- महाभारत शान्ति पर्व के मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 316 वें अध्याय में याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
याज्ञवल्क्य जी और सूर्य का संवाद
याज्ञवल्क्यजी कहते हैं—नरेश्वर! तुमने जो मुझसे अव्यक्त में स्थित पर ब्रह्मा के विषय में प्रश्न किया है, वह अत्यन्त गूढ़ है। उसके विषय में ध्यान देकर सुनो। मिथिलापते! पूर्वकाल में मैंने शास्त्रोक्त विधि से व्रत का आचरण करते हुए नतमस्तक होकर भगवान् सूर्य से जिस प्रकार शुक्लयजुर्वेद के मन्त्र उपलब्ध किये थे, वह सब प्रसंग सुनो। निष्पाप नरेश! पहले की बात है, मैंने बड़ी भारी तपस्या करके तपने वाले भगवान् सूर्य की आराधना की थी। उससे प्रसन्न होकर भगवान् सूर्य ने मुझसे कहा— 'ब्रह्मार्षे! तुम्हारी जैसी इच्छा हो, उसके अनुसार कोई वर माँगो। वह अत्यन्त दुर्लभ होने पर भी मैं तुम्हे दे दूँगा; क्योंकि मेरा मन तुम्हारी तपस्या से बहुत संतुष्ट है। मेरा कृपा-प्रसाद प्राय: दुर्लभ है’। तब मैंने मस्तक झुकाकर तपने वालों में श्रेष्ठ भगवान् सूर्य को प्रणाम किया और उनसे कहा—‘प्रभो! मैं शीघ्र ही ऐसे यजुर्मन्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ’ जो आज से पहले दूसरे किसी के उपयोग में नहीं आये हैं’। तब भगवान् सूर्य ने मुझसे कहा—‘ब्रह्मान्! मैं तुम्हें यजुर्वेद प्रदान करता हूँ। तुम अपना मुँह खोलो। वाड्मयी सरस्वती देवी तुम्हारे शरीर में प्रवेश करेंगी।’ यह सुनकर मैंने मुँह खोल दिया और सरस्वती देवी उसमें प्रविष्ट हो गयी। निष्पाप नरेश! सरस्वती के प्रवेश करते ही मैं ताप से जलने लगा और जल में घुस गया। महात्मा भास्कर की महिमा को न जानने तथा अपने में सहनशीलता न होने के कारण मुझे उस समय विशेष कष्ट हुआ था। तदनन्तर मुझे ताप से दग्ध होता देख भगवान् सूर्य ने कहा—‘तात! तुम दो घड़ी तक इस ताप को सहन करो। फिर यह स्वयं ही शीतल एवं शान्त हो जायगा’। जब मैं पूर्ण शीतल हो गया, तब मुझे देखकर भगवान् भास्कर ने कहा—‘विप्रवर! खिल और उपनिषदों- सहित सम्पूर्ण वेद तुम्हारे भीतर प्रतिष्ठित होंगे। ‘द्विजश्रेष्ठ! तुम सम्पूर्ण शतपथ का भी प्रणयन (सम्पादन) करोगे। इसके बाद तुम्हारी बुद्धि मोक्ष में स्थिर होगी। ‘तुम उस अभीष्ट पद को प्राप्त करोगे, जिसे सांख्यवेत्ता तथा योगी भी पाना चाहते हैं।’ इतना कहकर भगवान् सर्यू नहीं अदृश्य हो गये। मैंने सूर्य देव का वह कथन सुना। फिर जब वे चले गये, मैंने घर आकर प्रसन्नतापूर्वक सरस्वती का चिन्तन किया। मेरे स्मरण करते ही स्वर और व्यंजन-वर्णों से विभूषित अत्यन्त मंगलमयी सरस्वती देवी ॐकार को आगे करके मेरे सम्मुख प्रकट हुई। तब मैंने सरस्वती देवी तथा तपने वालों में श्रेष्ठ भगवान् भास्कर को अर्घ्य निवेदन किया और उन्हीं का चिन्तन करता हुआ बैठ गया। उस समय बड़े हर्ष के साथ मैंने रहस्य, संग्रह और परिशिष्ट भागसहित समस्त शतपथ का संकलन किया। महाराज! तदनन्तर मैंने अपने सौ उत्तम शिष्यों को शतपथ का अध्ययन कराया। इसके बाद शिष्यसहित अपने महामनस्वी मामा का (जो पहले मुझे तिरस्कृत कर चुके थे) अप्रिय करने के लिये किरणों से प्रकाशित होने वाले सूर्य की भाँति शिष्यों से सुशोभित हो मैंने तुम्हारे पिता महात्मा राजा जनक के यज्ञ का अनुष्ठान कराया।[1]
याज्ञवल्क्य द्वारा दक्षिणा देना
उस समय अपने वेद की दक्षिणा के लिये मामा के द्वारा विशेष आग्रह होने पर महर्षि देवल के सामने ही मैंने आधी दक्षिणा उन्हें दे दी और आधी स्वयं ग्रहण की। तदनन्तर सुमन्तु, पैल, जैमिनि, तुम्हारे पिता तथा अन्य ऋषि-मुनियों ने मेरा बड़ा आदर-सत्कार किया। निष्पाप नरेश! इस प्रकार मैंने सूर्यदेव से शुक्लयजुर्वेद की पंद्रह शाखाएँ प्राप्त की। इसी तरह रोमहर्षण सूत से मैंने पुराणों का अध्ययन किया। नरेश्वर! तदन्तर मैंने बीजरूप प्रणव और सरस्वती देवी का सामने करके भगवान् सूर्य की कृपा से शतपथ की रचना आरम्भ की और इस अपूर्व ग्रन्थ को पूर्ण कर लिया और जो मोक्ष का मार्ग मुझे अभीष्ट था, उसका भी भलीभाँति सम्पादन किया। फिर मैंने शिष्यों को वह सारा ग्रन्थ रहस्य और संग्रह-सहित पढ़ाया और उन्हें घर जाने की अनुमति दे दी। फिर वे सभी शुद्ध आचार-विचार वाले शिष्य अत्यन्त हर्षित हो अपने-अपने घर को चले गये। इस प्रकार सूर्यदेव के द्वारा उपदेश की हुई शुक्लयजुर्वेद विद्या की इन पंद्रह शाखाओं का ज्ञान प्राप्त करके मैंने इच्छानुसार वेद्यतत्व का चिन्तन किया है। राजन्! एक समय वेदान्तज्ञान में कुशल विश्वावसु नामक गन्धर्व मेरे पास आया एवं इस बात का विचार करते हुए कि यहाँ ब्राह्मण- जाति के लिये हितकर क्या है ?[2]-
विश्वावसु के चौबीस प्रश्न
सत्य और सर्वोत्तम ज्ञातव्य वस्तु क्या है ? मुझसे पूछने लगा। पृथ्वीनाथ! तत्पश्चात् उन्होंने वेद के सम्बन्ध में चौबीस प्रश्न पूछे। फिर आन्वीक्षिकी विद्या के सम्बन्ध में पचीसवाँ प्रश्न उपस्थित किया। वे चौबीस प्रश्न इस प्रकार हैं— 1. विश्वा क्या है ? 2. अविश्व क्या है ? 3. अश्वा क्या है ? 4. अश्व क्या है ? 5. मित्र क्या है ? 6. वरुण क्या है ? 7. ज्ञान क्या है ? 8. ज्ञेय क्या है ? 9. ज्ञाता क्या है ? 10. अज्ञ क्या है ? 11. क कौन है ? 12. कौन तपस्वी है ? 13. और कौन अतपस्वी है ? 14. कौन सूर्य है ? 15. तथा कौन अतिसूर्य ? 16. और विद्या क्या है ? 17. तथा अविद्या क्या है ? 18. राजन्! वेद्य क्या है ? 19. अवेद्य क्या है ? 20. चल क्या है ? 21. अचल क्या है ? 22. अपूर्व क्या है ? 23. अक्षय क्या है ? 24. और विनाशशील क्या है ? ये ही उनके पास परम उत्तम प्रश्न हैं। महाराज! इन प्रश्नों को सुनकर मैंने गन्धर्वशिरोमणि राजा विश्वावसु से कहा—‘ राजन्! आपने क्रमश: बड़े उत्तम प्रश्न उपस्थित किये हैं। आप अर्थ के ज्ञाता हैं। थोड़ी देर ठहर जाइये, तब तक मैं आपके इन प्रश्नों पर विचार कर लेता हूँ । ‘तब 'बहुत अच्छा’ कहकर गन्धर्वराज चुपचाप बैठे रहे। तदनन्दर मैंने पुन: सरस्वती देवी का मन-ही–मन चिन्तन किया। फिर तो जैसे दही से घी निकल आता है, उसी प्रकार उन प्रश्नों का उत्तर निकल आया। राजन्! तात! उस समय मैं वहाँ उपनिषद्, उसके परिशिष्ट भाग और परम उत्तम आन्वीक्षिकी विद्या पर दृष्टिपात करके मन के द्वारा उन सबका मन्थन करने लगा। नृपश्रेष्ठ! यह आन्वीक्षिकी विद्या (त्रयी, वार्ता और दण्डनीति—इन तीन विद्याओं की अपेक्षा से) चौथी बतायी गयी है। यह मोक्ष में सहायक है। पचीसवें तत्वरूप पुरुष अधिष्ठित उस विद्या का मैंने तुम से प्रतिपादन किया था (वही विश्वावसु के निकट भी कही गयी)।[2]
याज्ञवल्क्य द्वारा प्रश्नों के उत्तर देना
राजन्! उस समय मैंने राजा विश्वावसु से कहा—‘गन्धर्वराज! आपने यहाँ मुझसे जो प्रश्न पूछे हैं, उनका उत्तर सुनिये। गन्धर्वपते! आपने जो विश्वा और अविश्व इत्यादि कहकर यह प्रश्नावली उपस्थित की है, उसमें विश्वा अव्यक्त प्रकृति का नाम है। यह संचार-बन्धन में डालने वाली होने के कारण भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में भयंकर है— इस बात को आप अच्छी तरह समझ लें। इस प्रकार विश्वा नाम से प्रसिद्ध जो अव्यक्त प्रकृति है, वह त्रिगुण्मयी है; क्योंकि वही त्रिगुणात्मक जगत् को उत्पन्न करने वाली है। उससे भिन्न जो निष्कल (कलाओं से रहित) आत्मा है, वही अविश्व कहलाता है। इसी तरह अश्व और अश्वाकी जोड़ी भी देखी जाती है (अर्थात् अश्वा अव्यक्त प्रकृति और अश्व पुरुष)। अव्यक्त प्रकृति को सगुण बताया गया है और पुरुष को निर्गुण। इसी प्रकार वरुण को प्रकृति समझना चाहिये और मित्र को पुरुष। (भौतिक) ज्ञान शब्द से प्रकृति का प्रतिपादन किया गया है और निष्कल आत्मा को ज्ञेय बताया गया है। इसी तरह अज्ञ प्रकृति है और उससे भिन्न निष्कल पुरुष को ‘ज्ञाता’ बताया गया है। क, तपा ओर अतपा के विषय में जो प्रश्न उपस्थित किया गया है, उसके विषय में बताया जाता है। पुरुष को ही ‘क’ कहते हैं। प्रकृति का ही नाम तपा है और निष्कल पुरुष को अतपा नाम दिया गया है। अव्यक्त प्रकृति को सूर्य और निष्कल पुरुष को अतिसूर्य कहा गया है। प्रकृति को अविद्या जानना चाहिये और पुरुष विद्या कहलाता है। इसी तरह अवेद्य नाम से अव्यक्त प्रकृति का और वेद्य नाम से पुरुष का प्रतिपादन किया जाता है। आपने जो चल और अचल के विषय में प्रश्न किया है, उसका भी उत्तर सुनिये। सृष्टि और संहार की कारण भूता प्रकृति को ‘चला’ कहा गया है और सृष्टि तथा प्रलय का कर्ता पुरुष ही निश्चल पुरुष माना गया है। उसी प्रकार अव्यक्त प्रकृति वेद्य ( जानने में आने वाली) है और पुरुष अवेद्य (जानने में न आने वाला)। अध्यात्मतत्व का निश्चयात्मक ज्ञान रखने वाले विद्वान् कहत हैं कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अज्ञ है, दोनों ही निश्चल हैं और दोनों ही अक्षय, अजन्मा तथा नित्य हैं। ज्ञानी पुरुषों का कथन है कि जन्म ग्रहण करने पर भी क्षयरहित होने के कारण यहाँ पुरुष को अजन्मा, अविनाशी और अक्षय कहा गया है; क्योंकि उसका कभी क्षय नहीं होता है। गुणों का क्षय होने के कारण प्रकृति क्षयशील मानी गयी है और उसका प्रेरक होने के कारण पुरुष को विद्वानों ने अक्षय कहा है। गन्धर्वराज! यह मैंने आपको चौथी आन्वीक्षिकी विद्या, जो मोक्ष में सहायक है, बतायी है।[3]-
वेदज्ञान का न जानने वाले मूढ़
विश्वावसो! आन्वीक्षिकी विद्यासहित वेद-विद्यारूपी धन का उपार्जन करके प्रयत्नपूर्वक नित्यकर्म में संलग्न रहना चाहिये। सभी वेद एकान्तत: स्वाध्याय और मनन करने के योग्य माने गये हैं। गन्धर्वराज! समस्त भूत जिसमें स्थित हैं, जिससे उत्पन्न होते हौर जिस में लीन हो जाते हैं, उस वेद प्रतिपाद्य ज्ञेय परमात्मा को जो नहीं जानते है, वे परमार्थ से भ्रष्ट होकर जन्मते और मरते रहते हैं। सांगोपांग वेद पढ़कर भी जो वेदों के द्वारा जानने के योग्य परमेश्वर को नहीं जानता, वह मूढ़ केवल वेदों का बोझ ढोने वाला है।[3] गन्धर्वशिरोमणे! जो घी पाने की इच्छा रखकर गधी के दूध को मथता है, उसे वहाँ विष्ठा ही दिखायी देती है। उसे न तो वहाँ मक्खन ही मिलता है और न घी ही। इसी प्रकार जो वेदों का अध्ययन करके भी वेद्य और अवेद्य का तत्व नहीं जानता, वह मूढ़बुद्धि मानव केवल ज्ञान का बोझ ढोने वाला माना गया है। मनुष्य को सदा ही तत्पर होकर अन्तरात्मा के द्वारा इन दोनों प्रकृति और पुरुष का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। जिससे बारंबार उसे जन्म–मृत्यु के चक्कर में न पड़ना पड़े। संसार में जन्म और मरण की परम्परा निरन्तर चलती रहती है—ऐसा सोचकर वैदिक कर्मकाण्ड में बताये हुए सभी कर्मों और उनके फलों को विनाशशील जानकर उनका परित्याग करके मनुष्य को यहाँ अक्षय धर्म का आश्रय लेना चाहिये। कश्यपनन्दन! जब साधक प्रतिदिन परमात्मा के स्वरूप का विचार एवं चिन्तन करने लगता है, जब वह प्रकृति के संसर्ग से रहित होकर छब्बीसवें तत्वरूप परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है। मूढ़बुद्धि मानव उस आत्मा के सम्बन्ध में द्वैतभाव से युक्त धारणा रखते हुए कहते हैं—‘सनातन अव्यक्त परमात्मा दूसरा है और पचीसवाँ तत्वरूप जीवात्मा दूसरा, परंतु साधु पुरुष उन दोनों का एक मानते हैं। वे जन्म और मृत्यु के भय से रहित होकर परम पद पोने की इच्छा रखने वाला सांख्यवेत्ता और योगी जीवात्मा और परमात्मा को एक-दूसरे से भिन्न नहीं मानते हैं। जीव और ईश्वर का अभेद बताने वाला जो यह पूर्वोक्त दर्शन अथवा साधुमत है, उसका वे भी अभिनन्दन करते ही हैं।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 317 श्लोक 1-12
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 318 श्लोक 19-35
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 318 श्लोक 36-50
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 318 श्लोक 51-68
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| आपत्ति के समय राजा का धर्म
- आपद्धर्म पर्व
आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना
- मोक्षधर्म पर्व
शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना
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