राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान

महाभारत शान्ति पर्व में आपद्धर्म पर्व के अंतर्गत 138वें अध्याय में भीष्म ने युधिष्ठिर से राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे के आख्यान का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]

युधिष्ठिर का बुद्धि के विषय में भीष्‍म से पूछना

युधिष्ठिर बोले- भरतश्रेष्ठ! आपने सर्वत्र अनागत (सकंट आने से पहले ही आत्‍मरक्षा की व्‍यवस्‍था करने वाली) तथा प्रत्‍युत्पन्‍न (समय पर बचाव का उपाय सोच लेने वाली) बुद्धि को ही श्रेष्ठ बताया है और प्रत्‍येक कार्य में आलस्‍य के कारण विलम्‍ब करने वाली बुद्धि को विनाशकारी ब‍ताया है। भरतभूषण! अत: अब मैं उस श्रेष्ठ बुद्धि के विषय में आपसे सुनना चाहता हूँ, जिसका आश्रय लेने से धर्म और अर्थ में कुशल तथा धर्मशास्त्र विशारद राजा शत्रुओं-द्वारा घिरा रहने पर भी मोह में नहीं पड़ता। कुरुश्रेष्ठ! उसी बुद्धि के विषय में मैं आपसे प्रश्‍न करता हूँ अत: आप मेरे लिये उसकी व्‍याख्‍या करें। बहुत-से शत्रुओं का आक्रमण हो जाने पर राजा को कैसा बर्ताव करना चाहिये? यह सब कुछ मैं विधिपूर्वक सुनना चाहता हूँ। पहले के सताये हुए डाकू आदि शत्रु जब राजा को संकट में पडा़ हुआ देखते हैं, तब वे बहुत-से मिलकर उस असहाय राजा को उखाड़ फेंकने का प्रयत्‍न करते हैं। जब अनेक महाबली शत्रु किसी दुर्बल राजा को सब ओर से हड़प जाने के लिये तैयार हो जायं, तब उस एकमात्र असहाय नरेश के द्वारा उस परिस्थिति का कैसे सामना किया जा सकता है? राजा किस प्रकार मित्र और शत्रु को अपने वश में करता है तथा उसे शत्रु और मित्र के बीच में रहकर कैसी चेष्टा करनी चाहिये? पहले लक्षणों द्वारा जिसे मित्र समझा गया है, वही मनुष्‍य यदि शत्रु हो जाय, तब उसके साथ कोई पुरुष कैसा बर्ताव करे? अथवा क्‍या करके वह सुखी हो? किसके साथ विग्रह करे? अथवा किसके साथ संधि जोडे़ और बलवान पुरुष भी यदि शत्रुओं के बीच में मिल जाय तो उसके साथ कैसा बर्ताव करे? परंतप पितामह! यह कार्य समस्‍त कार्यों में श्रेष्ठ है। सत्‍यप्रतिज्ञ जितेन्द्रिय शान्‍तनुनन्‍दन भीष्‍म के सिवा, दूसरा कोई इस विषय को बताने वाला नहीं है। इसको सुनने वाला भी दुर्लभ ही है। अत महाभाग! आप उसका अनुसंधान करके यह सारा विषय मुझसे कहिये।

भीष्म का युधिष्ठिर को चूहे और बिलाव की कथा सुनाना

भीष्‍म जी ने कहा- भरतनन्‍दन बेटा युधिष्ठिर! तुम्‍हारा यह विस्‍तारपूर्वक पूछना बहुत ठीक है। यह सुख की प्राप्ति कराने वाला है। आपत्ति के समय क्‍या करना चाहिये? यह विषय गोपनीय होने से सबको मालूम नहीं है। तुम यह सब रहस्‍य मुझसे सुनो। भिन्‍न-भिन्‍न कार्यों का ऐसा प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण कभी शत्रु भी मित्र बन जाता है और कभी मित्र का मन भी द्वेषभाव से दूषित हो जाता है। वास्‍तव में शत्रु-मित्र की परिस्थिति सदा एक-सी नहीं रहती है। अत देश-काल को समझकर कर्तव्‍य-अकर्तव्‍य का निश्‍चय करके किसी पर विश्‍वास और किसी के साथ युद्ध करना चाहिये। भारत! कर्तव्‍य का विचार करके सदा हित चाहने वाले विद्वान् मित्रों के साथ संधि करनी चाहिये और आवश्‍यकता पड़नें पर शत्रुओं से भी संधि कर लेनी चाहिये, क्‍योकि प्राणों की रक्षा सदा ही कर्तव्‍य है। भारत! जो मूर्ख मानव शत्रुओं के साथ कभी किसी भी दशा में संधि नहीं करता, वह अपने किसी भी उद्देश्‍य को सिद्ध नहीं कर सकता और न कोई फल ही पा सकता है। जो स्‍वार्थ सिद्धि का अवसर देखकर शत्रु से तो संधि कर लेता है और मित्रों के साथ विरोध बढा़ लेता है, वह महान फल प्राप्‍त कर लेता है।[1]

इस विषय में विद्वान पुरुष वट वृक्ष के आश्रय में रहने वाले एक बिलाव और चूहे के संवाद रूप एक प्राचीन कथानक का दृष्टान्‍त दिया करते हैं। किसी महान वन में एक विशाल बरगद का वृक्ष था, जो लता समूहों से आच्‍छादित तथा भाँति-भाँति के पक्षियों से सुशोभित था। वह अपनी मोटी-मोटी डालियों से हरा-भरा होने के कारण मेघ के समान दिखायी देता था। उसकी छाया शीतल थी। वह मनोरम वृक्ष वन के समीप होने के कारण बहुत-से सर्पों तथा पशुओं का आश्रय बना हुआ था। उसी की जड़ में सौ दरवाजों का बिल बनाकर पलित नामक एक परम बुद्धिमान चूहा निवास करता था। उसी बरगद की डाली पर पहले लोमश नामका एक बिलाव भी बड़े सुख से रहता था। पक्षियों का समूह ही उसका भोजन था। उसी वन में एक चाण्‍डाल भी घर बनाकर रहता था। वह प्रतिदिन सायंकाल सूर्यास्‍त हो जाने पर वहाँ आकर जाल फैला देता और उसकी ताँत की डोरियों को यथास्‍थान लगा घर जाकर मौज से सोता था; फिर सबेरा होने पर वहाँ आया करता था। रात को उस जाल में प्रतिदिन नाना प्रकार के पशु फँस जाते थे। (उन्‍हीं को लेने के लिये वह सबेरे आता था)[2]

चूहे का भय

एक दिन अपनी असावधानी के कारण पूर्वोक्‍त बिलाव भी उस जाल में फँस गया। उस महान शक्तिशाली और नित्‍य आततायी शत्रु के फँस जाने पर जब पलित को यह समाचार मालूम हुआ, तब वह उस समय बिल से बाहर निकलकर सब ओर निर्भय विचरने लगा। उस वन में विश्‍वस्‍त होकर विचरतें तथा आहार की खोज करते हुए उस चूहे ने बहुत देर के बाद वह मांस देखा, जो जाल पर बिखेरा गया था। चूहा उस जाल पर चढ़कर उस मांस को खाने लगा। जाल के ऊपर मांस खाने में लगा हुआ वह चूहा अपने शत्रु के ऊपर मन-ही-मन हँस रहा था। इतने ही में कभी उसकी दृष्टि दूसरी ओर घूम गयी। फिर तो उसने एक दूसरे भयंकर शत्रु को वहाँ आया हुआ देखा, जो सरकण्‍डे के फूल के समान भूरे रंग का था। वह धरती में विवर बनाकर उसके भीतर सोया करता था। वह जाति का न्‍यौला था। उसकी आँखें ताँबे के समान दिखायी देती थीं। वह चपल नेवला हरिण के नाम से प्रसिद्ध था और उसी चूहे की गन्‍ध पाकर बड़ी उतावली के साथ वहाँ आ पहुँचा था। इधर तो वह नेवला अपना आहार ग्रहण करने के लिए जीभ लपलपाता हुआ ऊपर मुँह किये पृथ्‍वी पर खड़ा था और दूसरी ओर बरगद की शाखा पर बैठा हुआ दूसरा ही शत्रु दिखायी दिया, जो वृक्ष के खोंखले में निवास करता था। वह चन्‍द्रक नाम से प्रसिद्ध उल्‍लू था। उसकी चोंच बड़ी तीखी थी। वह रात में विचरने वाला पक्षी था। न्‍यौले और उल्‍लू-दोनों का लक्ष्‍य बने हुए उस चूहे को बड़ा भय हुआ। अब उसे इस प्रकार चिन्‍ता होने लगी- ‘अहो! इस कष्टदायिनि विपति में मृत्यु निकट आकर खड़ी है। चारों ओर से भय उत्‍पन्‍न हो गया है। ऐसी अवस्‍था में अपना हित चाहने वाले प्राणी को किस उपाय का अवलम्‍बन करना चाहिये?’[2]

इस प्रकार सब ओर से उसका मार्ग अवरुद्ध हो गया था। सर्वत्र उसे भय-ही-भय दिखायी देता था। उस भय से वह संतप्त हो उठा। इसके बाद उसने पुन: श्रेष्ठ बुद्धि का आश्रय ले सोचना आरम्‍भ किया- ‘आपति में पड़कर विनाश के समीप पहुँचे हुए प्राणियों को भी अपने प्राणों की रक्षा के लिए प्रयत्‍न तो करना ही चाहिये। आज सब ओर से प्राणों का संशय उपस्थित है; अत यह मुझ पर बड़ी भारी आपत्ति आ गयी है। ‘यदि मैं पृथ्‍वी पर उतरकर भागता हूँ तो सहसा नेवला मुझे पकड़कर खा जाएगा। यदि यहीं ठहर जाता हूँ तो उल्‍लू मुझे चोंच से मार डालेगा और यदि जाल काटकर भीतर घुसता हूँ तो बिलाव जीवित नहीं छोडे़गा। ‘तथापि मुझ-जैसे बुद्धिमान को घबराना नहीं चाहिये। अत: जहाँ तक युक्ति काम देगी, परस्‍पर सहयोग का आदान-प्रदान करके मैं जीवन-रक्षा के लिये प्रयत्‍न करूँगा। बुद्धिमान, विद्वान, और नीतिशास्त्र में निपुण पुरुष भारी और भयंकर विपत्ति में पड़नें पर भी उसमें डूब नहीं जाता है उससे छूटने की चेष्टा करता है। ‘मैं इस समय इस बिलाव का सहारा लेने के सिवा, अपने लिये दूसरा कोई मार्ग नहीं देखता। यद्यपि यह मेरा कट्टर शत्रु है, तथापि इस समय स्‍वयं ही भारी संकट में पड़ा हुआ है। मेरे द्वारा इसका भी बड़ा भारी काम निकल सकता है। ‘इधर, मैं भी जीवन की रक्षा चाहता हूँ, तीन-तीन शत्रु मुझ पर घात लगाये बैठे हैं;, अत: क्‍यों न आज मैं अपने शत्रु इस बिलाव का ही आश्रय लूँ? ‘आज नीतिशास्त्र का सहारा लेकर इसके हित का वर्णन करूँगा; जिससे बुद्धि के द्वारा इस शत्रुसमुदाय को धोखा देकर बच जाऊँगा। ‘इसमें संदेह नहीं कि बिलाव मेरा महान दुश्‍मन है त‍थापि इस समय महान संकट में है। यदि सम्‍भव हो तो इस मूर्ख को संगति के द्वारा स्‍वार्थ सिद्ध करने की बात पर राजी करूँ। ‘हो सकता है कि विपत्ति में पड़ा होने के कारण यह मेरे साथ संधि कर ले।[3]

चूहे का बिलाव से संधि के लिये कहना

आचार्यों का कथन है कि संकट आ पड़ने पर जीवन की रक्षा चाहने वाले बलवान पुरुष को भी अपने निकटवर्ती शत्रु से मेल कर लेना चाहिये। ‘विद्वान शत्रु भी अच्‍छा होता है किंतु मूर्ख मित्र भी अच्‍छा नहीं होता है। मेरा जीवन तो आज मेरे शत्रु बिलाव के ही अधीन है। ‘अच्‍छा, अब मैं इसे आत्‍मरक्षा के लिये एक युक्ति बता रहा हूँ। सम्‍भव है, यह शत्रु इस समय मेरी संगति से विद्वान हो जाय-विवेक से काम ले’। इस प्रकार चूहे ने शत्रु की चेष्टा पर विचार किया। वह अर्थसिद्धि के उपाय को यथार्थरूप से जानने वाला तथा संधि और विग्रह के अवसर समझने वाला था। उसने बिलाव को सान्‍त्‍वना देते हुए मधुर वाणी में कहा- ‘भैया बिलाव! मैं तुम्‍हारे प्रति मैत्री का भाव रखकर बातचीत कर रहा हूँ। तुम अभी जीवित तो हो न? मैं चाहता हूँ कि तुम्‍हारा जीवन सुरक्षित रहे; क्‍योंकि इसमें मेरी और तुम्‍हारी दोनों की एक-सी भलाई है। ‘सौम्‍य! तुम्‍हें डरना नहीं चाहिये। तुम आनन्‍दपूर्वक जीवित रह सकोगे। यदि मुझे मार डालने की इच्‍छा त्‍याग दो तो मैं इस संकट से तुम्‍हारा उद्धार कर दूँगा।[3]

‘एक उपाय है जिससे तुम इस संकट से छुटकारा पा सकते हो और मैं भी कल्‍याण का भागी हो सकता हूँ। यद्यपि वह उपाय मुझे दुष्‍कर प्रतीत होता है। ‘मैंने अपनी बुद्धि से अच्‍छी तरह सोच-विचार करके अपने और तुम्‍हारे लिये एक उपाय ढूंढ़ निकाला है, जिससे हम दोनों की समान रूप से भलाई होगी। ‘मार्जार! देखो, ये नेवला और उल्‍लू दोनों पापबुद्धि से यहाँ ठहरे हुए हैं। मेरी ओर घात लगाये बैठे हैं। जब तक वे मुझ पर आक्रमण नहीं करते, तभी तक मैं कुशल से हूँ। ‘यह चंचल नेत्रों वाला पापी वृक्ष की डाली पर बैठकर ‘हू हू’ करता मेरी ही ओर घूर रहा है। उससे मुझे बड़ा डर लगता है। ‘साधु पुरुषों में तो सात पग साथ-साथ चलने से ही मित्रता हो जाती है। हम और तुम तो यहाँ सदा से ही साथ रहते है, अत: तुम मेरे विद्वान मित्र हो। मैं इतने दिन साथ रहने का अपना मित्रोंचित्त धर्म अवश्‍य निभाऊँगा, इसलिये अब तुम्‍हें कोई भय नहीं है। ‘मार्जार! तुम मेरी सहायता के बिना अपना यह बन्‍धन नहीं काट सकते। यदि तुम मेरी हिंसा न करो तो मैं तुम्‍हारे ये सारे बन्‍धन काट डालूँगा। ‘तुम इस पेड़ के ऊँपर रहते हो और मैं इसकी जड़ में रहता हूँ इस प्रकार हम दोनों चिरकाल से इस वृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं, यह बात तो तुम्‍हें ज्ञात ही है। ‘जिस पर कोई भरोसा नहीं करता तथा जो दूसरे किसी पर स्‍वयं भी भरोसा नहीं करता, उन दोनों की धीर पुरुष कोई प्रशंसा नहीं करते हैं; क्‍योंकि उनके मन में सदा उद्वेग भरा रहता हैं। ‘अत: हम लोगों में सदा प्रेम बढे़ तथा नित्‍य प्रति हमारी संगति बनी रहे। जब कार्य का समय बीत जाता है, उसके बाद विद्वान पुरुष उसकी प्रशंसा नहीं करते हैं। ‘बिलाव! हम दोनों के प्रयोजन का जो यह संयोग आ बना है, उसे यथार्थरूप से सुनो। मैं तुम्‍हारे जीवन की रक्षा चाहता हूँ और तुम मेरे जीवन की रक्षा चाहते हो। ‘कोई पुरुष जब लकड़ी के सहारे किसी गहरी एवं विशाल नदी को पार करता है, तब उस लकड़ी को भी किनारे लगा देता है तथा वह लकड़ी भी उसे तारने में सहायक होती है। ‘इसी प्रकार हम दोनों का यह संयोग चिरस्‍थायी होगा। मैं तुम्‍हें विपत्ति से पार कर दूँगा और तुम मुझे आपत्ति से बचा लोगे’। इस प्रकार पलित दोनों के लिये हितकर युक्तियुक्‍त और मानने योग्‍य बात कहकर उत्‍तर मिलने के अवसर की प्रतीक्षा करता हुआ बिलाव की ओर देखने लगा।[4]

बिलाव और चूहे का संवाद

अपने उस शत्रु का यह युक्तियुक्‍त और मान लेने योग्‍य सुन्‍दर भाषण सुनकर बुद्धिमान बिलाव कुछ बोलने को उद्धत हुआ। उसकी बुद्धि अच्‍छी थी। वह बोलने की कला में कुशल था। पहले तो उसने चूहे की बात को मन-ही-मन दुहराया; फिर अपनी दशा पर दृष्टिपात करके उसने सामनीति से ही उस चूहे की भूरि-भूरि प्रशंसा की। तदनन्‍तर जिसके आगे के दाँत बड़े तीखे थे और दोनों नेत्र नीलम के समान चमक रहे थे, उस लोमश नामक बिलावने चूहे की ओर किंचिद् दृष्टिपात करके इस प्रकार कहा- ‘सौम्‍य! मैं तुम्‍हारा अभिनन्‍दन करता हूँ। तुम्‍हारा कल्‍याण हो, जो कि तुम मुझे जीवन प्रदान करना चाहते हो। यदि हमारे कल्‍याण का उपाय जानते हो तो इसे अवश्‍य करो, कोई अन्‍यथा विचार मन में न लाओ।[4] मैं भारी विपत्ति में फँसा हूँ और तुम भी महान संकट में पड़े हो। इस प्रकार आपत्ति में पड़े हुए हम दोनों को संधि कर लेनी चाहिये। इसमें विलम्‍ब न हो। ‘प्रभो! समय आने पर तुम्‍हारे अभीष्ट की सिद्धि करने वाला जो भी कार्य होगा, उसे अवश्‍य करूँगा। इस संकट से मेरे मुक्‍त हो जाने पर तुम्‍हारा किया हुआ उपकार नष्ट नहीं होगा। मैं इसका बदला अवश्‍य चुकाऊँगा। ‘इस समय मेरा मान भंग हो चुका है। मैं तुम्‍हारा भक्‍त और शिष्‍य हो गया हूँ। तुम्‍हारे हित का साधन करूँगा और सदा तुम्‍हारी आज्ञा के अधीन रहूँगा। मैं सब प्रकार से तुम्‍हारी शरण में आ गया हूँ।[5]

बिलाव के ऐसा कहने पर अपने प्रयोजन को समझने-वाले पलित ने वश में आये हुए उस बिलाव से यह अभिप्रयापूर्ण हितकर बात कही- ‘भैया बिलाव! आपने जो उदारतापूर्ण वचन कहा है, यह आप-जैसे बुद्धिमान के लिये आश्‍चर्य की बात नहीं है। मैंने दोनों के हित के लिये जो बात निर्धारित की, वह मुझसे सुनो। ‘भैया!, इस नेवले से मुझे बड़ा डर लग रहा है। इसलिये मैं तुम्‍हारे पीछे इस जाल में प्रवेश कर जाऊँगा, परंतु दादा! तुम मुझे मार न डालना, बचा लेना; क्‍योंकि जीवित रहने पर ही मैं तुम्‍हारी रक्षा करने में समर्थ हूँ। ‘इधर यह नीच उल्‍लू भी मेरे प्राण का ग्राहक बना हुआ है। इससे भी तुम मुझे बचा लो। सखे! मैं तुमसे सत्‍य की शपथ खाकर कहता हूँ, मैं तुम्‍हारे बन्‍धन काट दूँगा।

चूहे की यह युक्तियुक्‍त, सुसंगत और अभिप्रायपूर्ण बात सुनकर लोमश ने उसकी ओर हर्ष भरी दृष्टि से देखा तथा स्‍वागतपूर्वक उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस प्रकार पलित की प्रशंसा एवं पूजा करके सौहार्द में प्रतिष्ठित हुए धीर‍बुद्धि मार्जार ने भलीभाँति सोच-विचारकर तुरंत ही प्रसन्‍नतापूर्वक कहा- ‘भैया! शीघ्र आओ! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। तुम तो हमारे प्राणों के समान प्रिय सखा हो। विद्वन! इस समय मुझे प्राय: तुम्‍हारी ही कृपा से जीवन प्राप्‍त होगा। ‘सखे! इस दशा में पड़े हुऐ मुझ सेवक के द्वारा तुम्‍हारा जो-जो कार्य किया जा सकता हो, उसके लिये मुझे आज्ञा दो, मैं अवश्‍य करूँगा। हम दोनों में संधि रहनी चाहिये। ‘इस संकट से मुक्‍त होने पर मैं अपने सभी मित्रों और बन्‍धु-बान्‍धवों के साथ तुम्‍हारे सभी प्रिय एवं हितकर कार्य करता रहूँगा। ‘सौम्‍य! इस विपत्ति से छुटकारा पाने पर मैं भी तुम्‍हारे हृदय में प्रीति उत्‍पन्‍न करूँगा। तुम मेरा प्रिय करने वाले हो, अत: तुम्‍हारा भलीभाँति आदर-सत्‍कार करूँगा। ‘कोई ‍किसी के उपकार का कितना ही अधिक बदला क्‍यों न चुका दें; वह प्रथम उपकार करने वाले के समान नहीं शोभा पाता है; क्‍योंकि एक तो किसी के उपकार करने पर बदले में उसका उपकार करता है; परंतु दूसरे ने बिना किसी कारण के ही उसकी भलाई की है।

उल्लू और नेवला का अपने स्थान पर वापस जाना

भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इस प्रकार चूहे ने बिलाव से अपने मतलब की बात स्‍वीकार कराकर और स्‍वयं भी उसका विश्‍वास करके उस अपराधी शत्रु की भी गोद में जा बैठा। बिलाव ने जब उस विद्वान चूहे को पूर्वोक्‍तरूप से आश्‍वासन दिया, तब वह माता-पिता की गोद के समान उस बिलाव की छाती पर निर्भय होकर सो गया।[5] चूहे को बिलाव के अंगों में छिपा हुआ देख नेवला और उल्‍लू दोनों निराश हो गये। उन दोनों को बड़े जोर से औंघाई आ रही थी और वे अत्‍यन्‍त भयभीत भी हो गये थे। उस समय चूहे और बिलाव का वह विशेष प्रेम देखकर नेवला और उल्‍लू दोनों को बड़ा आश्‍चर्य हुआ। यद्यपि वे बड़े बलवान, बुद्धिमान, सुन्‍दर बर्ताव करने वाले, कार्य कुशल तथा निकटवर्ती थे तो भी उस संधि की नीति से काम लेने के कारण उन चूहे और बिलाव पर वे बलपूर्वक आक्रमण करने में समर्थ न हो सके। अपने-अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए चूहे और बिलाव ने आपस में संधि कर ली, यह देखकर उल्‍लू और नेवला दोनों तत्‍काल अपने निवास स्‍थान को लौट गये।[6]

संकट में पड़े चूहे और बिलाव का वार्तालाप

नरेश्‍वर! चूहा देश-काल की गति को अच्‍छी तरह जानता था; इसलिये वह बिलाव के अंगों में ही छिपा रहकर चाण्‍डाल के आने के समय की प्रतीक्षा करता हुआ धीरे-धीरे जाल को काटने लगा। बिलाव उस बन्‍धन से तंग आ गया था। उसने देखा, चूहा जाल तो काट रहा है; किंतु इस कार्य में फुर्ती नहीं दिखा रहा है, तब वह उतावला होकर बन्‍धन काटने में जल्‍दी न करने वाले पलित नामक चूहे को उकसाता हुआ बोला- ‘सौम्‍य! तुम जल्‍दी क्‍यों नहीं करते हो? क्‍या तुम्‍हारा काम बन गया, इसलिये मेरी अवहेलना करते हो? शत्रुसूदन! देखो, अब चाण्‍डाल आ रहा होगा। उसके आने से पहले ही मेरे बन्‍धनों को काट दों’। उतावले हुए बिलाव के ऐसा कहने पर बुद्धिमान पलित ने अपवित्र विचार रखने वाले उस मार्जार से अपने लिये हितकर और लाभदायक बात कही- ‘सौम्‍य चुप रहो, तुम्‍हें जल्‍दी नहीं करनी चाहिये, घबराने की कोई आवश्‍यकता नहीं है। मैं समय को खूब पहचानता हूँ, ठीक अवसर आने पर मैं कभी नहीं चूकूँगा। ‘बेमौके शुरू किया हुआ काम करने वाले के लिये लाभदायक नहीं होता है और वही उपयुक्‍त समय पर आरम्‍भ किया जाय तो महान अर्थ का साधक हो जाता है। ‘यदि असमय में ही तुम छूट गये तो मुझे तुम्‍हीं से भय प्राप्‍त हो सकता है, इसलिये मेरे मित्र! थोडी देर और प्रतीक्षा करो; क्‍यों इतनी जल्‍दी मचा रहे हो? ‘जब मैं देख लूँगा कि चाण्‍डाल हाथ में हथियार लिये आ रहा है, तब तुम्‍हारे ऊपर साधारण-सा भय उपस्थित होने पर मैं शीघ्र ही तुम्‍हारे बन्‍धन काट डालूँगा। ‘उस समय छूटते ही तुम पहले पेड़ पर ही चढो़गे। अपने जीवन की रक्षा के सिवा दूसरा कोई कार्य तुम्‍हें आवश्‍यक नहीं प्रतीत होगा। ‘लोमश जी जब आप त्रास और भय से आक्रान्‍त हो भाग खडे़ होगे, उस समय मैं बिल में घुस जाऊँगा और आप वृक्ष की शाखा पर जा बैठेंगे’।

चूहे के ऐसा कहने पर वाणी के मर्म को समझने वाला और अपने जीवन की रक्षा चाहने वाला परम बुद्धिमान बिलाव अपने हित की बात बताता हुआ बोला। लोमश को अपना काम बनाने की जल्‍दी लगी हुई थी; अत: वह भलीभाँति विनयपूर्ण बर्ताव करता हुआ विलम्‍ब करने वाले चूहे से इस प्रकार कहने लगा- ‘श्रेष्ठ पुरुष मित्रों के कार्य बड़े प्रेम और प्रसन्‍नता के साथ किया करते हैं; तुम्‍हारी तरह नहीं। जैसे मैने तुंरत ही तुम्‍हें संकट से छुड़ा लिया था।[6] ‘इसी प्रकार तुम्‍हे भी जल्‍दी ही मेरे हित का कार्य करना चाहिये। महाप्राज्ञ! तुम ऐसे प्रयत्‍न करो, जिससे हम दोनों की रक्षा हो सके। ‘अथवा यदि पहले के वैर का स्‍मरण करके तुम यहाँ व्‍यर्थ काटना चा‍हते हो तो पापी! देख लेना, इसका क्‍या फल होगा? निश्‍चय ही तुम्‍हारी आयु क्षीण हो चली है। ‘यदि मैंने अज्ञानवश पहले कभी तुम्‍हारा कोई अपराध किया हो तो तुम्‍हें उसको मन में नहीं लाना चाहिये, मैं क्षमा माँगता हूँ। तुम मुझ पर प्रसन्‍न हो जाओ।[7]

चूहा बड़ा विद्वान तथा नीतिशास्त्र को जानने वाली बुद्धि से सम्‍पन्‍न था। उसने उस समय इस प्रकार कहने वाले बिलाव से यह उत्‍तम बात कही- ‘भैया बिलाव! तुमने अपनी स्‍वार्थ सिद्धि पर ही ध्‍यान रखकर जो कुछ कहा है, वह सब मैंने सुन लिया तथा मैंने भी अपने प्रयोजन को सामने रखते हुए जो कुछ कहा है, उसे तुम भी अच्‍छी तरह समझते हो। ‘जो किसी डरे हुए प्राणी द्वारा मित्र बनाया गया हो तथा जो स्‍वयं भी भयभीत होकर ही उसका मित्र बना हो-इन दोनों प्रकार के मित्रों की ही रक्षा होनी ही चाहिये और जैसे बाजीगर सर्प के मुख से हाथ बचाकर ही उसे खेलाता है, उसी प्रकार अपनी रक्षा करते हुए ही उन्‍हें एक दूसरे का कार्य करना चाहिये। ‘जो व्‍यक्ति बलवान से संधि करके अपनी रक्षा का ध्‍यान नहीं रखता, उसका वह मेल-जोल खाये हुए अपथ्‍य अन्‍न के समान हितकर नहीं हेाता। ‘न तो कोई किसी का मित्र है और न कोई किसी को शत्रु। स्‍वार्थ को ही लेकर मित्र और शत्रु एक दूसरे से बँधे हुए हैं। जैसे पालतू हाथियों द्वारा जंगली हाथी बाँध लिये जाते है, उसी प्रकार अर्थेां द्वारा ही अर्थ बँधते हैं। ‘काम पूरा हो जाने पर कोई भी उसके करने वाले को नहीं देखता-उसके हित पर नहीं ध्‍यान देता; अत: सभी कार्यों का अधूरे ही रखना चाहिये। ‘जब चाण्‍डाल आ जायगा, उस समय तुम उसी के भय से पीड़ित हो भागने लग जाओगे; फिर मुझे पकड़ न सकोगे। ‘मैंने बहुत से तंतु काट डाले हैं, केवल एक ही डोरी बाकी रख छोडी़ है। उसे भी मैं शीघ्र ही काट डालूँगा; अत: लोमश! तुम शांन्‍त रहो, घबराओ न’। इस प्रकार संकट में पड़े हुए उन दोनों के वार्तालाप करते-करते ही वह रात बीत गयी। अब लोमश के मन में बड़ा भारी भय समा गया।

तदनन्‍तर प्रात:काल परिघ नामक चाण्‍डाल हाथ में हथियार लेकर आता दिखायी दिया। उसकी आकृति बड़ी विकराल थी। शरीर का रंग काला और पीला था। उसका नितम्‍ब भाग बहुत स्‍थूल था। कितने ही अंग विकृत हो गये थे। वह स्‍वभाव का रूखा जान पड़ता था। कुत्तों से घिरा हुआ वह मलिन वेषधारी चाण्‍डाल बड़ा भयंकर दिखायी दे रहा था, उसका मुँह विशाल था और कान दीवार में गड़ी हुई खूंटियों के समान जान पड़ते थे। यमदूत के समान चाण्‍डाल को आते देख बिलाव का चित्त भय से व्‍याकुल हो गया। उसने डरते-डरते यही कहा- ‘भैया चूहा! अब क्‍या करोगे?’ एक ओर वे दोनों भयभीत थे। दूसरी ओर भयानक प्राणियों से घिरा हुआ चाण्‍डाल आ रहा था। उन सबको देखकर नेवला और उल्‍लू क्षणभर में ही निराश हो गये।[7] वे दोनों बलवान और बुद्धिमान तो थे ही। चूहे के घात में पास ही बैठे हुए थे; परंतु अच्‍छी नीति से संगठित हो जाने कारण चूहे और बिलाव पर वे बलपूर्वक आक्रमण न कर सके। चूहे और बिलाव को कार्यवश संधिसूत्र में बँधें देख उल्‍लू और नेवला दोनों अपने-अपने निवास स्‍थान को चले गये।[8]

बिलाव का चूहे का अपना मंत्री बनाने के लिये कहना

तदनन्‍तर चूहे ने बिलाव का बन्‍धन काट दिया। जाल से छूटते ही बिलाव उसी पेड़ पर चढ़ गया। उस घोर शत्रु तथा उस भारी घबराहट से छुटकारा पाकर पलित अपने बिल में घुस गया और लोमश वृक्ष की शाखा पर जा बैठा। भरतश्रेष्ठ! चाण्‍डाल ने उस जाल को लेकर उसे सब ओर से उलट-पलटकर देखा ओर निराश होकर क्षणभर में उस स्‍थान से हट गया और अन्‍त में अपने घर को चला गया। उस भारी भय से मुक्‍त हो दुर्लभ जीवन पाकर वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए लोमश ने बिल के भीतर बैठे हुए चूहे से कहा- ‘भैया! तुम मुझसे कोई बातचीत किये बिना ही इस प्रकार सहसा बिल में क्‍यों घुस गये? मैं तो तुम्‍हारा बड़ा ही कृतज्ञ हूँ। मैंने तुम्‍हारे प्राणों की रक्षा करके तुम्‍हारा ही बड़ा भारी काम किया है। तुम्‍हें मेरी ओर से कुछ शंका तो नहीं है। ‘मित्र! तुमने वि‍पत्ति के समय मेरा विश्‍वास किया और मुझे जीवन दान दिया। अब तो मैत्री के सुख का उपभोग करने का समय है, ऐसे समय तुम मेरे पास क्‍यों नहीं आते हो? ‘जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्‍य पहले बहुत-से मित्र बनाकर पीछे उस मित्र भाव में स्थिर नहीं रहता है, वह कष्टदायिनि विपत्ति मे पड़ने पर उन मित्रों को नहीं पाता है अर्थात उनसे उसको सहायता नहीं मिलती। ‘सखे! मित्र! तुमने अपनी शक्ति के अनुसार मेरा पूरा सत्‍कार किया है और मैं भी तुम्‍हारा मित्र हो गया हूँ, अत: तुम्‍हे मेरे साथ रहकर इस मित्रता का सुख भोगना चाहिये। ‘मेरे जो भी मित्र, सम्‍बन्‍धी, और बन्‍धु-बान्‍धव हैं, वे सब तुम्‍हारी उसी प्रकार सेवा-पूजा करेंगे, जैसे शिष्‍य अपने श्रद्धेय गुरु की करते हैं। ‘मैं भी मित्रों और बन्‍धु-बान्‍धवों सहित तुम्‍हारा सदा ही आदर-सत्‍कार करूँगा। संसार में ऐसा कौन पुरुष होगा, जो अपने जीवनदाता की पूजा न करे? ‘तुम मेरे शरीर के और मेरे घर के भी स्‍वामी हो जाओ। मेरी जो कुछ भी सम्‍पति है, वह सारी-की-सारी तुम्‍हारी है। तुम उसके शासक और व्‍यवस्‍थापक बनो। ‘विद्वन, तुम मेरे मन्‍त्री हो जाओ और पिता की भाँति मुझे कर्तव्‍य का उपदेश दो। मैं अपने जीवन की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्‍हें हम लोगों की ओर से कोई भय नहीं है। ‘तुम साक्षात शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान हो। तुममे मन्‍त्रणा का बल है। आज तुमने मुझे जीवनदान देकर अपने मन्‍त्रणाबल से हम सब लोगों के हृदय पर अधिकार प्राप्‍त कर लिया है’।

चूहे का स्वार्थ के विषय में बिलाव को बताना

बिलाव की ऐसी परम शान्तिपूर्ण बातें सुनकर उत्तम मन्‍त्रणा के ज्ञाता चूहे ने मधुर वाणी में अपने लिये हितकर वचन कहा- ‘लोमश! तुमने जो कुछ कहा, वह सब मैंने ध्‍यान देकर सुना। अब मेरी बुद्धि में जो विचार स्‍फुरित हो रहा है उसे बतलाता हूँ, अत: मेरे इस कथन को भी सुन लो।[8] ‘मित्रों को जानना चाहिये, शत्रुओं को भी अच्‍छी तरह समझ लेना चाहिये- इस जगत में मित्र और शत्रु की यह पहचान अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म तथा विज्ञजनों को अभिमत है। ‘अवसर आने पर कितने ही मित्र शत्रु रूप हो जाते हैं और कितने ही शत्रु मित्र बन जाते हैं। परस्‍पर संधि कर लेने के पश्‍चात जब वे काम और क्रोध के अधीन हो जाते हैं, तब यह समझना असम्‍भव हो जाता है कि वे मित्र भाव से युक्‍त हैं या शत्रु भाव से? ‘न कभी कोई शत्रु होता है और न मित्र होता है। आवश्‍यक शक्ति के सम्‍बन्‍ध से लोग एक दूसरे के मित्र और शत्रु हुआ करते हैं। ‘जो जिसके जीते-जी अपना स्‍वार्थ सधता देखता है और जिसके मर जाने पर अपनी हानि मानता है, वह तब तक उसका मित्र बना रहता है, जब तक कि इस स्थिति में कोई उलट-फेर नहीं होता। ‘मैत्री कोई स्थिर वस्‍तु नहीं है और शत्रुता की सदा स्थित रहने वाली चीज नहीं है। स्‍वार्थ के सम्‍बन्‍ध से मित्र और शत्रु होते रहते हैं। ‘कभी-कभी समय के फेर से मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र बन जाता है; क्‍योंकि स्‍वार्थ बडा़ बलवान होता है। ‘जो मनुष्‍य स्‍वार्थ के सम्‍बन्‍ध का विचार किये बिना ही मित्रों पर केवल विश्‍वास और शत्रुओं पर केवल अविश्‍वास करता जाता है तथा जो शत्रु हो या मित्र, जो सबके प्रति प्रेमभाव ही स्‍थापित करने लगता है, उसकी बुद्धि भी चंचल ही समझनी चाहिये। ‘जो विश्‍वासपात्र न हो, उस पर कभी विश्‍वास न करे और जो विश्‍वासपात्र हो, उस पर भी अधिक विश्‍वास न करे; क्‍योंकि विश्‍वास उत्‍पन्‍न हुआ भय मनुष्‍य का मुलोच्‍छेद कर डालता है। ‘माता-पिता, पुत्र, मामा, भांजे, सम्‍बन्‍धी तथा बन्‍धु-बान्‍धव-इन सब में स्‍वार्थ के सम्‍बन्‍ध से ही स्‍नेह होता है। ‘अपना प्‍यारा पुत्र भी यदि पति‍त हो जाता है तो मां-बाप उसे त्‍याग देते हैं और सब लोग सदा अपनी ही रक्षा करना चाहते हैं। अत: देख लो, इस जगत में स्‍वार्थ ही सार है’।[9]

‘बुद्धिमान लोमश! जो तुम आज जाल के बन्‍धन से छूटने के बाद ही कृतज्ञतावश मुझ अपने शत्रु को सुख पहुँचाने का असंदिग्‍ध उपाय ढूँढने लगे हो, इसका क्‍या कारण है? जहाँ तक उपकार का बदला चुकाने का प्रश्‍न है, वहाँ तक तो हमारी-तुम्‍हारी समान स्थिति है। यदि मैंने तुम्‍हें सकंट से छुडा़या है, तो तुमने भी तो मुझे वैसी ही विपत्ति से बचाया है; फिर मैं तो कुछ करता नहीं, तुम्‍हीं क्‍यों उपकार का बदला देने के लिये उतावले हो उठे हो? ‘तुम इसी स्‍थान पर बरगद से उतरे थे और पहले से ही यहाँ जाल बिछा हुआ था; परंतु तुमने चपलता के कारण उधर ध्‍यान नहीं दिया और फ़ँस गये। ‘चपल प्राणी जब अपने ही लिये कल्‍याणकारी नहीं होता तो वह दूसरे की भलाई क्‍या करेगा? अत: यह निश्चित है कि चपल पुरुष सब काम चौपट कर देता है। ‘इसके सिवा तुम जो यह मीठी-मीठी बात कह रहे हो कि ‘आज तुम मुझे बड़े प्रिय लगते हो’ इसका भी कारण है, मेरे मित्र; वह सब मैं विस्‍तार के साथ बताता हूँ, सुनो। मनुष्‍य कारण से ही प्रेमपात्र और कारण से ही द्वेष का पात्र बनता है।[9] ‘यह जीव-जगत स्‍वार्थ का ही साथी है। कोई किसी का प्रिय नहीं है। दो सगे भाईयों तथा पति और पत्नी में भी जो परस्‍पर प्रेम होता है, वह भी स्‍वार्थवश ही है। इस जगत में किसी के भी प्रेम को मैं निष्‍कारण ( स्‍वार्थरहित) नहीं समझता। ‘कभी-कभी किसी स्‍वार्थ को लेकर भाई भी कुपित हो जाते हैं अथवा पत्नी भी रूठ जाती है। यद्यपि वे स्‍वभावत: एक-दूसरे से जैसा प्रेम करते हैं, ऐसा प्रेम दूसरे लोग नहीं करते हैं। ‘कोई दान देने से प्रिय होता है, कोई प्रिय वचन बोलने से प्रीतिपात्र बनता है और कोई कार्य सिद्धि के लिये मन्‍त्र, होम एवं जप करने से प्रेम का भाजन बन जाता है। ‘किसी कारण (स्‍वार्थ ) को लेकर उत्‍पन्‍न होने वाली प्रीति जब तक वह कारण रहता है, तब तक बनी रहती है। उस कारण का स्‍थान नष्ट हो जाने पर उसको लेकर की हुई प्रीति भी स्‍वत: निवृत हो जाती है।[10]

चूहे का बिलाव को समझाना

‘अब मेरे शरीर को खा जाने के सिवा दूसरा कौन-सा ऐसा कारण रह गया है, जिससे मैं यह मान लूँ कि वास्‍तव में तुम्‍हारा मुझ पर प्रेम है। इस समय जो तुम्‍हारा स्‍वार्थ है, उसे मैं अच्‍छी तरह समझता हूँ। ‘समय कारण के स्‍वरूप को बदल देता है; और स्‍वार्थ उस समय का अनुसरण करता रहता है। विद्वान पुरुष उस स्‍वार्थ को समझता है और साधारण लोग विद्वान पुरुष के ही पीछे चलते हैं। तात्‍पर्य यह है कि मैं विद्वान हूँ; इसलिये तुम्‍हारे स्‍वार्थ को अच्‍छी तरह समझता हूँ अत: तुम्‍हें मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। ‘तुम शक्‍तिशाली हो तो भी जो बेसमय मुझ पर इतना स्‍नेह दिखा रहे हो, इसका यह स्‍वार्थ ही कारण है; अत; मैं भी अपने स्‍वार्थ से विचलित नहीं हो सकता। संधि और विग्रह के विषय में मेरा विचार सुनिश्चित है। ‘मित्रता और शत्रुता के रूप तो बादलों के समान क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं। आज ही तुम मेरे शत्रु होकर फिर आज ही मेरे मित्र हो सकते हो और उसके बाद आज ही पुन: शत्रु भी बन सकते हो। देखो, यह स्‍वार्थ का सम्‍बन्‍ध कितना चंचल है? ‘पहले जब उपयुक्‍त कारण था, तब हम दोनों में मैत्री हो गयी थी, किंतु काल ने जिसे उपस्थित कर दिया था उस कारण के निवृत होने के साथ ही वह मैत्री भी चली गयी। ‘तुम जाति से ही मेरे शत्रु हो, किंतु विशेष प्रयोजन से मित्र बन गये थे। वह प्रयोजन सिद्ध कर लेने के पश्‍चात तुम्‍हारी प्रकृति फिर सहज शत्रुभाव को प्राप्‍त हो गयी। ‘मैं इस प्रकार शुक्र आदि आचार्यों के बनाये हुए नीतिशास्त्र की बातों को ठीक-ठीक जानकर भी तुम्‍हारे लिये उस जाल के भीतर कैसे प्रवेश कर सकता था? यह तुम्‍हीं मुझे बताओ। ‘तुम्‍हारे पराक्रम से मैं प्राण-संकट से मुक्‍त हुआ और मेरी शक्ति से तुम। जब एक दूसरे पर अनुग्रह करने का काम पूरा हो गया, तब फिर हमें परस्‍पर मिलने की आवश्‍यकता नहीं।[10] ‘सौम्‍य! अब तुम्‍हारा काम बन गया और मेरा प्रयोजन भी सिद्ध हो गया; अत: अब मुझे खा लेने के सिवा मेरे द्वारा तुम्‍हारा दूसरा कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। ‘मैं अन्‍न हूँ और तुम बलवान हो। मैं दूर्बल हूँ और तुम बलवान हो। इस प्रकार मेरे और तुम्‍हारे बल में कोई समानता नहीं है। दोनों में बहुत अन्‍तर है। अत: हम दोनों में संधि नहीं हो सकती। ‘मैं तुम्‍हारा विचार जान गया हूँ, निश्‍चय ही तुम जाल से छूटने के बाद से ही सहज उपाय तथा प्रयत्‍न द्वारा आहार ढूँढ़ रहे हो। ‘आहार की खोज के लिये ही निकलने पर तुम इस जाल में फँसे थे और अब इससे छूटकर भूख से पी‍ड़ित हो रहे हो। निश्‍चय ही शास्त्रीय बुद्धि का सहारा लेकर अब तुम मुझे खा जाओगे। मैं जानता हूँ कि तुम भूखे हो और यह तुम्‍हारे भोजन का समय है; अत: तुम पुन: मुझसे संधि करके अपने लिये भोजन की तलाश करते हो। ‘सखे! तुम जो बाल-बच्‍चों के बीच में बैठकर मुझ पर संधि का भाव दिखा रहे हो तथा मेरी सेवा करने का यत्‍न करते हो, व‍ह सब मेरे योग्‍य नहीं है। ‘तुम्‍हारे साथ मुझे देखकर तुम्‍हारी प्‍यारी पत्‍नी और पुत्र जो तुमसे बड़ा प्रेम रखते हैं, हर्ष से उल्‍लसित हो मुझे कैसे नहीं खा जायँगे? ‘अब मैं तुमसे नहीं मिलूँगा। हम दोनों के मिलन का जो उद्देश्‍य था, वह पूरा हो गया।[11]

यदि तुम्‍हें मेरे शुभ कर्म (उपकार) का स्‍मरण है तो स्‍वयं स्‍वस्‍थ रहकर मेरे भी कल्‍याण का चिन्‍तन करो। ‘जो अपना शत्रु हो, दुष्ट हो, कष्ट में पड़ा हुआ हो, भूखा हो और अपने लिये भोजन की तलाश कर रहा हो, उसके सामने कोई भी बुद्धिमान (जो उसका भोज्‍य है)’ कैसे जा सकता है। ‘तुम्‍हारा कल्‍याण हो। अब मैं चला जाऊँगा मुझे दूर से भी तुमसे डर लगता है। मेरा यह पलायन विश्‍वासपूर्वक हो रहा हो या प्रमाद के कारण; इस समय यही मेरा कर्तव्‍य है। बलवानों के निकट रहना दुर्बल प्राणी के लिये कभी अच्‍छा नहीं माना जाता। ‘लोमश! अब मैं तुमसे कभी नहीं मिलूँगा। तुम लौट जाओ। यदि तुम समझतें हो कि मैंने तुम्‍हारा कोई उपकार किया है तो तुम मेरे प्रति सदा मैत्रीभाव बनाये रखना। ‘जो बलवान और पापी हो, वह शान्‍तभाव से रहता हो तो भी मुझे सदा उससे डरना चाहिये। यदि तुम्‍हें मुझसे कोई स्‍वार्थ सिद्ध नहीं करना है तो बताओ मैं तुम्‍हारा (इसके अतिरिक्‍त) कौन-सा कार्य करूँ ? ‘मैं तुम्‍हें इच्‍छानुसार सब कुछ दे सकता हूँ; परंतु अपने आपको कभी नहीं दूँगा। अपनी रक्षा करने के लिये तो संतति, राज्‍य, रत्‍न, और धन-सबका त्‍याग किया जा सकता है। अपना सर्वस्‍व त्‍यागकर भी स्‍वयं ही अपनी रक्षा करनी चाहिये। ‘हमने सुना है कि यदि प्राणी जीवित रहे तो वह शत्रुओं द्वारा अपने अधिकार में किये हुए ऐश्‍वर्य, धन, और रत्‍नों को पुन: वापस ला सकता है। यह बात प्रत्‍यक्ष देखी भी गयी है।[11] ‘धन और रत्‍नों की भाँति अपने आपको शत्रु के हाथ में दे देना अभिष्ट नहीं है। धन और स्त्री के द्वारा अर्थात उनका त्‍याग करके भी सर्वदा अपनी रक्षा करनी चाहिये। ‘जो आत्‍मरक्षा में तत्‍पर हैं और भलीभाँति परीक्षापूर्वक निर्णय करके काम करते हैं, ऐसे पुरुषों को अपने ही दोष से उत्‍पन्‍न होने वाली आपत्तियाँ नहीं प्राप्‍त होती हैं। ‘जो दुर्बल प्राणी अपने बलवान शत्रुओं को अच्‍छी तरह जानते हैं, उनकी शास्त्र के अर्थ ज्ञान द्वारा स्थिर हुई बुद्धि कभी विचलित नहीं होती’।[12]

बिलाव द्वारा चूहे की स्तुति करना

पलित ने जब इस प्रकार स्‍पष्‍ट रूप से कड़ी फटकार सुनायी, तब बिलाव ने लज्जित होकर पुन: उस चूहे से इस प्रकार कहा। लोमश बोला- भाई! मैं तुमसे सत्‍य की शपथ खाकर कहता हूँ, मित्र से द्रोह करना तो बड़ी घृणित बात है। तुम जो सदा मेरे हित में तत्‍पर रहते हो, इसे मैं तुम्‍हारी उत्‍तम बुद्धि का ही परिणाम स‍मझता हूँ। श्रेष्ठ पुरुष! तुमने तो यथार्थ रूप से नीति-शास्त्र का सार ही बता दिया। मुझसे तुम्‍हारा विचार पूरा-पूरा मिलता है। मित्रवर! किंतु तुम मुझे गलत न समझो। मेरा भाव तुमसे विपरीत नहीं है। तुमने मुझे प्राणदान दिया है। इसी से मुझ पर तुम्‍हारे सौहार्द का प्रभाव पड़ा। मैं धर्म को जानता हूँ, गुणों का मूल्‍य समझता हूँ, विशेषत: तुम्‍हारे प्रति कृतज्ञ हूँ, मित्रवत्‍सल हूँ और सबसे बड़ी बात यह है कि मैं तुम्‍हारा भक्‍त हो गया हूँ; अत: मेरे अच्‍छे मित्र! तुम फिर मेरे साथ ऐसा ही बर्ताव करो-मेलजोल बढा़कर मेरे साथ घूमो-फिरो। यदि तुम कह दो तो मैं बन्‍धु-बान्‍धवों सहित तुम्‍हारे लिये अपने प्राण भी त्‍याग दे सकता हूँ। विद्वानों ने मुझ-जैसे मनस्‍वी पुरुषों पर सदा विश्‍वास ही किया और देखा है। अत: धर्म के तत्त्व को जानने वाले पलित! तुम्‍हें मुझ पर संदेह नहीं करना चाहिये।

बिलाव के द्वारा इस प्रकार की स्‍तुति की जाने पर भी चूहा अपने मन से गम्‍भीर भाव ही धारण किये रहा। उसने मार्जार से पुन: इस प्रकार कहा- ‘भैया! तुम वास्‍तव में बड़े साधु हो। यह बात मैंने तुम्‍हारे विषय में सुन रखी है। उससे मुझे प्रसन्‍नता भी है; परंतु मैं तुम पर विश्‍वास नहीं कर सकता। तुम मेरी कितनी ही स्‍तुति क्‍यों न करो। मेरे लिये कितनी ही धनराशि क्‍यों न लुटा दो; परंतु अब मैं तुम्‍हारे साथ मिल नहीं सकता। सखे! बुद्धिमान एवं विद्वान पुरुष बिना किसी विशेष कारण के अपने शत्रु के वश में नहीं जाते। ‘इस विषय में शुक्राचार्य नें दो गाथाएँ कही हैं। उन्‍हें ध्‍यान देकर सुनो। जब अपने और शत्रु पर एक-सी विपत्ति आयी हो, तब निर्बल को सबल शत्रु के साथ मेल करके बड़ी सावधानी और युक्ति से अपना काम निकालना चाहिये और जब काम हो जाय, तो फिर उसे शत्रु पर विश्‍वास नहीं करना चाहिये ( यह प‍हली गाथा है)’। ‘(दूसरी गाथा यों हैं ) जो विश्‍वासपात्र न हो, उस पर विश्‍वास न करे तथा जो विश्‍वासपात्र हो, उस पर भी अधिक विश्‍वास न करे। अपने प्रति सदा दूसरों का विश्‍वास उत्‍पन्‍न करे; किंतु स्‍वयं दूसरों का विश्‍वास न करें। ‘इसलिये सभी अवस्‍थाओं में अपने जीवन की रक्षा करे; क्‍योंकि जीवित रहने पर पुरुष को धन और संतान-सभी मिल जाते हैं।[12]

चूहे का दूसरे बिल में जाना

‘संक्षेप में नीतिशास्त्र का सार यह है कि किसी का भी विश्‍वास न करना ही उत्‍तम माना गया है; इसलिये दूसरे लोगों पर विश्‍वास न करने में ही अपना‍ विशेष हित है। ‘जो विश्‍वास न करके सावधान रहते हैं, वे दुर्बल होने पर भी शत्रुओं द्वारा मारे नहीं जाते। परंतु जो उन पर विश्‍वास करते हैं, वे बलवान होने पर भी दुर्बल शत्रुओं द्वारा मार डाले जाते हैं। ‘बिलाव! तुम जैसे लोगों से मुझे सदा अपनी रक्षा करनी चाहिये और तुम भी अपने जन्‍मजात शत्रु चाण्‍डाल से अपने को बचाये रखो’। चूहे के इस प्रकार कहते समय चाण्‍डाल का नाम सुनते ही बिलाव बहुत डर गया और वह डाली छोड़कर बड़े वेग से तुरंत दूसरी ओर चला गया। तदनन्‍तर नीतिशास्त्र के और तत्त्व को जानने वाला बुद्धिमान पलित अपने बौद्धिक शक्ति का परिचय दे दूसरे बिल में चला गया। इस प्रकार दुर्बल और अकेला होने पर भी बुद्धिमान पलित चूहे ने अपने बुद्धि-बल से बहुतेरे प्रबल शत्रुओं को परास्‍त कर दिया; अत: आपत्ति के समय विद्वान पुरुष बलवान शत्रु के साथ भी संधि कर ले।[13]

भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को समझाना

देखों, चूहे और बिलाव दोनों एक दूसरे का आश्रय लेकर विपत्ति से छुटकारा पा गये थे। महाराज! इस दृष्टान्‍त से मैंने तुम्‍हें विस्‍तारपूर्वक क्षात्र-धर्म का मार्ग दिखाया है। अब संक्षेप में कुछ मेरी बात सुनो। चूहे ओर बिलाव एक दूसरे से वैर रखने वाले प्राणी हैं तो भी उन्‍होंने संकट के समय एक दूसरे से उत्‍तम प्रीति कर ली। उनमें परस्‍पर संधि कर लेने का विचार पैदा हो गया। ऐसे अवसरों पर बुद्धिमान पुरुष उत्‍तम बुद्धि का आश्रय ले संधि करके शत्रु को परास्‍त कर देता है। इसी तरह विद्वान पुरुष भी यदि असावधान रहे तो उसे दूसरे बुद्धिमान पुरुष परास्‍त कर देते हैं। इसलिये मनुष्‍य भयभीत होकर भी निडर के समान और किसी पर विश्‍वास न करते हुए भी विश्‍वास करने वाले के समान बर्ताव करे, उसे कभी असावधान होकर नहीं चलना चाहिये। यदि चलता है तो नष्ट हो जाता है। नरेश्‍वर! समयानुसार शत्रु के साथ भी संधि और मित्र के साथ भी युद्ध करना उचित है। संधि के तत्त्व को जानने-वाले विद्वान पुरुष इसी बात को सदा कहते हैं। महाराज! ऐसा जानकार नीतिशास्त्र के तात्‍पर्य को हृदयंगम करके उद्योगशील एवं सावधान रहकर भय आने से पहले भयभीत के समान आचरण करना चाहिये। बलवान शत्रु के समीप डरे हुए के समान उपस्थित होना चाहिये। उसी तरह उसके साथ संधि भी कर लेनी चाहिये। सावधान पुरुष के उद्योगशील बने रहने से स्‍वयं ही संकट से बचाने वाली बुद्धि उत्‍पन्‍न होती है। राजन! जो पुरुष भय आने के पहले से ही उसकी ओर से सशंक रहता है, उसके सामने प्राय: भय का अवसर ही नहीं आता है; परंतु जो नि:शंक होकर दूसरों पर विश्‍वास कर लेता है, उसे सहसा बड़े भारी भय का सामना करना पड़ता है। जो मनुष्‍य अपने को बुद्धिमान मानकर निर्भय विचरता है, उसे कभी कोई सलाह नहीं देनी चाहिये; क्‍योंकि वह दूसरे की सलाह सुनता ही नहीं है। भय को न जानने की अपेक्षा उसे जानने वाला ठीक है; क्‍योंकि वह उससे बचने के लिये उपाय जानने की इच्‍छा से परिणामदर्शी पुरुषों के पास जाता है।[13]

इसलिये बुद्धिमान पुरुष को डरते हुए भी निर्भय के समान रहना चाहिये तथा भीतर से विश्‍वास न करते हुए भी ऊपर से विश्‍वासी पुरुष की भाँति बर्ताव करना चाहिये। कार्यों की कठिनता देखकर कभी कोई मिथ्‍या आचरण नहीं करना चाहिये। युधिष्ठिर! इस प्रकार यह मैंने तुम्‍हारे सामने नीति की बात बताने के लिये चूहे तथा बिलाव के इस प्राचीन इतिहास का वर्णन किया है। इसे सुनकर तुम अपने सुहृदों के बीच में यथा योग्‍य बर्ताव करो। श्रेष्ठ बुद्धि का आश्रय लेकर शत्रु और मित्र के भेद, संधि और विग्रह के अवसर का तथा विपत्ति से छूटने के उपाय का ज्ञान प्राप्‍त करना चाहिये। अपने और शत्रु के प्रयोजन यदि समान हो तो बलवान शत्रु के साथ स‍ंधि करके उससे मिलकर युक्तिपूर्वक अपना काम बनावे और कार्य पूरा हो जाने पर फिर कभी उसका विश्‍वास न करे। पृथ्‍वीनाथ! यह नीति धर्म, अर्थ और काम के अनुकूल है। तुम इसका आश्रय लो। मुझसे सुने हुए इस उपदेश के अनुसार कर्तव्‍यपालन में तत्‍पर हो सम्‍पूर्ण प्रजा की रक्षा करते हुए अपनी उन्‍नति लिये उठकर खडे़ हो जाओ। पाण्‍डुनन्‍दन! तुम्‍हारी जीवन यात्रा ब्राह्मणों के साथ होनी चाहिये। भरतनन्‍दन! ब्राह्मण लोग इहलोक और परलोक में भी परम कल्‍याणकारी होते हैं। प्रभो! नरेश्‍वर! ये ब्राह्मण धर्मज्ञ होने के साथ ही सदा कृतज्ञ होते हैं। सम्‍मानित होने पर शुभकारक एवं शुभचिन्‍तक होते हैं; अत: इनका सदा आदर-सम्‍मान करना चाहिये। राजन! तुम ब्राह्मणों के यथोचित सत्‍कार से क्रमश: राज्‍य, परम कल्‍याण, यश, कीर्ति तथा वंश परम्‍परा को बनाये रखने वाली संतति सब कुछ प्राप्‍त कर लोगे। भरतनन्‍दन! नरेश्‍वर! चूहे और बिलाव का जो यह सुन्‍दर उपाख्‍यान कहा गया है, यह संधि और विग्रह का ज्ञान तथा विशेष बुद्धि उत्‍पन्‍न करने वाला है। भूपाल को सदा इसी के अनुसार दृष्टि रखकर शत्रु मण्‍डल के साथ यथोचित व्‍यवहार करना चाहिये।[14]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 17-34
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 35-51
  4. 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 52-68
  5. 5.0 5.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 69-84
  6. 6.0 6.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 85-102
  7. 7.0 7.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 103-118
  8. 8.0 8.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 119-136
  9. 9.0 9.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 137-151
  10. 10.0 10.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 152-164
  11. 11.0 11.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 165-179
  12. 12.0 12.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 180-195
  13. 13.0 13.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 196-211
  14. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 138 श्लोक 212-221

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राजधर्मानुशासन पर्व
युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन | युधिष्ठिर का कर्ण को शाप मिलने का वृत्तांत पूछना | नारद का कर्ण को शाप प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना | कर्ण को ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुराम का शाप | कर्ण की मदद से दुर्योधन द्वारा कलिंगराज कन्या का अपहरण | कर्ण के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर जरासंध का उसे अंगदेश का राजा बनाना | युधिष्ठिर का स्त्रियों को शाप | युधिष्ठिर का अर्जुन से आन्तरिक खेद प्रकट करना | अर्जुन का युधिष्ठिर के मत का निराकरण करना | युधिष्ठिर का वानप्रस्थ एवं संन्यासी जीवन का निश्चय | भीम का राजा के लिए संन्यासी का विरोध | अर्जुन का इंद्र और ऋषि बालकों के संवाद का वर्णन | नकुल का गृहस्थ धर्म की प्रशंसा करते हुए युधिष्ठिर को समझाना | सहदेव का युधिष्ठिर को ममता और आसक्ति से मुक्त राज्य करने की सलाह देना | द्रौपदी का युधिष्ठिर को राजदण्डधारणपूर्वक शासन के लिए प्रेरित करना | अर्जुन द्वारा राज राजदण्ड की महत्ता का वर्णन | भीम का राजा को मोह छोड़कर राज्य-शासन के लिए प्रेरित करना | युधिष्ठिर द्वारा भीम की बात का विरोध एवं मुनिवृत्ति-ज्ञानी महात्माओं की प्रशंसा | जनक का दृष्टांत सुनाकर अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर को संन्यास ग्रहण से रोकना | युधिष्ठिर द्वारा अपने मत की यथार्थता का प्रतिपादन | मुनिवर देवस्थान का युधिष्ठिर को यज्ञानुष्ठान के लिए प्रेरित करना | देवस्थान मुनि द्वारा युधिष्ठिर के प्रति उत्तम धर्म-यज्ञादि का उपदेश | क्षत्रिय धर्म की प्रशंसा करते हुए अर्जुन पुन: युधिष्ठिर को समझाना | व्यास जी द्वारा शंख और लिखित की कथा सुनाना | व्यास द्वारा सुद्युम्न के दण्डधर्मपालन का महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिर को आज्ञा देना | व्यास का युधिष्ठिर को हयग्रीव का चरित्र सुनाकर कर्तव्यपालन के लिए जोर देना | सेनजित के उपदेश युक्त उद्गारों का उल्लेख करके व्यास का युधिष्ठिर को समझाना | युधिष्ठिर द्वारा धन के त्याग की महत्ता का प्रतिपादन | युधिष्ठिर को शोकवश शरीर त्यागने को उद्यत देख व्यास का समझाना | अश्मा ऋषि एवं जनक के संवाद द्वारा व्यास द्वारा युधिष्ठिर को समझाना | श्रीकृष्ण द्वारा नारद-सृंजय संवाद के रूप में युधिष्ठिर के शोक निवारण का प्रयत्न | महर्षि नारद और पर्वत का उपाख्यान | सुवर्णष्ठीवी के जन्म, मृत्यु और पुनर्जीवन का वृत्तांत | व्यास का अनेक युक्तियों से युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश | ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन | राजा पृथु के चरित्र का वर्णन | वर्णधर्म का वर्णन | आश्रम धर्म का वर्णन | ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व | वर्णाश्रम धर्म का वर्णन | राजर्धम का वर्णन | इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद | राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल | राष्ट्र की रक्षा और उन्नति | राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन | वसुमना और बृहस्पति का संवाद | राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन | राजा के प्रधान कर्तव्य | दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन | राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण | धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म | राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता | विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान | राज्य के कर्तव्य का वर्णन | युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन | उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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