इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद

महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 64 के अनुसार इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद इस प्रकार है[1]-


माधान्ता का इंद्ररूपी विष्णु से विश्वरुप भगवान को देखने की इच्छा से यज्ञ करना

मैं इस विषयमें तात्त्विक अर्थ का निश्चय करने वाला एक धर्ममय इतिहास सुनाऊँगा। पहले की बात है, यह सारा जगत् दानवता के समुद्र में निमग्र होकर उच्छृंखल हो चलाा था। राजेन्द्र! उन्हीं दिनों मान्धाता नाम से प्रसिद्ध एक पराक्रमी पृथ्वीपालक नरेश हुए थे, जिन्होंने आदि, मध्य और अन्त से रहित भगवान नारायण देव का दर्शन पाने की इच्छा से एक यज्ञ का अनुष्ठान किया। राजसिंह! राजा मान्धाता ने उस यज्ञ में परमात्मा भगवान विष्णु के चरणों की पृथ्वी पर मस्तक रखकर उन्हें प्रणाम किया। उस समय श्रीहरि ने देवराज इन्द्र का रूप धारण करके उन्हें दर्शन दिया। श्रेष्ठ भूपालों से घिरे हुए मान्धाता ने उन इन्द्ररूपधारी भगवान का पूजन किया। फिर उन राजसिंह और महात्मा इन्द्र में महातेजस्वी भगवान विष्णु के विषय में यह महान् संवाद हुआ।

विष्णु का माधान्ता से प्रश्न करना

इन्द्र बोले-धर्मात्माओं में श्रेष्ठ नरेश! आदिदेव पुराणपुरुष भगवान नारायण अप्रमेय हैं। वे अपनी अनन्त मायाशक्ति, असीम धैर्य तथा अमित बल-पराक्रमसे सम्पन्न हैं, तुम जो उनका दर्शन करना चाहते हो, उसका क्या कारण है ? तुम्हें उनसे कौन-सी वस्तु प्राप्त करने की इच्छा है। उन विश्वरूप भगवान को मैं और साक्षात् ब्रह्माजी भी नहीं देख सकते। राजन्! तुम्हारे हृदय में जो दूसरी कामनाएँ हों, उन्हें मैं पूर्ण कर दूँगा; क्योंकि तुम मनुष्यों के राजा हो। नरेश्वर! तुम सत्यनिष्ठ, धर्मपरायण, जितेन्द्रिय और शूरवीर हो, देवताओं के प्रति अविचल प्रेमभाव रखते हो, तूम्हारी बुद्धि, भक्ति और उत्तम श्रद्धा से संतुष्ट होकर मैं तुम्हें इच्छानुसार वर दे रहा हूँ।[2]-

मान्धाता ने कहा-भगवन! मैं आपके चरणों में मस्तक झुकाकर आपको प्रसन्न करके आपकी ही दया से आदि देव भगवान विष्णु का दर्शन प्राप्त कर लूँगा, इसमें संशय नही है। इस समय मैं समस्त कामनाओं का परित्याग करके केवल धर्म सम्पादन की इच्छा रखकर वर में जाना चाहता हूँ, क्योंकि लोक में सभी सत्पुरुष अन्त में इसी सन्मार्ग का दिग्दर्शन करा गये हैं। विशाल एवं अप्रमेय क्षात्रधर्म के प्रभाव से मैंने उत्तम लोक प्राप्त किये और सर्वत्र अपने यश का प्रचार एवं प्रसार कर दिया; परंतु आदि देव भगवान विष्णु से जिस धर्म की प्रवृत्ति हुई है, उस लोकश्रेष्ठ धर्म का आचरण करना मैं नहीं जानता। इन्द्र बोले-राजन्! आदिदेव भगवान विष्णु से तो पहले राजधर्म ही प्रवृत्त हुआ है। अन्य सभी धर्म उसी के अंग हैं और उसके बाद प्रकट हुए हैं। जो सैनिक शक्ति से सम्पन्न राजा नहीं हैं, वे धर्मपरायण होने पर भी दूसरों को अनायास ही धर्म विषयक परम गति की प्राप्ति नहीं करा सकते ।[2]

क्षात्रधर्म का वर्णन

क्षात्रधर्म ही सबसे श्रेष्ठ है। शेष धर्म असंख्य हैं और उनका फल भी विनाशशील है। इस क्षात्रधर्म के द्वारा ही शत्रुओं का दमन करके देवताओं तथा अमिततेजस्वी समस्त ऋषियों की रक्षा की थी। यदि वे अप्रमेय भगवान श्रीहरि समस्त शत्रुरूप असुरों का संहार नहीं करते तो न कहीं ब्राह्मणों का पता लगता, न जगत् के आदिस्रष्टा ब्रह्माजी ही दिखायी देते। न यह धर्म रहता और न आदि धर्म का ही पता लग सकता था। देवताओं में सर्वश्रेष्ठ आदिदेव भगवान विष्णु असुरों सहित इस पृथ्वी को अपने बल और पराक्रम से जीत नहीं लेते तो ब्राह्मणों का नाश हो जाने से चारों वर्ण और चारों आश्रमों के सभी धर्मों का लोप हो जाता। वे सदासे चले आने वाले धर्म सैकड़ों बार नष्ट हो चुके हैं, परंतु क्षात्रधर्म ने उनका पुनः उद्धार एवं प्रसार किया है। युग-युग में आदि धर्म (क्षात्रधर्म)- की प्रवृत्ति हुई है; इसलिये इस क्षात्रधर्म का लोक में सबसे श्रेष्ठ बताते हैं। युद्ध में अपने शरीर की आहुति देना, समस्त प्राणियों पर दया करना, लोकव्यवहार का ज्ञान प्राप्त करना, प्रजा की रक्षा करना, विषादग्रस्त एवं पीड़ित मनुष्यों को दुःख और कष्ट से छुड़ाना-ये सब बातें राजाओं के क्षात्रधर्म में ही विद्यमान हैं। जो लोग काम, क्रोध में फँसकर उच्छृखल हो गये हैं, वे भी राजा के भय से ही पाप नहीं कर पाते हैं, तथा जो सब प्रकार के धर्मों का पालन करने वाले श्रेष्ठ पुरुष हैं वे राजा से सुरक्षित हो सदाचार का सेवन करते हुए धर्म का सदुपदेश करते हैं। श्राजाओं से राजधर्म के द्वारा पुत्र की भाँति पालित होने वाले जगत के सम्पूर्ण प्राणी निर्भय विचरते हैं, इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार संसार में क्षात्रधर्म ही सब धर्मो से श्रेष्ठ, सनातन, नित्य, अविनाशी, मोक्ष तक पहुँचाने वाला सर्वतोमुखी है।[2] इन्द्र कहते हैं-राजन्! इस प्रकार क्षात्रधर्म सब धर्मो में श्रेष्ठ और शक्तिशाली है। यह सभी धर्मो से सम्पन्न बताया गया है। तुम जैसे लोक हितैषी उदार पुरुषों को सदा इस क्षात्रधर्म का ही पालन करना चाहिये। यदि इसका पालन नहीं किया जायगा तो प्रजाका नाश हो जायगा। समस्त प्राणियों पर दया करने वाले राजा को उचित है कि वह नीचे लिखे हुए कार्यों को ही श्रेष्ठ धर्म समझे। वह पृथ्वीका संस्कार करावे, राजसूयअश्वमेधादि यज्ञों में अवभृतस्नान करे, भिक्षाका आश्रय न ले, प्रजाका पालन करे और संग्रामभूमि में शरीरको त्याग दे। ऋषि-मुनि त्यागको ही श्रेष्ठ बताते हैं। उसमें भी युद्धमें राजालोग जो अपने शरीरका त्याग करते हैं, वह सबसे श्रेष्ठ त्याग है। सदा राजधर्ममें संलग्न रहनेवाले समस्त भूमिपालोंने जिस प्रकार युद्धमें प्राणत्याग किया है, वह सब तुम्हारी आँखों के सामने है। क्षत्रिय ब्रह्मचारी धर्मपालनकी इच्छा रखकर अनेक शास्त्रोंके ज्ञानका उपार्जन तथा गुरुशुश्रूषा करते हुए अकेला ही नित्य ब्रह्मचर्य-आश्रमके धर्मका आचरण करे। यह बात ऋषिलोग परस्पर मिलकर कहते हैं।[3]

गृहस्थ आश्रम धर्म

जनसाधरण के लिये व्यवहार आरम्भ होने पर राजा प्रिय और अप्रिय की भावना का प्रयत्न पूर्वक परित्याग करे। भिन्न-भिन्न उपायों, नियमों, पुरुषार्थों तथा सम्पूर्ण उद्योंगो के द्वारा चारों वर्णों की स्थापना एवं रक्षा करने के कारण क्षात्रधर्म एवं गृहस्थ-आश्रम को ही सबसे श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण धर्मों से सम्पन्न बताया गया है; क्योंकि सभी वर्णों के लोग उस क्षात्र-धर्म के सहयोग से ही अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। क्षत्रिय धर्म के न होने से उन सब धर्म का पालन करते हैं। क्षत्रिय धर्म के न होने से उन सब धर्मों का प्रयोजन विपरीत होता है; ऐसा कहते हैं। जो लोग सदा अर्थ साधन में ही आसक्त होकर मर्यादा छोड़ बैठते हैं, उन मनुष्यों को पशु कहा गया है। क्षत्रिय-धर्म अर्थ की प्राप्ति करानेके साथ-साथ उत्तम नीति का ज्ञान प्रदान करता है; इसलिये वह आश्रम-धर्मों से भी श्रेष्ठ है। तीनों वेदोंके विद्वान् ब्राह्मणों के लिये जो यज्ञादि कार्य विहित हैं तथा उनके लिये जो चारों आश्रम बताये गये हैं-उन्हीं को ब्राह्मण का सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा गया है। इसके विपरीत आचरण करने वाला ब्राह्मण शूद्रके समान ही शस्त्रों द्वारा वध के योग्य है।[3]

वेदों में धर्म

राजन्! चारों आश्रमों के जो धर्म हैं तथा वेदों में जो धर्म बताये गये हैं, उन सबका अनुसरण ब्राह्मण को ही करना चाहिये। दूसरा कोई शूद्र आदि कभी किसी तरह भी उन धर्मों को नहीं जान सकता। जो ब्राह्मण इसके विपरीत आचरण करता है, उसके लिये ब्राह्मणोचित वृत्ति की व्यवस्था नहीं की जाती। कर्म से ही धर्म की वृद्धि होती है। जो जिस प्रकार के धर्म को अपनाता है, वह वैसा ही हो जाता है। समस्त वर्णों में स्थित हुए जो ये धर्म हैं, उन्हें क्षत्रियों को उन्नति के शिखर पर पहँचना चाहिये। यही क्षत्रिय धर्म है, इसीलिये राजधर्म श्रेष्ठ है। दूसरे धर्म इस प्रकार श्रेष्ठ नहीं हैं। मेरे मतमें वीर क्षत्रियों के धर्मों में बल और पराक्रम की प्रधानता है। मान्धाता बाले-भगवन्! मेरे राज्यमें यवन, किराता, गान्धार, चीन, शबर, बर्बर, शक, तुषार, कक्ड, पल्हव, आन्ध्र, मन्द्रक, पौंड्र, पुलिन्द, रमठ और काम्बोज देशों के निवासी म्लेच्छगण सब ओर निवासी करते हैं, कुछ ब्रह्मणों और क्षत्रियों के भी संतानें हैं; कुछ वैश्य और शूद्र भी हैं, जो धर्म से गिर गये हैं। ये सब-के-सब चोरी और डकैती से जीविका चलाते हैं। ऐसे लोग किस प्रकार धर्मोका आचरण करेंगें? मेरे-जैसे राजाओंको इन्हें किस तरह मर्यादाके भीतर स्थापित करना चाहिये। भगवन्! सुरेश्वर! यह मैं सुनना चाहता हुँ। आप मुझे यह सब बताइये; क्योंकि आप ही हम क्षत्रियों के बन्धु हैं।[3]

वेदोक्त धर्म कर्म का अनुष्ठान

इन्द्र ने कहा-राजन्! जो लोग दस्यु-वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हैं, उन सबको अपने माता-पिता, आचार्य, गुरु तथा आश्रमवासी मुनियों की सेवा करनी चाहिये। भूमिपालों की सेवा करना भी समस्त दस्युओंका कर्तव्य है। वेदोक्त धर्म-कर्मों का अनुष्ठान भी उनके लिये शास्त्रविहित धर्म है। पितरों का श्राद्ध करना, कुआँ खुदवाना, जलक्षेत्र चलाना और लोगों के ठहरने के लिये धर्मशालाएँ बनवाना भी उनका कर्तव्य है। उन्हें यथा समय ब्राह्मणों को दान देते रहना चाहिये। अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोधशून्य बर्ताव, दूसरोंकी आजीविका तथा बँटवारे में मिली हुई पैतृक सम्पत्ति की रक्षा, स्त्री-पुत्रों का भरण-पोषण, बाहर-भीतर की शुद्धि रखना तथा द्रोहभावका त्याग करना-यह उन सबका धर्म है। कल्याण की इच्छा रखने वाले पुरुष को सब प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करके ब्राह्मणोंको भरपूर दक्षिणा देनी चाहिये। सभी दस्युओं को अधिक खर्च वाला पाक यज्ञ करना और उसके लिये धन देना चाहिये।[4]

ब्रह्मा जी द्वारा मनुष्यों के कर्तव्य निर्दिष्ट करना

निष्पाप नरेश! इस प्रकार प्रजापति ब्रह्मा ने सब मनुष्यों के कर्तव्य पहले ही निर्दिष्ट कर दिये हैं। उन दस्युओंको भी इनका यथावत् रूपसे पालन करना चाहिये। मान्धाता बोले- भगवान ! मनुष्य लोक में सभी वर्णों तथा चारों आश्रमों में भी डाकू और लुटेरे देखे जाते हैं, जो विभिन्न वेश-भूषाओं में अपने को छिपाये रखते हैं। इन्द्र बोले-निष्पाप नरेश! जब राजा की दुष्टता के कारण दण्डनीति नष्ट हो जाती है और राजधर्म तिरस्कृत हो जाता है, तब सभी प्राणी मोहवश कर्तव्य और अकर्तव्यका विवेक खो बैठते हैं। इस सत्ययुुग के समाप्त हो जाने पर नाना वेषधारी असंख्य भिक्षुक प्रकट हो जायेँगे और लोग आश्रमों के स्वरूप की विभिन्न मनमानी कल्पना करने लगेंगे। लोग काम और क्रोध से प्रेरित होकर कुमार्ग पर चलने लगेंगं। वे पुराणप्रोक्त प्राचीन धर्मों के पालन का जो उत्तम फल है, उस विषयकी बात नहीं सुनेंगे। जब महामनस्वी राजालोग दण्डनीति के द्वारा पापी को पाप करने से रोमते रहते हैं, तब सत्स्वरूप् परमोत्कृष्ट सनातन धर्मका ह्रास नहीं होता है। जो मनुष्य सम्पूर्ण लोकोंके गुरुस्वरूप् राजा का अपमान करता है, उसके किये दान, होम और श्राद्ध कभी सफल नहीं होते हैं।[4] राजा मनुष्यों का अधिपति, सनातन देवस्वरूप तथा धर्म की इच्छा रखने वाला होता है। देवता भी उसका अपमान नहीं करते हैं। भगवान प्रजापति ने जब इस सम्पूर्ण जगत की सृष्टि की थी, उस समय लोगों को सत्कर्म में लगाने और दुष्कर्म से निवृत्त करने के लिये उन्होंने धर्मरक्षा के हेतु क्षात्रबल को प्रतिष्ठित करने की अभिलाषा की थी। जो पुरुष प्रवृत्ति धर्म की गति का अपनी बुद्धि से विचार करता है, वही मेरे लिये माननीय और पूजनीय है; क्योंकि उसी में क्षात्रधर्म प्रतिष्ठित है। भीष्मजी कहते हैं- राजन्! मान्धाता को इस प्रकार उपदेश देकर इन्द्ररूपधारी भगवान विष्णु मरूद्गणों के साथ अविनाशी एवं सनातन पनमपद विष्णुधाम को चले गये। निष्पाप नरेश्वर! इस प्रकार प्राचीनकाल में भगवान विष्णु ने ही राजधर्म को प्रचलित किया और सत्पुरुषों द्वारा वह भलीभाँति आचरण में लाया गया। ऐसी दशा में कौन ऐसा सचेत और बहुश्रुत विद्वान् होगा, जो क्षात्रधर्म की अवहेलना करेगा ? अन्यायपूर्वक क्षत्रिय-धर्मकी अवहेलना करने से प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म भी उसी प्रकार बीच में ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे अन्धा मनुष्य रास्ते में नष्ट हो जाता है। पुरुषसिंह! निष्पाप युधिष्ठिर! विधाताका यह आज्ञाचक्र (राजधर्म) आदि कालमें प्रचलित हुआ और पूर्ववर्ती महापुरुषों का परम आश्रय बना रहा। तुम भी उसी पर चलो। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम इस क्षात्रधर्म के मार्ग पर चलने में पूर्णतः समर्थ हो।[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 64 श्लोक 1-17
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 64 श्लोक 18-30
  3. 3.0 3.1 3.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 65 श्लोक 1-16
  4. 4.0 4.1 4.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 65 श्लोक 17-35

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राजधर्मानुशासन पर्व
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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का 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उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा 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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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