राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर

महाभारत शान्ति पर्व के मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 298वें अध्याय में विभिन्न प्रकार के धर्म व कर्तव्यों के उपदेश का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

पराशर द्वारा राजा जनक के प्रश्‍नों का उत्‍तर देना

भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्‍तर मिथिला नरेश जनक ने उन धर्म के विषय में उत्‍तम निश्‍चय रखने वाले महात्‍मा पराशर मुनि से इस प्रकार पूछा। जनक बोले- ब्रह्मन! श्रेय का साधन क्‍या है? उत्‍तम गति कौन-सी है? कौन-सा कर्म नष्ट नहीं होता तथा कहाँ गया हुआ जीव फिर इस संसार में नहीं लौटता है? महामते! मेरे इन प्रश्‍नों का समाधान कीजिये।

पराशर जी ने कहा- राजन्! आसक्ति का अभाव ही श्रेय का मूल कारण है। ज्ञान ही सबसे उत्‍तम गति है। स्‍वयं किया हुआ तप तथा सुपात्र को दिया हुआ दान- ये कभी नष्ट नहीं होते। जो मनुष्‍य जब अधर्ममय बन्‍धन का उच्‍छेद करके धर्म में अनुरक्‍त हो जाता और सम्‍पूर्ण प्राणियों को अभयदान कर देता है, उसे उसी समय उत्‍तम सिद्धि प्राप्‍त होती है। जो एक हजार गौ तथा एक सौ घोड़े दान करता है तथा दूसरा जो सम्‍पूर्ण भूतों को अभयदान देता है, वह सदा गौ और अश्‍वदान करने वाले से बढ़ा-चढ़ा रहता है। बुद्धिमान पुरुष विषयों के बीच में रहता हुआ भी (असंग होने के कारण) उनमें नहीं रहने के बाराबर ही है; किंतु जिसकी बुद्धि दूषित होती है, वह विषयों के निकट न होने पर भी सदा उन्‍हीं में रहता है। जैसे पानी कमल के पत्‍ते को लिपायमान नहीं कर सकता, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुषों को अधर्म लिप्‍त नहीं कर सकता; परंतु जैसे लाह काठ में चिपक जाती है, उसी प्रकार पाप अज्ञानी मनुष्‍य में अधिक लिप्‍त हो जाता है। अधर्म फल प्रदान के अवसर की प्रतीक्षा करने वाला है, अत: वह कर्ता का पीछा नहीं छोड़ता। समय आने पर उस कर्ता को उस पाप का फल अवश्‍य भोगना पड़ता है। पवित्र अन्‍त:करण वाले आत्‍मज्ञानी पुरुष कर्मों के शुभाशुभ फलों से कभी विचलित नहीं होते हैं। जो प्रमादवश ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों द्वारा होने वाले पापों पर विचार नहीं करता तथा शुभ एवं अशुभ में आसक्‍त रहता है, उसे महान भय की प्राप्ति होती है। परंतु जो वीतराग होकर क्रोध को जीत लेता और नित्‍य सदाचार का पालन करता है, वह विषयों में वर्तमान रहकर भी पापकर्म से संबंध नहीं जोड़ता है। जैसे नदी में बँधा हुआ मजबूत बाँध टूटता नहीं है और उसके कारण वहाँ जल का स्त्रोत बढ़ता रहता है, उसी प्रकार मर्यादा पर बँधा हुआ धर्मरूपी बाँध नष्ट नहीं होता है तथा उससे आसक्ति रहित संचित तप की वृद्धि होन लगती है।

नृपश्रेष्ठ! जिस प्रकार शुद्ध सूर्यकान्‍तमणि सूर्य के तेज को ग्रहण कर लेती है, उसी प्रकार योग का साधक समाधि के द्वारा ब्रह्म के स्‍वरूप को ग्रहण करता है। जैसे तिल का तेल भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के सुगन्धित पुष्‍पों से वासित होकर अत्‍यन्‍त मनोरम गन्‍ध ग्रहण करता है, वैसे ही पृथ्‍वी पर शुद्ध चित्‍त पुरुषों का स्‍वभाव सत्‍पुरुषों के संग के अनुसार सत्त्वगुण सम्‍पन्‍न हो जाता है। जिस समय मनुष्‍य सर्वोत्‍तम पद पाने के लिये उत्‍सुक हो जाता है, उस समय उसकी बुद्धि विषयों से विलग हो जाती है तथा वह स्त्री, सम्‍पत्ति, पद, वाहन और नाना प्रकार की जो क्रियाऍं हैं, उनका भी परित्‍याग कर देता है।[1] परंतु जिसकी बुद्धि विषयों में आसक्‍त हो जाती है, वह मनुष्‍य किसी तरह अपने हित की बात नही समझता। राजन्! जैसे मछली काँटे में गुँथे हुए मांस पर आकृष्ट होती है और दुख पाती है, उसी तरह वह सब प्रकार की वासनाओं से वासित चित्त के द्वारा विषयों की ओर आकृष्ट होता है और दुख भोगता है। जैसे शरीर के अंग-प्रत्‍यंग एक-दूसरे के आश्रित हैं, उसी प्रकार यह मर्त्‍यलोक स्त्री-पुत्र और पशु आदि का समुदाय आपस में एक-दूसरे पर अवलम्बित है। यह संसार केले के भीतरी भाग के समान निस्‍सार है। जैसे नौका पानी में डूब जाती है, उसी प्रकार यह सब कुछ काल के प्रवाह में‍ निमग्‍न हो जाता है। पुरुष के लिये धर्म करने का कोई विशेष समय निश्चित नहीं है; क्‍योंकि मृत्‍यु किसी की बाट नहीं जोहती। जब मनुष्‍य सदा मौत के मुख में ही है, तब नित्‍य-निरन्‍तर धर्म का आचरण करते रहना ही उसके लिये शोभा की बात है। जैसे अन्‍धा प्रतिदिन के अभ्‍यास से ही सावधानी के साथ बाहर से अपने घर में आ जाता है, उसी प्रकार विवेकी मनुष्‍य योगयुक्‍त चित्‍त के द्वारा उस परम गति को प्राप्‍त कर लेता है।[2]

जन्‍म में मृत्‍यु की स्थिति बतायी गयी है और मृत्‍यु में जन्‍म निहित है। जो मोक्ष-धर्म को नहीं जानता, वह अज्ञानी मनुष्‍य संसार में आबद्ध होकर जन्‍म-मृत्‍यु के चक्र में घूमता रहता है; किंतु ज्ञानमार्ग से चलने वाले को इहलोक और परलोक में भी सुख मिलता है। कर्मों का विस्‍तार क्‍लेशयुक्‍त होता है और संक्षेप सुखदायक है। सभी कर्म-विस्‍तार परार्थ हैं अर्थात मन और इन्द्रियों की तृप्ति के लिये हैं; परंतु त्‍याग अपने लिये हितकर माना गया है। जैसे (पानी से निकालते समय) कमल की नाल में लगी हुई कीचड़ पानी से तुरंत धुल जाती है, उसी प्रकार त्‍यागी पुरुष का आत्‍मा मन के द्वारा संसार बन्‍धन से मुक्‍त हो जाता है। मन आत्‍मा को योग की ओर ले जाता है। योगी इस मन को योगयुक्‍त (आत्‍मा में लीन) करता है। इस प्रकार जब वह योग में सिद्धि प्राप्‍त कर लेता है, तब वह उस परमात्‍मा का साक्षात्‍कार कर लेता है। जो पर के लिये अर्थात इन बाह्यइन्द्रियों की तृप्ति के लिये विषयभोगों में प्रवृत होकर इसे अपना मुख्‍य कार्य समझता है, वह अपने वास्‍तविक कर्तव्‍य से च्‍युत हो जाता है। इहलोक में बुद्धिमान हो या मूढ़, उसकी आत्‍मा अपने किये हुए कर्मों के अनुसार ही नरक को, पशु-पक्षी आदि योनियों को, स्‍वर्ग को और परम गति को प्राप्‍त होती है। जैसे पके हुए मिट्टी के बर्तन में रखा हुआ जल आदि तरल पदार्थ न तो छूता है और न नष्ट ही होता है, उसी प्रकार तपस्‍या से तपा हुआ सूक्ष्‍म शरीर ब्रह्मलोक तक के विषयों का अनुभव करता है। जो मनुष्‍य शब्‍द, स्‍पर्श आदि विषयों का उपभोग करता है, वह निश्‍चय ही ब्रह्मानन्‍द के अनुभव से वंचित्त रह जायगा, परंतु जो विषयों का परित्‍याग करता है, वह अवश्‍य ही ब्रह्मानन्‍द के अनुभव में समर्थ हो सकता है।[2] जैसे जन्‍म का अंधा रास्‍ते को नही देख पाता, वैसे ही शिश्‍नोदरपरायण एवं अज्ञान से आवृत जीव मायारूप कुहासा से आच्‍छन्‍न होने के कारण मोक्ष मार्ग को नहीं समझ पाता है। जैसे वैश्‍य समुद्रमार्ग से व्‍यापार करने जाकर अपने मूलधन के अनुसार द्रव्‍य कमाकर लाता है, उसी प्रकार संसार-सागर में व्‍यापार करने वाला जीव अपने कर्म एवं विज्ञान के अनुरूप गति पाता है।[3]

पराशर मुनि द्वारा जनक को उपदेश

दिन और रात्रिमय संसार में बुढ़ापा का रूप धारण करके घूमती हुई मृत्‍यु समस्‍त प्राणियों को उसी प्रकार खाती रहती है, जैसे सर्प हवा पीया करता है। जीव जगत में जन्‍म लेकर अपने पूर्वकृत कर्मों का ही फल भोगता है; पूर्वजन्‍म में कुछ किये बिना यहाँ कोई भी किसी इष्ट या अनिष्ट फल को नही पाता है। मनुष्‍य सोता हो, बैठा हो, चलता हो या विषय भोग में लगा हो, उसके शुभाशुभ कर्म सदा उसे प्राप्‍त होते रहते हैं। जैसे समुद्र के परले पार पहुँचकर पुन: कोई उसमें तैरने का विचार नहीं करता, उसी प्रकार संसार-सागर से पार हुए मनुष्‍य का फिर उसमें पड़ना अर्थात वापस आना दुर्लभ दिखायी देता है। जैसे गम्‍भीर जल में पड़ी हुई नौका नाविक द्वारा रस्‍सी से खींची जाने पर उसके मनोभाव के अधीन होकर चलती है, उसी प्रकार यह जीव इस शरीररूपी नौका को अपने मन के अभिप्रायानुसार चलाना चाहता है। जैसे बहुत-सी नदियाँ सब ओर से आकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार योग से वश में किया हुआ मन सदा के लिये मूल प्रकृति में लीन हो जाता है। जिनका मन नाना प्रकार के स्‍नेह-बन्‍धनों में जकड़ा हुआ है, वे प्रकृति में स्थित हुए जीव जल में ढह जाने वाले बालू के मकान की भाँति महान दुख से नष्टप्राय हो जाते हैं। शरीर ही जिसका घर है, जो बाहर-भीतर की पवित्रता को ही तीर्थ मानता है तथा बुद्धिपूर्वक कल्‍याण के मार्ग पर चलता है, उस देहधारी जीव को इहलोक और परलोक में भी सुख मिलता है। क्रियाओं का विस्‍तार क्‍लेशदायक होता है और संक्षेप सुखदायक है। सभी कर्म विस्‍तार परार्थरूप अर्थात मन और इन्द्रियों की तृप्ति के लिये होते हैं, परंतु त्‍याग अपने लिये हितकर माना गया है।

कोई-न-कोइ संकल्‍प (मनोरथ) लेकर ही लोग मित्र बनते हैं, कुटुम्‍बी जन भी किसी हेतु से ही नाता रखते हैं, पत्‍नी, पुत्र और सेवक सभी अपने-अपने स्‍वार्थ का ही अनुसरण करते हैं। माता और पिता भी परलोक-साधन में किसी की कुछ सहायता नहीं कर सकते। परलोक के पथ में तो अपना किया हुआ दान अर्थात त्‍याग ही राह खर्च का काम देता है। प्रत्‍येक जीव अपने कर्म का ही फल भोगता है। माता, पिता, पुत्र, भ्राता, भार्या और मित्रगण- ये सब सुवर्ण के सिक्‍कों के स्‍थान पर रखी हुई लाख की मुद्रा के समान देखे जाते हैं। पूर्वजन्‍म के किये हुए सम्‍पूर्ण शुभाशुभ कर्म जीव का अनुसरण करते हैं। इस प्रकार प्राप्‍त हुई परिस्थिति को अपने कर्मों का फल जानकर जिसका मन अन्‍तर्मुख हो गया है, वह अपनी बुद्धि को वैसी शुभ प्रेरणा देता है जिससे भविष्‍य में दुख न भोगना पड़े।[3] जो दृढ़ निश्‍चय एवं पूर्ण उद्योग का सहारा ले तदनुकूल सहायकों का संग्रह करता है, उसका कोई भी कार्य कभी भी व्‍यर्थ नहीं होता। जिसके मन में दुविधा नहीं होती, जो उद्योगी, शूरवीर, धीर और विद्वान होता है, उसे सम्‍पत्ति उसी तरह कभी नहीं छोड़ती, जैसे किरणें सूर्य को। जिसका हृदय उदार एवं प्रशस्‍त है, जो आस्तिक भाव, निश्‍चय एवं आवश्‍यक उपाय से गर्वहीनता के साथ उत्‍तम बुद्धिपूर्वक कार्य आरम्‍भ करता है, उसका वह कार्य कभी असफल नहीं होता। सभी जीव, पूर्वजन्‍म में उन्‍होंने जो कुछ किया है, उन अपने शुभाशुभ कर्मों के नियत फलों को गर्भ में प्रवेश करने के समय से ही क्रमश: पाने और भोगने लगते हैं। जैसे वायु आरे से चीरकर बनाये गये लकड़ी के चूरे को उड़ा देती है, उसी प्रकार कभी टाली न जा सकने वाली मृत्‍यु विनाशकारी काल की सहायता से मनुष्‍य का अन्‍त कर देती है। सब मनुष्‍य अपने किये हुए शुभाशुभ कर्म के अनुसार ही सुन्‍दर या असुन्‍दर रूप, अपने से होने वाले योग्‍य-अयोग्‍य पुत्र-पौत्र आदि का विस्‍तार, उत्‍तम या अधम कुल में जन्‍म तथा द्रव्‍य-समृद्धि का संचय आदि पाते हैं। भीष्‍म जी कहते हैं- राजन्! ज्ञानी महात्‍मा पराशर मुनि के मुख से इस यथार्थ उपदेश को सुनकर धर्मज्ञों में श्रेष्ठ राजा जनक बहुत प्रसन्‍न हुए।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 298 श्लोक 1-14
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 298 श्लोक 15-26
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 298 श्लोक 27-41
  4. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 298 श्लोक 42-47

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राजधर्मानुशासन पर्व
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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को 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आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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