जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश

महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 263 के अनुसार जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म के उपदेश देने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

तुलाधार द्वारा जाजलि से जीविका-वृत्ति का वर्णन करना

जाजलि ने कहा- वणिक् महोदय! तुम हाथ में तराजू लेकर सौदा तौलते हुए जिस धर्म का उपदेश करते हो, उससे तो स्‍वर्ग का दरवाजा ही बंद किये देते हो और प्राणियों की जीविका वृत्ति में भी रुकावट पैदा करते हो। वैश्‍यपुत्र! तुम्‍हें मालूम होना चाहिये कि खेती से ही अन्‍न पैदा होता है, जिससे तुम भी जी रहे हो। अन्‍न और पशुओं से ही मनुष्‍य का जीवन-निर्वाह होता है। उन्‍हीं से यज्ञ कार्य सम्‍पन्‍न होता है। तुम तो नास्तिकता की भी बातें करते हो। यदि पशुओं के कष्‍ट का ख्‍याल करके खेती आदि वृत्तियों का त्‍याग कर दिया जाय, तो इस संसार का जीवन ही समाप्‍त हो जायेगा।

तुलाधार ने कहा- जाजले! मैं तुम्‍हें हिंसातिरिक्‍त जीविका-वृत्ति बताऊँगा। ब्राह्मणदेव! मैं नास्तिक नहीं हूँ और न यज्ञ की ही निन्‍दा करता हूँ; परंतु यज्ञ के यथार्थ स्‍वरूप को समझने वाला पुरुष अत्‍यन्‍त दुर्लभ है। विप्र! ब्राह्मणों के लिये जिस यज्ञ का विधान है, उसको तो मैं नमस्‍कार करता हूँ और जो लोग उस यज्ञ को ठीक-ठीक जानते हैं, उनके चरणों में भी मस्‍तक झुकाता हूँ, किंतु खेद है, इस समय ब्राह्मण लोग अपने यज्ञ का परित्‍याग करके क्षत्रियोचित यज्ञों के अनुष्‍ठान में प्रवृत हो रहे हैं। ब्रह्मन्! धन कमाने के प्रयत्‍न में लगे हुए बहुत-से लोभी और नास्तिक पुरुषों ने वैदिक वचनों का तात्‍पर्य न समझकर सत्‍य-से प्रतीत होने वाले मिथ्‍या यज्ञों का प्रचार कर दिया है। जाजले! श्रुतियों और स्‍मृतियों में कहा गया है कि अमुक कर्म के लिये यह दक्षिणा देनी चाहिये, वह दक्षिणा देनी चाहिये, उसके अनुसार वैसी दक्षिणा देने से भी यह यज्ञ श्रेष्‍ठ माना जाता है; अन्‍यथा शक्ति रहते हुए यदि यज्ञकर्ता ने लोभ दिखाया तो उसको चोरी करने का पाप लगता है और उस कर्म में भी विपरीतता आ जाती है। शुभ कर्म के द्वारा जिस हविष्‍य का संग्रह किया जाता है, उसी के होम से देवता संतुष्‍ट होते हैं। शास्‍त्र के कथनानुसार नमस्‍कार, स्‍वाध्‍याय, घी और अन्‍न-इन सबके द्वारा देवताओं की पूजा हो सकती है। जो लोग कामना के वशीभूत होकर यज्ञ करते, तालाब खुदवाते या बगीचे लगवाते हैं, उन (सकाम भावयुक्‍त) असाधु पुरुषों से उन्‍हीं के समान गुणहीन संतान उत्‍पन्‍न होती है। लोभी पुरुषों से लोभी का जन्‍म होता है और समदर्शी पुरुषों से समदर्शी पुत्र उत्‍पन्‍न होता है। यजमान और ॠत्विज् स्‍वयं जैसे होते हैं, उनकी प्रजा भी वैसी ही होती है। जिस प्रकार आकाश से निर्मल जल की वर्षा होती है उसी प्रकार शुद्ध भाव से किये हुए यज्ञ से योग्‍य प्रजा की उत्‍पत्ति होती है। विप्रवर! अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्यमण्‍डल को प्राप्‍त होती है, सूर्य से जल की वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्‍न उपजता है और अन्‍न से सम्‍पूर्ण प्रजा जन्‍म तथा जीवन धारण करती है। पहले के लोग कर्तव्‍य समझकर यज्ञ में श्रद्धापूर्वक प्रवृत होते थे और उस यज्ञ से उनकी सम्‍पूर्ण कामनाएं स्‍वत: पूर्ण हो जाती थीं। पृथ्‍वी से बिना जोते-बोये ही काफी अन्‍न पैदा होता तथा जगत् की भलार्इ के लिये उनके शुभ संकल्‍प से ही वृक्षों और लताओं में फल-फूल लगते थे।[1]

वे यज्ञों में अपने लिये किसी फल की ओर दृष्टि नहीं रखते थे। जो मनुष्‍य यज्ञ से कोई फल मिलता है या नहीं, इस प्रकार का संदेह मन में लेकर किसी तरह यज्ञों में प्रवृत होते हैं, वे धन चाहने वाले लोभी, धूर्त और दुष्‍ट होते हैं। द्विजश्रेष्‍ठ! जो मनुष्‍य प्रमाणभूत वेद को अपने अप्रामाणिक कुतर्क द्वारा अमंगलकारी सिद्ध करता है, उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है, उसका मन सदा यहाँ पापों में ही लगा रहता है और वह अपने अशुभ कर्म के कारण पापाचारियों के लोकों (नरकों) में ही जाता है। जो करने योग्‍य कर्मों को अपना कर्तव्‍य समझता है और उसका पालन न होने पर भय मानता है, जिसकी दृष्टि में (ॠत्विक्, हविष्‍य, मन्‍त्र और अग्नि आदि) सब कुछ ब्रह्म ही है तथा जो किसी भी कर्तव्‍य को अपना नहीं मानता-कर्तापन का अभिमान नहीं रखता-वही सच्‍चा ब्राह्मण है। हमने सुना है कि यदि कर्म में किसी प्रकार की त्रुटि हो जाने के कारण वह गुणहीन हो जाय तो भी यदि वह निष्‍काम भाव से किया जा रहा है तो श्रेष्‍ठ ही है अर्थात वह कल्‍याणकारी ही होता है। निष्‍काम भाव से किये जाने वाले कर्म में यदि कुत्ते आदि अपवित्र पशुओं के द्वारा स्‍पर्श हो जाने से कोई बाधा भी आ जाय तथापि वह कर्म नष्‍ट नहीं होता, वह श्रेष्‍ठतम ही माना जाता है, अत: प्रत्‍येक कर्म में फल की भावना या कामना पर संयम-नियन्‍त्रण रखना आवश्‍यक है।[2]

प्राचीन काल के ब्राह्मण सत्‍य भाषण और इन्द्रिय-संयमरूप यज्ञ का अनुष्‍ठान करते थे। वे परम पुरुषार्थ (मोक्ष) के प्रति लोभ रखते थे, उन्‍हें लौकिक धन की प्‍यास नहीं रहती थी, वे उस ओर से सदा तृप्‍त रहते थे। वे सब लोग प्राप्‍त वस्‍तु का त्‍याग करने वाले और ईर्ष्‍या-द्वेष से रहित थे। वे क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्‍मा) के तत्त्व को जानने वाले और आत्‍मज्ञ-परायण थे। उपनिषदों के अध्‍ययन में तत्‍पर रहते तथा स्‍वयं संतुष्‍ट होकर दूसरों को भी संतोष देते थे। ब्रह्म सर्वस्‍वरूप है, सम्‍पूर्ण देवता उसी के रूप हैं, वह ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण के भीतर विराजमान है। इसलिये जाजले! इसके तृप्‍त होने पर सम्‍पूर्ण देवता तृप्‍त एवं संतुष्‍ट हो जाते हैं। जैसे सब प्रकार के रसों से तृप्‍त हुआ मनुष्‍य किसी भी रस का अभिनन्‍दन नहीं करता, उसी प्रकार जो ज्ञानानन्‍द से परितृप्‍त है, उसे अक्षय सुख देने वाली नित्‍य तृप्ति बनी रहती है। हम में से बहुत लोग ऐसे हैं, जिनका धर्म ही आधार है, जो धर्म में ही सुख मानते हैं तथा जिन्‍होंने सम्‍पूर्ण कर्तव्‍य-अकर्तव्‍य का निश्‍चय कर लिया है; परंतु हम लोगों का जो यथार्थरूप है, उसकी अपेक्षा बहुत महान् और व्‍यापक परमात्‍मा सर्वत्र सर्वात्‍मा रूप से विराजमान है-ऐसा ज्ञानी पुरुष देखता है। भवसागर से पार उतरने की इच्‍छा वाले कोई-कोई ज्ञान-विज्ञान सम्‍पन्‍न महात्‍मा पुरुष ही अत्‍यन्‍त पवित्र और पुण्‍यात्‍माओं से सेवित पुण्‍यदायक ब्रह्मलोक को प्राप्‍त होते हैं, जहाँ जाकर वे न तो शोक करते हैं, न वहां से नीचे गिरते हैं और न मन में किसी प्रकार की व्‍यथा ही अनुभव करते हैं। वे सात्त्विक महापुरुष उस ब्रह्म धाम को ही प्राप्‍त होते हैं, उन्‍हें स्‍वर्ग की इच्‍छा नहीं होती, वे यश और धन के लिये यज्ञ नहीं करते, सत्‍पुरुषों के मार्ग पर चलते और हिंसारहित यज्ञों का अनुष्‍ठान करते हैं। वनस्‍पति, अन्‍न और फल-मूल को ही वे हविष्‍य मानते हैं, धन की इच्‍छा रखने वाले लोभी ॠत्विज् इनका यज्ञ नहीं करते हैं।[2]

ज्ञानी ब्राह्मणों ने अपने को ही यज्ञ का उपकरण मानकर मानसिक यज्ञ का अनुष्‍ठान किया है। उन्‍होंने प्रजाहित की कामना से ही मानसिक यज्ञ का अनुष्‍ठान किया है। लोभी ॠत्विज् तो ऐसे लोगों का ही यज्ञ कराते हैं, जो अशुभ (मोक्ष की इच्‍छा से रहित) होते हैं, श्रेष्‍ठ पुरुष तो स्‍वधर्म का आचरण करते हुए ही प्रजा को स्‍वर्ग में पहुँचा देते हैं। जाजले! यही सोचकर मेरी बुद्धि भी सर्वत्र समान भाव ही रखती है। महामुने! श्रेष्‍ठ विद्वान ब्राह्मण सदा ही जिन द्रव्‍यों को लेकर यज्ञों में उपयोग करते हैं, उन्‍हीं के द्वारा वे दिव्‍य मार्ग से पुण्‍य लोकों में जाते हैं। जाजले! जो कामनाओं में आसक्‍त है, उसी मनुष्‍य की इस संसार में पुनरावृत्ति होती है। ज्ञानी का पुन: यहाँ जन्‍म नहीं होता। यद्यपि दोनों दिव्‍यमार्ग से ही पुण्‍य लोकों में जाते हैं, तथापि संकल्‍प-भेद से ही उनकी आवृत्ति और अनावृत्ति होती है।[3]

ज्ञानी महात्‍माओं की इच्‍छा होते ही उनके मानसिक संकल्‍प की सिद्धियों के अनुसार बैल स्‍वयं गाड़ी में जुतकर उनकी सवारी ढोने लगते हैं, दूध देने वाली गौएं स्‍वयं ही सब प्रकार के मनोरथों की सिद्धिरूप दुग्‍ध प्रदान करती हैं। योगसिद्ध पुरुषों के पास स्‍वयं यज्ञ यूप उपस्थित हो जाते हैं और उन्‍हें लेकर वे पर्याप्‍त दक्षिणाओं से युक्‍त यज्ञों द्वारा यजन करते हैं। उनके ॠत्विजों के पास दक्षिणा भी स्‍वत: उपस्थित हो जाती है। जिसका अन्‍त:करण इस प्रकार शुद्ध एवं सिद्ध हो गया है, वही पृथ्‍वी को उपलब्‍ध कर सकता है। ब्रह्मन! इसलिये वे योगसिद्ध पुरुष औषधियों – अन्‍न आदि के द्वारा यज्ञ कर सकते हैं। जो पहले बताये अनुसार मूढ़ लोग हैं, वे उस तरह का यज्ञ नहीं कर सकते। कर्मफल का त्‍याग करने वाले महात्‍माओं का ऐसा अद्भुत माहात्‍म्‍य है, इसलिये मैं त्‍याग को आगे रखकर तुमसे ऐसी बात कह रहा हूँ। जिसके मन में कोई कामना नहीं है, जो किसी फल की इच्‍छा से कर्मों को आरम्‍भ नहीं करता, नमस्‍कार और स्‍तुति से अलग रहता है, जिसका धर्म नहीं क्षीण हुआ है, कर्म-बन्‍धन क्षीण हो गया है, उसी पुरुष को देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं। जाजले! जो ब्राह्मण वेदाध्‍ययन, यजन और ब्राह्मणों को दान देना आदि वर्णोचित कर्म नहीं करता और मनोहर भोग-पदार्थों की लिप्‍सा रखता है, वह कुत्सित गति को प्राप्‍त होता है। किंतु निष्‍काम धर्म को देवता के समान आराध्‍य बनाने वाला मनुष्‍य यज्ञ के यथार्थ फल-मोक्ष को प्राप्‍त कर लेता है।

जाजलि द्वारा पुन: तुलाधार से प्रश्न करना

जाजलि ने पूछा- वैश्‍यप्रवर! मैंने आत्‍मयाजी मुनियों के समीप तुम्‍हारे द्वारा प्रतिपादित तत्त्व को कभी नहीं सुना। सम्‍भवत: यह समझने में कठिन भी है, क्‍योंकि पूर्वकालीन महर्षियों ने उसके ऊपर विशेष विचार नहीं किया है। जिन्‍होंने विचार किया है, उन्‍होंने भी उत्तम होने पर भी इस धर्म की जगत् में स्‍थापना नहीं की है; अत: मैं तुमसे ही पूछता हूँ। वणिक् पुत्र! यदि इस प्रकार आत्‍मतीर्थ में पशु अर्थात् अज्ञानी मानव आत्‍मयज्ञ का सौभाग्‍य नहीं पा सकते तो किस कर्म से उन्‍हें सुख की प्राप्ति हो सकती है? महामते! यह बात मुझे बताओ। मैं तुम्‍हारे कथन पर अधिक श्रद्धा रखता हूँ।[3]

तुलाधार द्वारा जाजलि के प्रश्न का उत्तर देना

तुलाधार ने कहा– ब्रह्मन्! जिन दम्‍भी पुरुषों के यज्ञ अश्रद्धा आदि दोषों के कारण यज्ञ कहलाने योग्‍य नहीं रह जाते, वे न तो मानसिक यज्ञ के अधिकारी हैं और न क्रियात्‍मक यज्ञ के ही। श्रद्धालु पुरुष तो घी, दूध, दही और विशेषत: पूर्णाहुति से ही अपना यज्ञ पूर्ण करते हैं। श्रद्धालुओं में जो असमर्थ हैं, उनका यज्ञ गाय अपनी पूंछ के बालों के स्‍पर्श से, श्रृंगजल से और पैरों की धूल से ही पूर्ण कर देती है। इसी विधि से देवता के लिये घी आदि द्रव्‍य समर्पित करने के लिये श्रद्धा को ही पत्‍नी बनाये और यज्ञ को ही देवता के समान आराध्‍य बनाकर यथावत् रूप से यज्ञ पुरुष भगवान विष्‍णु को प्राप्‍त करे। य‍ज्ञविहित समस्‍त पशुओं के दुग्‍ध आदि से निर्मित पुरोडाश को ही पवित्र बताया जाता है। सारी नदियाँ ही सरस्‍वती का रूप हैं और समस्‍त पर्वत ही पुण्‍यमय प्रदेश हैं। जाजले! यह आत्‍मा ही प्रधान तीर्थ है। आप तीर्थ सेवन के लिये देश-देश में मत भटकिये। जो यहाँ मेरे बताये हुए अहिंसाप्रधान धर्मों का आचरण करता है तथा विशेष कारणों से धर्म का अनुसंधान करता है, वह कल्‍याणकारी लोकों को प्राप्‍त होता है। भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इस प्रकार हिंसारहित, युक्तिसंगत तथा श्रेष्‍ठ पुरुषों द्वारा सेवित धर्मों की ही तुलाधार वैश्‍य ने सदा प्रशंसा की थी।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 263 श्लोक 1-12
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 263 श्लोक 13-26
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 263 श्लोक 27-38
  4. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 263 श्लोक 39-45

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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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