इंद्र और प्रह्लाद का संवाद

महाभारत शान्ति पर्व में मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 222वें अध्याय में इंद्र और प्रह्लाद के संवाद का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

युधिष्ठिर ने पूछा- भारत! इस लोक में जो यह शुभ अथवा अशुभ कर्म होता है, वह पुरुष को उसके सुख-दु:खरूप फल भोगने मे लगा ही देता है; परंतु पुरुष उस कर्म का कर्ता है या नहीं, इस विषय में मुझे संदेह है; अत: पितामह! मैं आपके द्वारा इसका तत्त्वयुक्‍त समाधान सुनना चाहता हूँ।

प्रह्लाद का परिचय

भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में विज्ञ इन्‍द्र और प्रह्लाद के संवादरूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। प्रह्लाद जी के मन में किसी विषय के प्रति आसक्ति नहीं थी। उनके सारे पाप धुल गये थे। वे कुलीन और बहुत विद्वान् थे। वे गर्व और अहंकार से रहित थे। वे धर्म की मर्यादा के पालन में तत्‍पर और शुद्ध सत्त्वगुण में स्थित रहते थे। निन्‍दा और स्‍तुति को समान समझते, मन और इन्द्रियों को काबू में रखते और एकान्‍त स्‍थान में निवास करते थे। उन्‍हें चराचर प्राणियों की उत्‍पत्ति और विनाश का ज्ञान था। अप्रिय की प्राप्ति में क्रोधयुक्‍त तथा प्रिय की प्राप्ति होने पर हर्षयुक्‍त नहीं होते थे। मिट्टी के ढेले और सुवर्ण दोनों में उनकी समानदृष्टि थी। वे ज्ञानस्‍वरूप कल्‍याणमय परमात्‍मा के ध्‍यान में स्थित और धीर थे। उन्‍हें परमात्‍मतत्त्व का पूर्ण निश्‍चय हो गया था। उन्‍हें परावरस्‍वरूप पूर्ण निश्‍चय हो गया था। उन्‍हें परावरस्‍वरूप ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान था। वे सर्वज्ञ, सम्‍पूर्णभूत प्राणियों में समदर्शी एवं जितेन्द्रिय थे। वे भगवान नारायण के प्रिय भक्‍त और सदा उन्‍हीं के चिन्‍तन में तत्‍पर रहने वाले थे।

इंद्र और प्रह्लाद का संवाद

हिरण्‍यकशिपु नन्‍दन प्रह्लाद जी को एकान्‍त में बैठकर परमात्‍मा श्रीहरि का ध्‍यान करते देख इन्‍द्र उनकी बुद्धि और विचार को जानने की इच्‍छा से उनके निकट जाकर इस प्रकार बोले। ‘दैत्‍यराज! संसार में जिन गुणों को पाकर कोई भी पुरुष सम्‍मानित हो सकता है, उन सबको मैं आपके भीतर स्थिरभाव से स्थित देखता हूँ। ‘आपकी बुद्धि बालकों के समान राग-द्वेष से रहित दिखायी देता है। आप आत्‍मा का अनुभव करते हैं, इसलिये आपकी ऐसी स्थिति है; अत: मैं पूछता हूँ कि इस जगत में आप किसको आत्‍मज्ञान का सर्वश्रेष्ठ साधन मानते हैं? आप रस्सियों से बाँधे गये, अपने राज्‍य से भ्रष्ट हुए और शत्रुओं के वश में पड़ गये थे। आप अपनी राज्‍यलक्ष्‍मी से वंचित हो गये। प्रह्लाद जी! ऐसी शोचनीय स्थिति में पड़ जाने पर भी आप शोक नहीं कर रहे हैं? ‘प्रहलाद जी! आप अपने ऊपर संकट आया देखकर भी निश्चिन्‍त कैसे हैं? दैत्‍यराज! आपकी यह स्थिति आत्‍मज्ञान के कारण है या धैर्य के कारण?’ इन्‍द्र के इस प्रकार पूछने पर परमात्‍मतत्त्व को निश्चितरूप से जानने वाले धीर बुद्धि प्रह्लाद जी ने अपने ज्ञान का वर्णन करते हुए मधुर वाणी में कहा।

प्रह्लाद जी बोले- देवराज! जो प्राणियों की प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानता, उसी को अविवेक के कारण स्‍तम्‍भ (जडता या मोह) होता है। जिसे आत्‍मा का साक्षात्‍कार हो गया है, उसको कभी मोह नहीं होता।[1] सब तरह के भाव और अभाव स्‍वभाव से ही आते-जाते रहते हैं। उसके लिये पुरुष का कोई प्रयत्‍न नहीं होता। पुरुष का प्रयत्‍न न होने से कोई पुरुष कर्ता नहीं हो सकता; परंतु स्‍वयं कभी न करते हुए भी उसे इस जगत में कर्तापन का अभिमान हो जाता है। जो आत्‍मा को शुभ या अशुभ कर्मों का कर्ता मानता है, उसकी बुद्धि दोष से युक्‍त और तत्त्वज्ञान से रहित है ऐसी मेरी मान्‍यता है। इन्‍द्र! यदि पुरुष ही कर्ता होता हो वह अपने कल्‍याण के लिये जो कुछ भी करता, उसके भी सारे कार्य अवश्‍य सिद्ध होते। उसे अपने प्रयत्‍न में कभी पराभव नहीं प्राप्‍त होता। परंतु देखा यह जाता है कि इष्ट सिद्धि के लिये प्रयत्‍न करने वालों को अनिष्ट की भी प्राप्ति होती है और इष्ट की सिद्धि से वे वंचित रह जाते हैं; अत: पुरुषार्थ की प्रधानता कहाँ रही? कितने ही प्राणियों को बिना किसी प्रयत्‍न के ही हमलोग अनिष्ट की प्राप्ति और इष्ट का निवारण होते देखते हैं। यह बात स्‍वभाव से ही होती है। कितने ही सुन्‍दर और अत्‍यन्‍त बुद्धिमान पुरुष भी कुरूप और अल्‍पबुद्धि मनुष्‍यों से धन पाने की आशा करते देखे जाते हैं। जब शुभ और अशुभ सभी प्रकार के गुण स्‍वभाव की ही प्रेरणा से प्राप्‍त होते हैं, तब किसी को भी उन पर अभिमान करने का क्‍या कारण है? मेरी तो यह निश्चित धारणा है कि स्‍वभाव से ही सब कुछ प्राप्‍त होता है। मेरी आत्‍मनिष्ठ बुद्धि भी इसके विपरीत विचार नहीं रखती। यहाँ पर जो शुभ और अशुभ फल की प्राप्ति होती है, उसमें लोग कर्म को ही कारण मानते हैं; अत: मैं तुमसे कर्म के विषय का ही पूर्णतया वर्णन करता हूँ, सुनो।[2]

प्रह्लाद द्वारा कर्म का वर्णन करना

जैसे कोई कौआ कहीं गिरे हुए भात को खाते समय काँव-काँव करके अन्‍य काकों को यह जता देता है कि यहाँ अन्‍न है, उसी प्रकार समस्‍त कर्म अपने स्‍वभाव को ही सूचित करने वाले हैं। जो विकारों (कार्यों) को ही जानता है, उनकी परम प्रकृति (स्‍वभाव) को नहीं जानता, उसी को अविवेक के कारण मोह या अभिमान होता है। जो इस बात को ठीक-ठीक समझता है, उसे मोह नहीं होता। सभी भाव स्‍वभाव से ही उत्‍पन्‍न होते हैं।

इस बात को जो निश्चितरूप से जान लेता है, उसका दर्प या अभिमान क्‍या बिगाड़ सकता है? इन्‍द्र! मैं धर्म की पूरी-पूरी विधि तथा संपूर्ण भूतों की अनित्‍यता को जानता हूँ। इसलिये ‘यह सब नाशवान है’ ऐसा समझकर किसी के लिये शोक नहीं करता। ममता, अहंकार तथा कामनाओं से शून्‍य और सब प्रकार के बन्‍धनों से रहित हो आत्‍मनिष्ठ एवं अंसग रहकर मै प्राणियों की उत्‍पत्ति और विनाश को सदा देखता रहता हूँ। इन्‍द्र! मैं शुद्ध बुद्धि तथा मन और इन्द्रियों को अपने अधीन करके स्थित हूँ। मैं तृष्‍णा और कामना से रहित हूँ और सदा अविनाशी आत्‍मा पर ही दृष्टि रखता हूँ, इसलिये मुझे कभी कष्ट नहीं होता।[2] प्रकृति और उसके कार्यों के प्रति मेरे मन में न तो राग है, न द्वेष। मैं किसी को न अपना द्वेषी समझता हूँ और न आत्‍मीय ही मानता हूँ। इन्‍द्र! मुझे ऊपर (स्‍वर्ग की), नीचे (पाताल की) तथा बीच लोक (मर्त्‍यलोक) की भी कभी कामना नहीं होती। ज्ञान विज्ञान और ज्ञेय की निमित्‍त भी मेरे लिये कोई कर्म आवश्‍यक नहीं है।[3]

इन्‍द्र ने कहा- प्रह्लाद जी! जिस उपाय से ऐसी बुद्धि और इस तरह की शान्ति प्राप्‍त होती है, उसे पूछता हूँ। आप मुझे अच्‍छी तरह उसे बताइये।

प्रह्लाद ने कहा- इन्‍द्र! सरलता, सावधानी, बुद्धि की निर्मलता, चित्‍त की स्थिरता तथा बड़े बूढ़ों की सेवा करने से पुरुष को महत पद की प्राप्ति होती है। इन गुणों को अपनाने पर स्‍वभाव में ज्ञान प्राप्‍त होता है, स्‍वभाव से ही शान्ति मिलती है तथा जो कुछ भी तुम देख रहे हो, सब स्‍वभाव से ही प्राप्‍त होता है। राजन! दैत्‍यराज प्रह्लाद के इस प्रकार कहने पर इन्‍द्र को बड़ा विस्‍मय हुआ। उन्‍होंने बहुत प्रसन्‍न होकर उनके वचनों की प्रशंसा की। इतना ही नही, त्रिलोकीनाथ देवेश्‍वर इन्‍द्र ने उस समय दैत्‍यों और असुरों के स्‍वामी पह्लाद का पूजन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे अपने निवास स्‍थान स्‍वर्गलोक को चले गये।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 4
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 5
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 222 भाग 6

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राजधर्मानुशासन पर्व
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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को 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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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