वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन

महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 282 के अनुसार वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वृत्रासुर से शरीर से प्रकट हुए लक्षणों का वर्णन

भीष्‍म जी कहते हैं - महाराज! ज्‍वर से आविष्‍ट हुए वृत्रासुर के शरीर में जो लक्षण प्रकट हुए थे, उन्‍हें मुझसे सुनो। उसके मुख में विशेष जलन होने लगी। उसकी आकृति बड़ी भयानक हो गयी। अंगकान्ति बहुत फीकी पड़ गयी। शरीर जोर-जोर से काँपने लगा तथा बड़े वेग से साँस चलने लगी। नरेश्‍वर! उसके सारे शरीर में तीव्र रोमांच हो आया। वह लंबी साँस खींचने लगा। भरतनन्‍दन! वृत्रासुर के मुख से अत्‍यन्‍त भयंकर अकल्‍याणस्‍वरूपा महाघोर गीदड़ी के रूप में उसकी स्‍मरणशक्ति ही बाहर निकल पड़ी। उसके पार्श्‍वभाग में प्रज्‍वलित एवं प्रकाशित उल्‍काएँ गिरने लगी। गीध, कंक, बगले आदि भयंकर पक्षी अपनी बोली सुनाने लगे और एक-दूसरे से सटकर वत्रासुर के ऊपर चक्र की भाँति घूमने लगे। तदनन्‍तर महादेवजी के तेज से परिपुष्‍ट हो वज्र हाथ में लिये हुए इन्‍द्र ने रथपर बैठकर युद्ध में उस दैत्‍य की ओर देखा। राजेन्‍द्र! इसी समय तीव्र ज्‍वर से पीड़ित हो उस महान असुर ने अमानुषी गर्जना की और बारंबार जँभाई ली। जँभाई लेते समय ही इन्‍द्र ने उसके ऊपर वज्र का प्रहार किया। वह महातेजस्‍वी वज्र कालाग्नि के समान जान पड़ता था। उसने उस महाकाय दैत्‍य वृत्रासुर को तुरंत ही धराशायी कर दिया[1]। भरत श्रेष्‍ठ! फिर तो वृत्रासुर को मारा गया देख चारों ओर से देवताओं का सिहंनाद वहाँ बारंबार गूँजने लगा। दानवशत्रु महायशस्‍वी इन्‍द्र ने विष्‍णु के तेज से व्‍याप्‍त हुए वज्र के द्वारा वृत्रासुर का वध करके पुन: स्‍वर्गलोक में ही प्रवेश किया। कुरुनन्‍दन![1]

वृत्रासुर के मृत शरीर से ब्रह्महत्या का प्रकट होना

तदनन्‍तर वृत्रासुर के मृत शरीर से सम्‍पूर्ण जगत को भय देने वाली महाघोर एवं क्रूर स्‍वभाववाली ब्रह्महत्‍या प्रकट हुई। उसके दाँत बड़े विकराल थे। उसकी आकृति कृ्ष्‍ण और पिंगल वर्ण की थी। वह देखने में बड़ी भयानक और विकृत रूपवाली थी। भरतनन्‍दन! उसके बाल बिखरे हुए थे, नेत्र बड़े भयावने थे। उसके गले में नरमुण्‍डों की माला थी। भरतश्रेष्‍ठ! वह कृत्‍या-सी जान पड़ती थी। धर्मज्ञ राजेन्‍द्र! भरतसत्तम! उसके सारे अंग रक्‍त से भीगे हुऐ थे। उसने चीर और वल्‍कल पहन रखे थे। ऐसे विकराल रूपवाली वह भयानक ब्रह्महत्‍या वृत्र के शरीर से निकलकर तत्‍काल ही वज्रधारी इन्‍द्र को खोजने लगी। कुरुनन्‍दन! उस समय वृ‍त्रविनाशक इन्‍द्र लोकहित की कामना से स्‍वर्ग की ओर जा रहे थे। महातेजस्‍वी इन्‍द्र को युद्ध भूमि से निकलकर जाते देख ब्रह्महत्‍या कुछ ही काल में उनके पास जा पहुँची। उस ब्रह्महत्‍या ने देवेन्‍द्र को पकड़ लिया और वह तुरंत ही उनके शरीर से सट गयी। वह ब्रह्महत्‍याजनित भय उपस्थित होने पर इन्‍द्र उससे पिण्‍ड छुडा़ने के लिये भागे और कमल की नाल के भीतर घुसकर उसी में बहुत वर्षो तक छिपे रहे ।[1]

ब्रह्महत्या द्वारा इन्द्र को बंदी बनाना

परंतु उस ब्रह्महत्‍या ने यत्‍नपूर्वक उनका पीछा करके वहाँ भी उन्‍हें जा पकड़ा। कुरुनन्‍दन! ब्रह्महत्‍या द्वारा पकड़ लिये जाने पर इन्‍द्र निस्‍तेज हो गये। देवेन्‍द्र ने उसके निवारण के लिये महान प्रयत्‍न किया; परंतु किसी तरह भी वे उसे दूर न कर सके। भरतभूषण! ब्रह्महत्‍या ने देवराज इन्‍द्र को अपना बंदी बना ही लिया। वे उसी अवस्‍था में ब्रह्माजी के पास गये और मस्‍तक झुकाकर उन्‍होंने ब्रह्माजी को प्रणा‍म किया। भरतसत्तम! एक श्रेष्‍ठ ब्राह्मण के वध से पैदा हुई ब्रह्महत्‍या ने इन्‍द्र को पकड़ लिया है - यह जानकर ब्रह्माजी विचार करने लगे। महाबाहु भारत! तब ब्रह्माजी ने उस ब्रह्महत्‍या को अपनी मीठी वाणी द्वारा सान्‍त्‍वना देते हुए-से उससे कहा - 'भाविनि! ये देवताओं के राजा इन्‍द्र हैं, इन्‍हें छोड़ दो। मेरा यह प्रिय कार्य करो। बोलो, मैं तुम्‍हारी कौन-सी अभिलाषा पूर्ण करूँ। तुम जिस किसी मनोरथ को पाना चाहो उसे बताओ'।[2]-

ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी से निवास स्थान माँगना

ब्रह्महत्‍या बोली - तीनों लोकों की सृष्टि करने वाले त्रिभुवन पूजित आप परमदेव के प्रसन्‍न हो जाने पर मैं अपने सारे मनोरथों को पूर्ण हुआ मानती हूँ। अब आप मेरे लिये केवल निवासस्‍थान का प्रबन्‍ध कर दीजिये। आपने सम्‍पूर्ण लोकों की रक्षा के लिये यह धर्म की मर्यादा बाँधी है। देव! आप ही ने इस महत्‍वपूर्ण मर्यादा की स्‍थापना करके इसे चलाया है। धर्म के ज्ञाता सर्वलोकेश्‍वर प्रभो! जब आप प्रसन्‍न हैं तो मैं इन्‍द्र को छोड़कर हट जाऊँगी; परंतु आप मेरे लिये निवास-स्‍थान की व्‍यवस्‍था कर दीजिये।

ब्रह्माजी द्वारा ब्रह्महत्या के निवास का प्रबन्ध करना==

भीष्‍म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तब ब्रह्माजी ने ब्रह्महत्‍या से कहा - 'बहुत अच्‍छा, मैं तुम्‍हारे रहने की व्‍यवस्‍था करता हूँ' ऐसा कहकर उन्‍होंने उपाय द्वारा इन्‍द्र की ब्रह्महत्‍या को दूर किया। तदनन्‍तर महात्‍मा स्‍वयम्‍भू ने वहाँ अग्निदेव का स्‍मरण किया। उनके स्‍मरण करते ही वे ब्रह्माजी के पास आ गये और इस प्रकार बोले - 'भगवन्! अनिन्‍द्य देव! मैं आपके निकट आया हूँ। प्रभो! मुझे जो कार्य करना हो, उसके लिये आप मुझे आज्ञा दें। ब्रह्माजी ने कहा - अग्निदेव! मैं इन्‍द्र को पापमुक्‍त करने के लिये इस ब्रह्महत्‍या के कई भाग करूँगा। इसका एक चतुर्थांश तुम भी ग्रहण कर लो। अग्नि ने कहा - ब्रह्मन! प्रभो! मेरे लिये आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, परंतु मैं भी इस ब्रह्महत्‍या से मुक्‍त हो सकूँ, इसके लिये इसकी अन्तिम अवधि क्‍या होगी, इस पर आप विचार करें। विश्‍ववन्‍द्य पितामह! मैं इस बात को ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ।

ब्रह्माजी ने कहा- अग्निदेव! यदि किसी स्‍थान पर तुम प्रज्‍वलित हो रहे हो, वहाँ पहुँचकर कोई अधिकारी मानव तमोगुण से आवृत होने के कारण बीज, औषधि या रसों से स्‍वयं ही तुम्‍हारा पूजन नहीं करेगा तो उसी पर तुरंत यह ब्रह्महत्‍या चली जायेगी और उसी के भीतर निवास करने लगेगी; अत: हव्‍यवाहन! तुम्‍हारी मानसिक चिन्‍ता दूर हो जानी चाहिये। प्रभो! ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर हव्‍य और कव्‍य के भोक्‍ता भगवान अग्नि देव ने उन पितामह की वह आज्ञा स्‍वीकार कर ली। इस प्रकार ब्रह्महत्‍या का एक चौथाई भाग अग्नि में चला गया ।[2] महाराज! इसके बाद पितामह वृक्ष, तृण और औषधियों को बुलाकर उनसे भी वही बात कहने लगे। ब्रह्माजी बोले- बृत्रासुर के वध से यह महाभयंकर ब्रह्महत्‍या प्रकट होकर इन्‍द्र के पीछे लगी है। तुम लोग उसका एक चौथाई भाग स्‍वयं ग्रहण कर लो। राजन्! ब्रह्माजी ने जब उसी प्रकार सब बातें ठीक-ठीक सामने रख दीं, तब अग्नि के ही समान वृक्ष, तृण और औषधियों का समुदाय भी व्‍यथित हो उठा और उन सबने ब्रह्माजी से इस प्रकार कहा - 'लोकपितामह! हमारी इस ब्रह्महत्‍या का अन्‍त क्‍या होगा? हम तो यों ही दैव के मारे हुए स्‍थावर योनि में पड़े हैं; अत: अब आप पुन: हमें न मारें।[3]-

देवताओं का ब्रह्माजी से प्रार्थना करना

'देव! त्रिलोकीनाथ! हम लोग सदा अग्नि और धूप का ताप, सर्दी, वर्षा, आँधी और अस्‍त्र-शस्‍त्रों द्वारा भेदन-छेदन का कष्‍ट सहते रहते हैं। आज आपकी आज्ञा से इस ब्रह्महत्‍या को भी ग्रहण कर लेंगे; किंतु आप इनसे हमारे छुटकारे का उपाय भी तो सोचिये'। ब्रह्माजी ने कहा- संक्रान्ति, ग्रहण, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्वकाल प्राप्त होने पर जो मनुष्य मोहवश तुम्हारा भेदन-छेदन करेगा, उसी के पीछे तुम्हारी यह ब्रह्महत्या लग जायगी। भीष्म जी कहते हैं- राजन्! महात्मा ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर वृक्ष, औषधि और तृणका समुदाय उनकी पूजा करके जैसे आया था, वैसे ही शीघ्र लौट गया। भारत!

ब्रह्मा जी द्वारा ब्रह्महत्या के बचे भागों को बाँटना

तत्‍पश्‍चात् लोकपितामह ब्रह्माजी ने अप्सराओं को बुलाकर उन्हें मीठे वचनों द्वारा सान्त्वना देते हुए-से कहा - ‘सुन्दरियों! यह ब्रह्महत्या इन्द्र के पास से आयी है। तुम लोग मेरे कहने से इसका एक चतुर्थांश ग्रहण कर लो’। अप्सराएँ बोलीं- देवेश पितामह! आपकी आज्ञा से हमने इस ब्रह्महत्या को ग्रहण कर लेने का विचार किया है, किंतु इससे हमारे छुटकारे के समय का भी विचार करने की कृपा करें । ब्रह्माजी ने कहा - जो पुरुष रजस्वला स्त्रियों के साथ मैथुन करेगा, उस पर यह ब्रह्महत्या शीघ्र चली जायगी; अतः तुम्हारी यह मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिए। भीष्म जी कहते हैं- भरतश्रेष्ठ! यह सुनकर अप्सराओं का मन प्रसन्न हो गया। वे ‘बहुत अच्छा‘ कहकर अपने-अपने स्थानों में जाकर विहार करने लगीं। तब त्रिभुवन की सृष्टि करने वाले महातपस्वी भगवान ब्रह्मा ने पुनः जल का चिन्तन किया। उनके स्मरण करते ही तुरंत जल देवता वहाँ उपस्थित हो गये। राजन्! वे सब अमित तेजस्वी पितामह ब्रह्माजी के पास पहुँच कर उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार बोले- ‘शत्रुओं का दमन करने वाले प्रभो! देव! लोकनाथ! हम आपकी आज्ञा से सेवा में उपस्थित हुए हैं। हमें आज्ञा दीजिए, हम कौन-सी सेवा करें’ ? ब्रह्माजी ने कहा- वृत्रासुर के वध से इन्द्र को यह महाभयंकर ब्रह्महत्या प्राप्त हुई है। तुम लोग इसका एक चौथाई भाग ग्रहण कर लो। जल देवता ने कहा – लोकेश्वर! प्रभो! आप जैसा कहते हैं, ऐसा ही होगा; परंतु हम इस ब्रह्महत्या से किस समय छुटकारा पायेंगे, इसका भी विचार कर लें ।[3] देवेश्वर! आप ही इस सम्पूर्ण जगत् के परम आश्रय हैं। आप हमारा इस संकट से उद्धार कर दें, इससे बढ़कर हम लोगों पर दूसरा कौन अनुग्रह होगा । ब्रह्माजी ने कहा - जो मनुष्य अपनी बुद्धि की मन्दता से मोहित होकर जल में तुच्छ बुद्धि करके तुम्हारे भीतर थूक, खँखार या मल-मूत्र डालेगा, तुम्हें छोड़कर यह ब्रह्महत्या तुरंत उसी पर चली जायगी और उसी के भीतर निवास करेगी। इस प्रकार तुम लोगों का ब्रह्महत्या से उद्धार हो जायेगा, यह मैं सत्य कहता हूँ।[4]-

ब्रह्महत्या का इन्द्र को छोड़कर अपने निवास पर जाना

युधिष्ठिर! तदनन्तर देवराज इन्द्र को छोड़कर वह ब्रह्महत्या जी की आज्ञा से उनके दिये हुए पूर्वोक्त निवास-स्थानों को चली गयी। नरेश्वर! इस प्रकार इन्द्र को ब्रह्महत्या प्राप्त हुई थी, फिर उन्होंने ब्रह्माजी की आज्ञा लेकर अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया। महाराज! सुनने में आता है कि इन्द्र को जो ब्रह्महत्या लगी थी, उससे उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ करके ही शुद्धि लाभ की थी। पृथ्वीराज! देवराज इन्द्र ने सहस्रों शत्रुओं का वध करके अपनी खोयी हुई राजलक्ष्मी को पाकर अनुपम आनन्द प्राप्त किया। कुन्ती नन्दन! वृत्रासुर के रक्त से बहुतेरे छत्रक उत्पन्न हुए थे, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिये तथा यज्ञ की दीक्षा लेने वालों के लिये और तपस्वियों के लिये अभक्षणीय है। कुरुनन्दन! तुम भी इन ब्राह्मणों का सभी अवस्‍थाओं में प्रिय करो। ये इस पृथ्‍वी पर देवता के रूप में विख्‍यात हैं। कुरुकुलभूषण! इस तरह अमित तेजस्‍वी देवराज इन्‍द्र ने अपनी सूक्ष्‍म बुद्धि से काम लेकर उपायपूर्वक महान असुर वृत्र का वध किया था। कुन्‍तीकुमार! जैसे स्‍वर्गलोक में शत्रुसूदन इन्‍द्रदेव विजयी हुए थे, उसी प्रकार तुम भी इस पृथ्‍वी पर किसी से पराजित होने वाले नही हो। जो प्रत्‍येक पर्व के दिन ब्राह्मणों की सभा में इस कथा का प्रवचन करेंगे, उन्‍हें किसी प्रकार का पाप नहीं प्राप्‍त होगा। तात! इस प्रकार वृत्रासुर के प्रसंग से मैंने तुम्‍हें यह इन्‍द्र का अत्‍यन्‍त अद्भुत चरित्र सुना दिया। अब तुम और क्‍या सुनना चाहते हो ?[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 282 श्लोक 1-17
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 282 श्लोक 18-35
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 282 श्लोक 36-52
  4. 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 282 श्लोक 53-65

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राजधर्मानुशासन पर्व
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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को 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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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