्रकृति का एकत्‍व और नानात्‍व जानना चाहिये। अव्‍यक्‍त प्रकृति ही अधिष्‍ठाता पुरुष को सृष्टिकाल में नानात्‍व की ओर ले जाती है। यही पुरुष के एकत्‍व का निदर्शन है। अर्थतत्‍व के ज्ञाता पुरुष को यह जानना चाहिये कि प्रलयकाल में प्रकृति में भी एकता और सृष्टिकाल में अनेकता रहती है। इसी प्रकार पुरुष भी प्रलयकाल में एक ही रहता है; किंतु सृष्टिकाल में प्रकृति का प्रेरक होने के कारण उसमें नानात्‍व का आरोप हो जाता है। परमात्‍मा ही प्रसवात्मिका प्रकृति को नाना रूपों में परिणत करता है। प्रकृति और उसके विकार को क्षेत्र कहते हैं। चौबीस तत्‍वों से भिन्‍न जो पचीसवाँ तत्‍व महान् आत्‍मा है, वह क्षेत्र में अधिष्‍ठातारूप से निवास करता है। राजेन्‍द्र! इसीलिये यतिशिरोमणि उसे अधिष्‍ठाता कहते हैं। क्षेत्रों का अधिष्‍ठान होने के कारण वह अधिष्‍ठाता है, ऐसा हमने सुन रखा है।

वह अव्‍यक्‍तसंज्ञक क्षेत्र (प्रकृति) को जानता है, इसलिये क्षेत्रज्ञ कहलाता है और प्राकृत शरीररूपी पुरों में अन्‍तर्यामीरूप से शयन करने के कारण उसे ‘पुरुष’ कहते हैं। वास्‍तव में क्षेत्र अन्‍य वस्‍तु है और क्षेत्रज्ञ अन्‍य। क्षेत्र अव्‍यक्‍त कहा गया है और क्षेत्रज्ञ उसका ज्ञाता पचीसवाँ तत्‍व आत्‍मा है। ज्ञान अन्‍य वस्‍तु है और ज्ञेय उससे भिन्‍न कहा जाता है। ज्ञान अव्‍यक्‍त कहा गया है और ज्ञेय पचीसवाँ तत्‍व आत्‍मा है। अव्‍यक्‍त को क्षेत्र कहा गया है। उसी को सत्त्व (बुद्धि) और शासक की भी संज्ञा दी गयी है; परंतु पचीसवाँ तत्‍व परमपुरुष परमात्‍मा जड तत्‍व और ईश्‍वर से रहित भिन्‍न है। इतना ही सांख्‍यदर्शन है। सांख्‍यके विद्वान् तत्‍वों की संख्‍या (गणना) करते और प्रकृति को ही जगत् का कारण बताते हैं। इसीलिये इस दर्शन का नाम सांख्‍यदर्शन है। सांख्‍यवेत्‍ता पुरुष प्रकृतिसहित चौबीस तत्‍वों की परिगणना करके परमपुरुषो को जड तत्‍वों से भिन्‍न पचीसवाँ निश्चित करते हैं। वह पचीसवाँ प्रकृतिरूप नहीं है। उससे सर्वथा भिन्‍न ज्ञानस्‍वरूप माना गया है। जब वह अपने-आपको प्रकृति से भिन्‍न नित्‍यचिन्‍मय जान लेता है, उस समय केवल हो जाता है अर्थात् अपने विशुद्ध परब्रह्मारूप में स्थित हो जाता है। इस प्रकार मैंने तुमसे यह सम्‍यग्‍दर्शन (सांख्‍य) का यथावत् रूप से वर्णन किया है। जो इसे इस प्रकार जानते हैं, वे शान्‍तस्‍वरूप ब्रह्मा को प्राप्‍त होते हैं। प्रकृति-पुरुषका प्रत्‍यक्ष-दर्शन (अपरोक्ष-अनुभव) ही सम्‍यग्‍दर्शन है। ये जो गुणमय तत्‍व हैं, इनसे भिन्‍न परमपुरुष परमात्‍मा निर्गुण हैं।[4]

शत्रुदमन नरेश! जिनकी बुद्धि नानात्‍व का दर्शन करती है, उन्‍हें सम्‍यक्-ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। ऐसे लोगों को बारंबार शरीर धारण करना पड़ता है। जो इस सारे प्रपंच को ही जानते हैं, वे इससे भिन्‍न परमात्‍मा का तत्‍व न जानने के कारण निश्‍चय ही शरीरधारी होंगे और शरीर तथा काम-क्रोध आदि दोषों के वशवर्ती बने रहेंगे। ‘सर्व’ नाम है अव्‍यक्‍त प्रकृति का और उससे भिन्‍न पचीसवें तत्‍व परमात्‍मा को असर्व कहा गया है। जो उन्‍हें इस प्रकार जानते हैं, उन्‍हें आवागमन का भय नहीं होता है।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 306 श्लोक 1-13
  2. जैसे घड़े में जल भरा जाता है, उसी प्रकार पादांगुष्‍ठ से लेकर मूर्धातक सम्‍पूर्ण शरीर में नासिका के छिद्रों द्वारा वायु को खींचकर भर ले। फिर ब्रह्मरन्‍ध्र (मूर्धा) से वायु को हटाकर ललाट में स्‍थापित करे। यह प्राणवायु के प्रत्‍याहार का पहला स्‍थान है। इसी प्रकार उत्‍तरोत्‍तर हटाते और रोकते हुए क्रमश: भ्रूमध्‍य, नेत्र, नासिकामूल, जिहवामूल, कण्‍ठकूप, हृदयमध्‍य, नाभिमध्‍य, मेढ्र (उपस्‍थका मूल भाग), उदर, गुदा, ऊरुमूल, ऊरुमध्‍य, जानु, चितिमूल, जंघामध्‍य, गुल्‍फ और पादांगुष्‍ठ— इन स्‍थानों में वायु को ले जाकर स्‍थापित करे। इन अट्ठारह स्‍थानों में किये हुए प्रत्‍याहारों को अट्ठारह स्‍थानो में किये हुए प्रत्‍याहारों को अट्ठारह प्रकार की प्रेरणा समझना चाहिये। इनके सिवा ध्‍यान, धारणा, समाधि तथा ‘सत्‍वपुरुषान्‍यता ख्‍याति’ (बुद्धि और पुरुष इन दोनों की भिन्‍नता का बोध)— ये चार प्रेरणाएँ और हैं। ये ही सब मिलकर बाईस प्रकार की प्रेरणाएँ कही गयी हैं।
  3. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 306 श्लोक 14-30
  4. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 306 श्लोक 31-46
  5. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 306 श्लोक 47-50

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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को 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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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