वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश

महाभारत शान्ति पर्व के मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 280वें अध्याय में वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश देने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

शुक्राचार्य, वृत्रासुर और सनत्कुमार का संवाद

शुक्राचार्य ने कहा- तात! आकाशसहित यह सारी पृथ्वी जिनकी भुजाओं के बल पर स्थित है, महान् प्रभावशाली उन भगवान विष्णुदेव को नमस्कार है। दानवश्रेष्ठ! जिनका मस्तक और स्थान भी अनंत है, उन भगवान विष्णु का उत्तम माहात्म्य मैं तुम्हें बताऊँगा। शुक्राचार्य और वृत्रासुर में ये बातें हो ही रही थीं कि वहाँ महामुनि धर्मात्मा उनके संशय का निवारण करने के लिये आ पहुँचे। राजन्! असुरराज वृत्र और मुनि शुक्राचार्य के द्वारा पूजित हो मुनिवर सनत्कुमार एक बहुमूल्य सिंहासन पर विराजमान हुए। जब महाज्ञानी सनत्कुमार आराम से बैठ गये, तब शुक्राचार्य ने उनसे कहा-‘भगवन्! आप इस दानवराज को भगवान विष्णु का माहात्म्य बताइये’।

भगवान विष्णु का माहात्मय

यह सुनकर सनत्कुमार ने बुद्धिमान दानवराज वृत्रासुर के प्रति भगवान विष्णु की महिमा से युक्त यह सार्थक वचन कहा- ‘शत्रुओं को संताप देने वाले दैत्य! भगवान विष्णु का यह सम्पूर्ण उत्तम माहात्म्य सुनो- तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि यह समस्त संसार भगवान विष्णु में ही स्थित है। ‘पर महाबाहो! ये श्रीविष्णु ही सम्पूर्ण चराचर प्राणिसमुदाय की सृष्टि करते हैं और ये ही समय आने पर उसका विनाश करते हैं एवं समय आने पर पुनः सृष्टि भी करते हैं। ‘समस्त प्राणी इन्हीं में लय को प्राप्त होते हैं और इन्हीं से प्रकट भी होते हैं। इन्हें कोई शास्त्र ज्ञान, तपस्या और यज्ञ के द्वारा भी नहीं पा सकता। केवल इन्द्रियों के संयम से ही उनकी उपलब्धि हो सकती है। ‘जो ब्राह्य (यज्ञ आदि) और आभ्यन्तर (शम, दम आदि) कर्मों में प्रवृत होकर मन के विषय में स्थिरता प्राप्त करके अर्थात् मन को स्थिर करके बुद्धि के द्वारा उसे निर्मल बनाता है, वह परलोक में अक्षय सुख (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है।

‘जैसे सोनार बारंबार किये हुए अपने महान् प्रत्यन के द्वारा चाँदी को आग में डालकर उसे शुद्ध करता है, उसी प्रकार जीव सैकड़ों जन्मों में अपने मन को शुद्ध कर पाता है; परंतु इस यज्ञ आदि और शम-दम आदि कर्मों द्वारा यदि वह महान् प्रयत्न करे तो एक ही जन्म में शुद्ध हो जाता है। ‘जैसे अपने शरीर में लगी हुई थोड़ी-सी धूल को मनुष्य साधारण चेष्टा से खेल-खेल में ही झाड़-पोछ देता है, उसी प्रकार बारंबार किये हुए महान् प्रयत्न से वह अपने राग द्वेष आदि दोषों को भी दूर कर सकता है। ‘जैसे थोड़े-से पुष्प एवं माला द्वारा वासित किया हुआ तिल और सरसों का तेल अपनी गन्ध नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार थोड़ें-से प्रयत्न से न तो दोष दूर होते हैं और न सूक्ष्म ब्रह्म का साक्षात्कार ही हो पाता है। ‘वही तिल या सरसों का तेल बहुत-से सुगन्धित पुष्पों द्वारा बारंबार वासित होने पर अपनी गन्ध को छोड़ देता है और उस फूल की गन्ध में ही स्थित हो जाता है। उसी प्रकार सैकड़ों जन्मों में स्त्री-पुत्र आदि के संसर्ग से युक्त तथा सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों द्वारा प्रवर्तित दोष समूह बुद्धि तथा अभ्यासजनित यत्‍न से निवृत्त हो पाता है।[1]

भगवान विष्णु के बल और प्रभाव का वर्णन

‘दनुनन्दन! कर्म से अनुरक्त और कर्म से विरक्त होने वाले प्राणिसमूह जिस प्रकार राग और विराग के हेतुभूत विभिन्न कर्मों को प्राप्त होते हैं, वह सुनो। ‘प्रभो! जिस प्रकार वे कर्म में प्रवृत्त होते तथा जिस निमित्त से उसमें स्थित होते हैं और जिस अवस्था में उससे निवृत्त हो जाते हैं, वह सब मैं तुमसे क्रमशः बताऊँगा। तुम उसे यहाँ एकाग्रचित्त होकर सुनो। ‘श्रीमान् भगवान नारायण हरि आदि और अन्त से रहित हैं। वे ही चराचर प्राणियों की रचना करते हैं। ‘वे ही सम्पूर्ण प्राणियों में क्षर और अक्षर रूप से विद्यमान हैं। ग्यारह इन्द्रियों का जो वैकारिक[2] सर्ग है, वह भी उन्हीं का स्वरूप है। वे अपनी चैतन्यमयी किरणों द्वारा सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त हो रहे हैं। ‘दैत्यराज! पृथ्वी को भगवान विष्णु के दोनों चरण समझो, स्वर्गलोक को मस्तक जानो, ये चारों दिशाएँ उनकी चार भुजाएँ हैं, आकाश कान हैं, तेजस्वी सूर्य उनका नेत्र है, मन चन्द्र है, बुद्धि (महत्तत्त्व) उनकी नित्य ज्ञानवृत्ति है और जल रसनेन्द्रिय है। ‘दानवप्रवर! सम्पूर्ण ग्रह उनकी दोनों भौंहों के बीच में स्थित हैं। नक्षत्रमण्डल नेत्रों से प्रकट हुआ है। दनुनन्दन! यह पृथ्वी उनके दोनों चरणों में स्थित है। ‘उन्हें तुम सम्पूर्ण भूतस्वरूप, इस जगत का आदिकारण और परमेश्वर समझो। रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण- इन तीनों को नारायणमय ही मानो। तात! समस्त आश्रमों का फल वे ही हैं। विद्वान् पुरुष समस्त कर्मों द्वारा प्राप्तव्य फल उन्हीं को मानते हैं। ‘कर्मों का त्यागरूप जो संन्यास है, उसका फल भी वे ही अविनाशी परमात्मा हैं। वेद-मन्त्र उनके रोम हैं तथा प्रणव उनकी वाणी है। ‘बहुत-से वर्ण और आश्रम उनके आश्रय हैं, उनके अनेक मुख हैं। हृदय में आश्रित धर्म भी उन्हीं का स्वरूप है। वे ही ब्रह्म हैं। वे ही आत्मदर्शनरूप परम धर्म हैं। वे ही तप और सदसत्स्वरूप हैं।[3]

‘श्रुति (वेद), शास्त्र और सोमपात्रसहित सोलह[4] ऋत्विजों वाला यज्ञ भी वे ही हैं। वे ही ब्रह्मा, विष्णु, अश्विनीकुमार, इन्द्र, मित्र, वरुण, यम और कुबेर हैं। ‘उनका दर्शन पृथक्-पृथक् होने पर भी वे अपनी एकता को जानते हैं। तुम भी इस सम्पूर्ण जगत को एक परमात्म देव के ही अधीन समझो। ‘दैत्यराज! अनेक रूपों में प्रकट हुए उन परमात्मा की एकता का यह वेद प्रतिपादन करता है। जीव विज्ञान बल से ही ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। उस समय उसकी बुद्धि में वह ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है।[3] ‘कितने ही जीव करोड़ों कल्पों तक स्थावररूप से एक स्थान में स्थित रहते हैं और कितने ही उतने समय तक इधर-उधर विचरते रहते हैं। दैत्‍यप्रवर! प्रजा के सृष्टि का परिमाण कई हजार बावड़ियों की संख्या के समान है। ‘वे सारी बावड़ियाँ पाँच सौ योजन चौड़ी, पाँच सौ योजन लंबी और एक-एक कोस गहरी हों। गहराई इतनी हो कि कोई उनमें प्रवेश न कर सके। तात्पर्य यह कि प्रत्येक बावड़ी बहुत लंबी-चौड़ी और गहरी हो- उनमें से एक बावड़ी के जल को कोई दिन भर में एक ही बार एक बाल की नोक से उलीचे, दूसरी बार न उलीचे। इस प्रकार उलीचने से उन सारी बावडि़यों का जल जितने समय में समाप्त हो सकता है, उतने ही समय में प्राणियों की सृष्टि और संहारके क्रमकी समाप्ति हो सकती है (अर्थात् जैसे उक्त प्रकार से उलीचने पर उन बावड़ियों का जल सूखना असम्भव है, वैसे ही बिना ज्ञान के संसार का उच्छेद होना असम्भव है।) ‘प्राणियों के वर्ण छः प्रकार के हैं- कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हरिद्रा (पीला) और शुक्ल[5] इनमें से कृष्ण, धूम्र और नील वर्ण का सुख मध्यम होता है। रक्तवर्ण विशेष रूप से सहन करने योग्य होता है। हरिद्रकी-सी कान्ति सुख देने वाली होती है और शुक्लवर्ण अत्यन्त सुखदायक होता है। ‘दानवराज! शुक्लवर्ण निर्मल, शोकहीन, परिश्रम-शून्य होने के कारण सिद्धि कारक होता है। दितिकुलनन्दन! जीव सहस्रों योनियों में जन्म ग्रहण करने के बाद मनुष्य योनि में आकर कभी सिद्धि लाभ करता है।[6]

‘असुरेन्द्र! देवराज इन्द्र ने मंगलमय तत्त्वज्ञान प्राप्त करके हमारे निकट जिस गति और दर्शन-शास्त्र का वर्णन किया है, वह प्राणियों की वर्णजनित गति है अर्थात् शुक्लवर्ण वालों को वही सिद्धि प्राप्त होती है। वह वर्ण कालकृत माना गया है। ‘दैत्यप्रवर! इस जगत् में समस्त जीवन-समुदाय की परागति चौदह लाख बतायी गयी है। (पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार- ये चौदह करण हैं। इन्हीं के भेद से चौदह प्रकार की गति होती है। फिर विषय भेद से वृत्ति भेद होने के कारण चौदह लाख प्रकार की गति होती है।) जीव का जो ऊर्ध्‍व लोकों में गमन होता है, वह भी उन्हीं चौदह करणों द्वारा सम्पादित होता है। विभिन्न स्थानों में जो स्थिरतापूर्वक निवास है, वह और उन स्थानों से जो उन जीवों का अधःपतन होता है, वह भी उन्हीं के सम्बन्ध से होता है। इस बात को तुम अच्छी तरह जान लो (अतः इन चौदह करणों को सात्त्विक मार्गाभिमुखी बनाना चाहिए) ‘कृष्ण वर्ण की गति नीच बतायी गयी है। वह नरक प्रदान करने वाले निषिद्ध कर्मों में आसक्त होता है, इसीलिए नरक की आग में पकाया जाता है। वह कुमार्ग में प्रवृत हुए पूर्वोक्त चौदह करणों द्वारा पापाचार करने के कारण अनेक कल्पों तक नरक में ही निवास करता है- ऐसा ऋषि-मुनि कहते हैं।[6] ‘तदनन्तर वह जीव लाखों बार (या लाखों वर्षों तक) नरक में विचरण करके फिर धूम्रवर्ण पाता है। (पशु-पक्षी आदि की योनि में जन्म लेता है) उस योनि में भी वह विवश होकर बड़े दुःख से निवास करता है। फिर युगक्षय होने पर वह तप (पुरातन पुण्यकर्म या विवेक) के प्रभाव से सुरक्षित होकर उस संकट से उद्धार पा जाता है। ‘वही जीव जब सत्त्वगुण से युक्त होता है, तब अपनी बुद्धि के द्वारा तमोगुण की प्रवृत्ति को दूर हटाता हुआ अपने कल्याण के लिये प्रयत्न करता है। उस समय सत्त्वगुण के बढ. जाने पर वह रक्तवर्ण को प्राप्त होता है। (इसी को अनुग्रह सर्ग कहा गया है, चित्त की विभिन्न वृत्तियों पर ‘अनुग्रह‘ है) जब सत्त्वगुण में कुछ कमी रह जाती है, तब वह जीव नीलवर्ण को प्राप्त होकर मनुष्य लोक में आवागमन करने लगता है। ‘तत्पश्‍चात वह मनुष्य लोक में एक कल्प तक स्वधर्मजनित बन्धनो से बँधकर क्लेष उठाता हुआ जब धीरे धीरे अपनी तपस्या को बढ़ाता है, तब हल्दी की-सी कान्ति वाले पीतवर्ण-देवताभाव को प्राप्त होता है। वहाँ भी सैकड़ों कल्प व्यतीत कर लेने पर वह पुनः पुण्यक्षय के पश्‍चात् मनुष्य होता है। (इस प्रकार वह देवता से मनुष्य और मनुष्य से देवता होता रहता है)[7]

‘दैत्य! सहस्रों कल्पों तक देवरूप से विचरते रहने पर भी जीव विषयभोग से मुक्त नहीं होता तथा प्रत्येक कल्प में किये हुए अशुभ कर्मों के फलों को नरक में रहकर भोगता हुआ जीव उन्नीस[8] हजार विभिन्न गतियों को प्राप्त होता है। तत्‍पश्‍चात उसे नरक से छुटकारा मिलता है। मनुष्य के सिवा सभी योनियों में केवल सुख-दुःख के भोग प्राप्त होते हैं। मोक्ष का सुयोग हाथ नहीं लगता है। इस बात को तुम्हें भली-भाँति समझ लेना चाहिये। वह जीव निरन्तर देवलोक में विहार करता है और वहाँ से भ्रष्ट होने पर मनुष्य योनि को प्राप्त होता है। मर्त्‍यलोक में वह आठ सौ कल्पों तक बारंबार जन्म लेता रहता है। तत्पश्‍चात शुभ कर्म करके वह पुनः देवभाव को प्राप्त करता है। (यह आवागमन का चक्र तभी तक चलता है, जब तक जीव को परमज्ञान या अनन्य भक्ति की प्राप्ति नहीं हो जाती, उसकी प्राप्ति होने पर तो वह मुक्त या परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।) ‘असुरो के प्रमुख वीर! वह जीव कालक्रम से अशुभ कर्म करके कभी-कभी मर्त्‍यलोक से नीचे गिर जाता है और सबसे निकृष्ट तल प्रदेश की भाँति निम्‍नतम, कृष्णवर्ण (स्थावर योनि) में जन्म ग्रहण करके स्थित होता है। इस प्रकार उत्थान-पतन के चक्र में पड़े हुए जीव समुह को जिस प्रकार सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त होती है, वह मैं तुम्हें बता रहा हूँ। ‘क्रमश: रक्तवर्ण (अनुग्राहक देवता), हरिद्रावर्ण (देवता) तथा शुक्लवर्ण (सनकादि कुमारों-जैसा सिद्ध शरीरधारी) होकर वह जीव बारी-बारी से सात सौ दिव्य शरीरों का आश्रय ले, भू आदि सात उत्तमोत्तम लोकों में विचरण करके पूर्व पुण्य के प्रभाव से वेगपूर्वक विशुद्ध ब्रह्मलोक में चला जाता है।[7]

‘महानुभाव वृत्रासुर! प्रकृति, महत्तत्त्व, अंहकार और पंच मात्राएँ- ये आठ, तथा दूसरे साठ[9] त्तत्त्व और इनकी जो सैकड़ों वृतियाँ हैं- ये सब महातेजस्वी योगियों के मन के द्वारा अवरुद्ध की हुई होती है तथा सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों को भी वे अवरुद्ध कर देते है। अतः शुक्लवर्ण वाले (सनकादिकों के समान सिद्ध) पुरुष को उत्तम गति प्राप्त होती है, वही उन योगियों को मिलती है। ‘जो परमगति छठे (शुक्ल) वर्ण के साधक को मिलती है, उसे पाने का अधिकार भ्रष्ट करके भी जो असिद्ध हो रहा है एवं जिसके समस्त पाप नष्ट हो चुके हैं ऐसा योगी भी यदि योगजनित ऐश्‍वर्य के सुख भोग कर वासना का त्याग करने में असमर्थ है तो वह न चाहने पर भी एक कल्प तक अपनी साधना के फलरूप महर्, जन, तप और सत्य-इन चारों लोकों में क्रमश: निवास करता है। (और कल्प के अन्त में मुक्त हो जाता है) ‘किंतु जो भली-भाँति योगसाधना में असमर्थ है, वह योग भ्रष्ट पुरुष सौ कल्पों तक ऊपर के सात लोकों में निवास करता है। फिर बचे हुए कर्म संस्कारों के सहित वहाँ से लौटकर मनुष्य लोक में पहले से बढ़कर महत्त्व-सम्पन्न हो मनुष्य शरीर को पाता है। ‘तदनन्तर मनुष्य योनि से निकलकर वह उत्तरोत्तर श्रेष्ठ देवादि योनियों की ओर अग्रसर होता है एंव सातों लोकों में प्रभावशाली होकर एक कल्प तक निवास करता है। ‘फिर वह योगी भू आदि सात लोकों को विनाशशील क्षणभंगुर समझकर पुनःमनुष्य लोक में भली-भँति (शोक-मोह से रहित होकर) निवास करता है। तदनन्तर शरीर का अन्त होने पर वह अव्यय (अविनाशी या निर्विकार) एंव अनन्त (देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेद से शून्य) स्थान (परब्रह्मपद) को प्राप्त होता है। वह अव्यय एंव अनन्त स्थान किसी के मत में महादेव जी का कैलास धाम है। किसी के मत में भगवान विष्णु का वैकुण्ठ धाम है। किसी के मत में ब्रह्मा जी का सत्यलोक है। कोई-कोई उसे भगवान शेष या अनन्त का धाम बताते है। कोई वह जीव का परमधाम है-ऐसा कहते हैं और कोई-कोई उसे सर्वव्यापी चिन्मय प्रकाश से युक्त परब्रह्म का स्वरूप बताते हैं।[10]

ज्ञानाग्नि के द्वारा जिनके सूक्ष्म, स्थूल और कारण-शरीर दग्ध हो गये हैं, वे प्रजाजन अर्थात योगीलोक प्रलय काल में सदा परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं एवं जो ब्रह्मलोक से नीचे के लोकों में रहने वाले साधनशील दैवी प्रकृति से सम्पन्न साधक हैं, वे सब परब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं। ‘प्रलय काल में जो जीव देवभाव को प्राप्त थे, वे यदि अपने सम्पूर्ण कर्म फलों का उपभोग समाप्त करने से पहले ही लय को प्राप्त हो जाते हैं तो कल्पान्तर में पुनः प्रजा की सृष्टि होने पर वे शेष फल का उपभोग करनें के लिये उन्हीं स्थानों को प्राप्त होते हैं, जो उन्हें पूर्व कल्प में प्राप्त थे; किंतु जो कल्पान्त में उस योनि सम्‍बन्धी कर्मफल-भोग को पूर्ण कर चुके हैं, वे स्वर्ग लोक का नाश हो जाने पर दूसरे कल्प में उनके जैसे कर्म हैं, उसी के सदृश अन्य प्राणियों की भाँति मनुष्य योनि को ही प्राप्त होते हैं।[10] ‘जो योगी सिद्धलोक से गिरकर मृत्यु लोक में आये हैं, उनके समान साधन बल से सम्पन्न जो अन्य योगी हैं, वे क्रमश: उन सिद्ध पुरुषों की ही गति को प्राप्त होते हैं। परंतु जो वैसे नहीं हैं, वे विपरीतभाव के कारण अपनी-अपनी गति को प्राप्त होते हैं। ‘विशुद्धभाव से सम्पन्न सिद्ध पुरुष जब तक पंचेन्द्रियरूप इस करण समुदाय का संयम करके शेष प्रारब्ध कर्म का उपभोग करता है, तब तक उसके शरीर में समस्त प्रजागणों का अर्थात् इन्द्रियों के देवताओं का तथा अपरा और परा विद्या का निवास रहता है। जो साधक सदा शुद्ध मन से उस विशुद्ध परमगति का अनुसंधान करता है, वह उसे अवश्‍य प्राप्त कर लेता है। तदनन्तर अविकारी, दुर्लभ एंव सनातन ब्रह्मपद को प्राप्त करके वह उसी में प्रतिष्ठित हो जाता है। ‘उत्कृष्ट बलशाली दैत्यराज! इस प्रकार यहाँ मैनें तुमसे यह भगवान नारायण का बल एवं प्रभाव बताया है’।[11]

वृत्रासुर बोला- उदारचित महात्मा सनत्कुमार जी! यदि ऐसी बात है तो मुझे कोई विषाद नहीं है। मैं आपके वचन अच्छी तरह समझता और इसे यथार्थ मानता हूँ। आज मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि आपकी इस वाणी को सुनकर मेरे सारे पाप और कलुष दूर हो गये। भगवन्! महर्षे! महातेजस्वी, अनन्त एवं सर्वव्यापी भगवान विष्णु का यह अमित शक्तिशाली संसार चक्र चल रहा है। यह भगवान विष्णु का सनातन स्थान है, जहाँ से सारी सृष्टिओं का आरम्भ होता है। महात्मा विष्णु पुरुषोत्तम हैं। उन्हीं में यह सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है।

भीष्म जी कहते हैं- कुन्तीनन्दन! ऐसा कहकर वृत्रासुर ने अपने आत्मा को परमात्मा में लगाकर उन्हीं का ध्यान करते हुए प्राण त्याग दिये और परमेश्‍वर के परमधाम को प्राप्त कर लिया।[11]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 280 श्लोक 1-16
  2. श्रीविष्णुपुराण में तीन प्रकार की प्राकृत सृष्टि बतायी गयी है- पहली महत्तत्त्व की सृष्टि है, जिसे यहाँ ‘क्षर‘ शब्द से कहा गया है। दूसरी भूत- सृष्टि मानी गयी है, जो तन्मात्राओं की सृष्टि है। यहाँ ‘भूतेषु’ पद के द्वारा उसी की ओर संकेत किया गया है। ‘एकादशविकारात्मा’ इस पद के द्वारा तीसरी सृष्टि का निर्देश किया गया है, जिसे वैकारिक अथवा ऐन्द्रियक सर्ग भी कहते हैं। इसमें पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन- इन ग्यारह तत्त्वों की रचना हुई है।
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 280 श्लोक 17-30
  4. सोहल ऋत्विजों के नाम इस प्रकार है- 1-ब्रह्मा, 2-ब्राह्मणाच्छंसी, 3-आग्नीध्र और 4-पोता- ये चार ऋत्विज सम्पूर्ण वेदों के ज्ञाता होते हैं। 5-होता, 6-मैत्रावरुण, 7-अछावाक और 8-ग्रावस्तोता- ये चार ऋत्विज ऋग्वेदी होते हैं। 9- अध्वर्यु, 10-प्रतिपस्थाता, 11- नेष्टा, 12-उन्नेता- ये चार यजुर्वेदी होते हैं। 13-उद्गाता, 14-प्रस्तोता, 15-प्रतिहर्ता तथा 16-सुब्रह्मण्य- ये सामवेद के गायक होते हैं।
  5. जब तमोगुण की अधिकता, सत्त्वगुण की न्यूनता और रजोगुण की सम अवस्था हो, तब कृष्‍ण वर्ण होता है। यह स्थावर सृष्टि का रंग माना गया है। तमोगुण की अधिकता, रजोगुण की न्यूनता और सत्त्वगुण की सम अवस्था होने पर धूम्रवर्ण होता है। यह पशु-पक्षी की योनि में जन्म लेने वाले प्राणियों का वर्ण माना गया है। रजोगुण की अधिकता, सत्त्वगुण की न्यूनता और तमोगुण की सम अवस्था होने पर नीलवर्ण होता है। यह मानवसर्ग का वर्ण बताया गया है। इसी में जब सत्त्वगुण की सम अवस्था और तमोगुण की न्यूनावस्था हो तो मध्यम वर्ण होता है। उसका रंग लाल होता है। इसे अनुग्रह सर्ग कहते हैं। जब सत्त्वगुण की अधिकता, रजोगुण की न्यूनता और तमोगुण की सम अवस्था हो तो हरिद्रा के समान पीतवर्ण होता है। यही देवताओं का वर्ण है, अतः इसे देवसर्ग कहते हैं। उसी में जब रजोगुण की सम अवस्था और तमोगुण की न्यूनता हो तो शुक्लवर्ण होता है। इसी को कौमारसर्ग कहा गया है।
  6. 6.0 6.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 280 श्लोक 31-37
  7. 7.0 7.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 280 श्लोक 38-45
  8. दस इन्द्रिय, पाँच प्राण और चार अन्तःकरण- ये उन्नीस भोग के साधन हैं, विषय और वृत्तियों के भेद से इन्हीं के उतने ही सौ और उतने ही हजार प्रकार के हो जाते हैं।
  9. पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कर्मेन्द्रिय- ये दस इन्द्रियाँ सात्त्चिक, राजसिक तथा जाग्रत, स्‍वप्‍न और सुषुप्ति के भेद से प्रत्‍येक छ:-छ: प्रकार की होती हैं। इस प्रकार इनके साठ भेद हो जाते हैं।
  10. 10.0 10.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 280 श्लोक 46-52
  11. 11.0 11.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 280 श्लोक 53-65

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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश | ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन | राजा पृथु के चरित्र का वर्णन | वर्णधर्म का वर्णन | आश्रम धर्म का वर्णन | ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व | वर्णाश्रम धर्म का वर्णन | राजर्धम का वर्णन | इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद | राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल | राष्ट्र की रक्षा और उन्नति | राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन | वसुमना और बृहस्पति का संवाद | राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन | राजा के प्रधान कर्तव्य | दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन | राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण | धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म | राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता | विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान | राज्य के कर्तव्य का वर्णन | युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन | उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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