राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना

महाभारत शान्ति पर्व के मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 320 वें अध्याय में राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-

जनक-सुलभा संवाद

आप मोक्षधर्म (संन्‍यास-आश्रम)-के अनुसार बर्ताव करती हैं और मैं गृहस्‍थ-आश्रम में स्थित हूँ; अत: आपके द्वारा यह दूसरा आश्रमसंकर नामक दोष का उत्‍पादन किया जा रहा है, जो अत्‍यन्‍त कष्‍टप्रद है। मैं यह भी नहीं जानता कि आप सगोत्रा हैं या असगोत्रा। इसी प्रकार आप भी मेरे विषय में कुछ नहीं जानतीं। अत: मुझ सगोत्र में प्रवेश करने के कारण आपके द्वारा तीसरा गोत्रसंकर नामक दोष उत्‍पन्‍न किया गया है। यदि आपके पति जीवित हैं अथवा कहीं परदेश में चल गये हैं तो आप परायी स्‍त्री होने के कारण मेरे लिये सर्वथा अगम्‍य हैं। ऐसी दशा में आपका यह बर्ताव धर्मसंकर नामक चौथा दोष है। आप कार्य-साधन की अपेक्षा रखकर अज्ञान अथवा मिथ्‍याज्ञान से युक्‍त हो ये सब न करने योग्‍य कार्य कर डालने को उद्यत हो गयी हैं। अथवा यदि आप स्‍वतन्‍त्र हैं तो कभी आपके द्वारा यदि कुछ शास्‍त्र का श्रवण किया गया हो तो आपने अपने ही दोष से वह सब व्‍यर्थ कर दिया है। आपका जो दोष छिपा हुआ था, उसे आपने स्‍वयं ही प्रकाशित कर दिया। इससे आप दुष्‍टा जान पड़ती हैं।

आपकी दुष्‍टता का यह और चौथा चिह्न स्‍पष्‍ट दिखायी दे रहा है, जो हृदय की प्रीति पर आघात करने वाला है। आप अपनी विजय चाहती हैं। आपने केवल मुझे ही जीतने की इच्‍छा नहीं की है, अपितु यह जो मेरी सारी सभा बैठी है, इसे भी जीतना चाहती हैं। आप मेरे पक्ष की पराजय और अपने पक्ष की विजय के लिये इन माननीय सभासदों पर भी बारंबार अपनी दृष्टि फेंक रही हैं। आप अपनी असहिष्‍णुताजनित योगसम मृद्धि के मोह से मोहित हो विष और अमृत को एक करने के समान काम के साथ योग का सम्‍बन्‍ध जोड़ रही हैं। स्‍त्री और पुरुष जब एक-दूसरे को चाहते हों, उस समय उन्‍हें जो संयोग-सुखका लाभ होता है, वह अमृत के समान मधुर है। यदि अनुरक्‍त नारी को अनुरक्‍त पुरुष की प्राप्ति नहीं हुई तो वह दोष विषके समान भयंकर होता है। आप मेरा स्‍पर्श न करें। मेरे चरित्र को उत्‍तम और निष्‍कलंक समझें और अपने शास्‍त्र (संन्‍यास-धर्म)–का निरन्‍तर पालन करती रहें। आपने मेरे विषय में यह जानने की इच्‍छा की थी कि यह राजा जीवन्‍मुक्‍त है या नहीं। यह सारा भाव आपके हृदय में प्रच्‍छन्‍न भाव से स्थित था, अत: इस समय आप मुझसे इसको छिपा नहीं सकतीं। यदि आप अपने कार्य से या किसी दूसरे राजा के कार्य से यहाँ वेष बदलकर आयी हों तो अब आपके लिये यथार्थ बात को गुप्‍त रखना उचित नहीं है। मनुष्‍य को चाहिये कि वह किसी राजा के पास या किसी ब्राह्मण के निकट अथवा स्त्रीजनाचित पातिव्रत्‍य गुण से सम्‍पन्‍न किसी सती-साध्‍वी नारी के समीप छह्मवेष धारण करके न जाय; क्‍योकि ये राजा, ब्राह्मण और पतिव्रता सत्री उस छह्मवेषधारी मनुष्‍य के धोखा देने पर उस पर कुपित हो उसका विनाश कर देते हैं। राजाओं का बल ऐश्‍वर्य है, वेदज्ञ ब्राह्मणों का बल वेद है तथा स्त्रियों का परम उत्‍तम बल रूप यौवन और सौभाग्‍य है। ये इन्‍हीं बलों से बलवान् होते हैं। अपने अभीष्‍ट अर्थ की सिद्धि चाहने वाले पुरुष को इनके पास सरल भाव से जाना चाहिये; क्‍योंकि इनके पति किया हुआ कुटिल भाव विनाश का कारण बन सकता है।[1]

सुलभा द्वारा दोष का वर्णन

अत: संन्‍यासिनि! आपको अपनी जाति, शास्‍त्र ज्ञान, चरित्र, अभिप्राय, स्‍वभाव एवं यहाँ आगमन का प्रयोजन भी यथार्थरूप से बताना उचित है। भीष्‍म जी कहते- युधिष्ठिर! राजा जनक ने इन दु:खजनक, अयोग्‍य और असंगत वचनों द्वारा उसका बड़ा तिरस्‍कार किया, तो भी सुलभा अपने मन में तनिक भी विचलित नहीं हुई। जब राजा की बात समाप्‍त हो गयी, तब परम सुन्‍दरी सुलभा ने अत्‍यन्‍त मधुर वचनों में भाषण देना आरम्‍भ किया।

सुलभा बोली- राजन्! वाणी और बुद्धि को दूषित करने वाले जो नौ-नौ दोष हैं, उनसे रहित, अठारह गुणों से सम्‍पन्‍न और युक्तिसंगत अर्थ से युक्‍त पद समूह को वाक्‍य कहते हैं। उस वाक्‍य में सौक्ष्‍म्‍य, सांख्‍य क्रम, निर्णय और प्रयोजन- ये पाँच प्रकार के अर्थ रहने चाहिये। ये जो सौक्ष्‍म्‍य यदि अर्थ हैं, ये पद, वाक्‍य, पदार्थ और वाक्‍यार्थरूप से खोलकर बताये जा रहे हैं। आप इनमें से एक-एक का अलग-अलग लक्षण सुनिये। जहाँ अनेक भिन्‍न-भिन्‍न ज्ञेय (अर्थ) उपस्थित हों और ‘यह घट है, यह पट है’ इस प्रकार वस्‍तुओं का पृथक्-पृथक् ज्ञान होता हो, ऐसे स्‍थलों में यथार्थ निर्णय करने वाली जो बुद्धि है, उसी का नाम सौक्ष्‍म्‍य है। जहाँ किसी विशेष अर्थ को अभीष्‍ट मानकर उसके दोषों और गुणों की विभागपूर्वक गणना की जाती है, उस अर्थ को सांख्‍य अथवा सांख्‍य समझना चाहिये। परिगणित गुणों और दोषों में से अमुक गुण या दोष पहले कहना चाहिये और अमुक को पीछे रहना अभीष्‍ट है। इस प्रकार जो पूर्वा पर के क्रम का विचार होता है, उसका नाम क्रम है और जिस वाक्‍य में ऐसा क्रम हो, उस वाक्‍य को वाक्‍य वेत्‍ता विद्वान् क्रमयुक्‍त कहते हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के विषय में किसी एक का विशेष रूप से प्रतिपादन करने की प्रतिज्ञा करके प्रवचन के अन्‍त में ‘यही वह अभीष्‍ट विषय है’ ऐसा कहकर जो सिद्धान्‍त स्थिर किया जाता है, उसी का नाम निर्णय है। नरेश्‍वर! इच्‍छा अथवा द्वेष से उत्‍पन्‍न हुए दु:खों के द्वारा जहाँ किसी एक प्रकार के दु:ख की प्रधानता हो जाय, जो वृत्ति उदय होती है, उसी को प्रयोजन कहते हैं। जनेश्‍वर! जिस वाक्‍य में पूर्वोक्‍त सौक्ष्‍म्‍य आदि गुण एक अर्थ में सम्मिलित हों, मेरे वैसे ही वाक्‍य को आप श्रवण करें। मैं ऐसा वाक्‍य बोलूँगी, जो सार्थक होगा। उसमें अर्थभेद नहीं होगा। वह न्‍यायमुक्‍त होगा। उसमें आवश्‍यकता से अधिक, कर्णकटु एवं संदेह-जनक पद नहीं होंगे। इस प्रकार मैं परम उत्‍तम वाक्‍य बोलूँगी। मेरे इस वचन में गुरु एवं निष्‍ठुर अक्षरों का संयोग नहीं होगा; कोमलकान्‍त सुकुमार पदावली होगी। वह पराड्मुख व्‍यक्तियों के लियें सुखद नहीं होगा। वह न तो झूठ होगा न धर्म, अर्थ और काम के विरुद्ध और संस्‍कार शून्‍य ही होगा। मेरे उस वाक्‍य में न्‍यून पदत्‍व नामक दोष नहीं रहेगा, कष्‍टकर शब्‍दों का प्रयोग नहीं होगा, उसका क्रमरहित उच्‍चारण नहीं होगा। उसमें दूसरे पदों के अध्‍याहार और लक्षण की आवश्‍यकता नहीं होगी। यह वाक्‍य निष्‍प्रयोजन और युक्तिशून्‍य भी नहीं होगा। मैं काम, क्रोध, भय, लोभ, दैन्‍य, अनार्यता, लज्‍जा, दया तथा अभिमान से किसी तरह कोई बात नहीं बोलूँगी। नरेश्‍वर! बोलने की इच्‍छा होने पर जब वक्‍ता, श्रोता और वाक्‍य-तीनों अविकल भाव से सम-स्थिति में आ जाते हैं, तब वक्‍ता का कहा हुआ अर्थ प्रकाशित होता है (श्रोता के समझ में आ जाता है)।[2]

जब बोलते समय वक्‍ता श्रोता की अवहेलना करके दूसरे के लिये अपनी बात कहने लगता है, उस समय वह वाक्‍य श्रोता के हृदय में प्रवेश नहीं करता है। और जो मनुष्‍य स्‍वार्थ त्‍यागकर दूसरे के लिये कुछ कहता है, उस समय उसके प्रति श्रोता के हृदय में आशंका उत्‍पन्‍न होती है, अत: वह वाक्‍य भी दोषयुक्‍त ही है। परंतु नरेश्‍वर! जो वक्‍ता अपने और श्रोता दोनों के लिये अनुकूल विषय ही बोलता है, वही वास्‍तव में वक्‍ता है, दूसरा नहीं। अत: राजन्! आप स्थिरचित्‍त एवं एकाग्र होकर यह वाक्‍य सम्‍पत्ति से युक्‍त सार्थक वचन सुनिये। महाराज! आपने मुझसे पूछा था कि आप कौन हैं, किसकी हैं और कहाँ से आयी हैं? अत: इसके उत्‍तर में मेरा यह कथन एकचित्‍त होकर सुनिये।

गुणों का वर्णन

राजन्! जैसे काठ के साथ लाह और धूल के साथ पानी की बूँदें मिलकर एक हो जाती हैं, उसी प्रकार इस जगत् में प्राणियों का जन्‍म कई तत्‍वों के मेल से होता है। शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस और गन्‍थ तथा पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ—ये आत्‍मा से पृथक् होने पर भी काष्‍ठ में सटे हुए लाह के समान आत्‍मा के साथ जुडे़ हुए हैं; परंतु इनमें स्‍वतन्‍त्र कोई प्रेरणा-शक्ति नहीं है। यही विद्वानों का निश्‍चय है। इनमें से एक-एक इन्द्रिय को न तो अपना ज्ञान है और न दूसरे का। नेत्र अपने नेत्रत्‍व को नहीं जानता। इसी प्रकार कान भी अपने विषय में कुछ नहीं जानता। इसी तरह ये इन्द्रियाँ और विषय परस्‍पर एक-दूसरे से मिल-जुलकर भी नहीं जान सकते। जैसे कि जल और धूल परस्‍पर मिलकर भी अपने सम्मिश्रण को नहीं जानते। शरीरस्‍थ इन्द्रियाँ विषयों का प्रत्‍यक्ष अनुभव करते समय अन्‍यान्‍य बाह्य गुणों की अपेक्षा रखती हैं। उन गुणों को आप मुझसे सुनिये। रूप,नेत्र, और प्रकाश— ये तीन किसी वस्‍तु को प्रत्‍यक्ष देखने में हेतु हैं। जैसे प्रत्‍यक्ष दर्शन में ये तीन हेतु हैं, उसी प्रकार अन्‍यान्‍य ज्ञान और ज्ञेय में भी तीन-तीन हेतु जानने चाहिये। ज्ञान और ज्ञातव्‍य विषयों के बीच में किसी ज्ञानेन्द्रिय के अतिरिक्‍त मन नामक एक दूसरा गुण भी रहता है, जिससे यह जीवात्‍मा किसी विषय में भले-बुरे का निश्‍चय करने के लिये विचार करता है। वहीं एक और बारहवाँ गुण भी है, जिसका नाम है बुद्धि। जिससे किसी ज्ञातव्‍य विषय में संशय उत्‍पन्‍न होने पर मनुष्‍य एक निश्‍चय पर पहुँचता है। उस बारहवें गुण बुद्धि में सत्‍वनामक एक (तेरहवाँ) गुण है, जिससे महासत्‍व और अल्‍पसत्‍व प्राणी का अनुमान किया जाता है। उस सत्त्‍व में ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसे अभिमान से युक्‍त अहंकार नामक एक अन्‍य चौहदवाँ गुण है, जिससे जीवात्‍मा ‘यह वस्‍तु मेरी है और यह वस्‍तु मेरी नहीं है’ ऐसा मानता है।

राजन्! उस अहंकार में वासना नामक एक गुण और माना गया है, जो पंद्रहवाँ है। वहाँ पृथक्-पृथक् कलाओं के समूह की जो समग्रता है, वह एक-अन्‍य गुण है। वह संघात की भाँति यहाँ सोलहवाँ कहा जाता है। जिसमें प्रकृति (माया) और व्‍यक्ति (प्रकाश)- ये दो गुण आश्रित हैं (यहाँ तक सब अठारह हुए)। सुख और दु:ख, जरा और मृत्‍यु, लाभ और हानि तथा प्रिय और अप्रिय अत्‍यादि द्वन्‍द्वों का जो योग है, यह उन्‍नसीवाँ गुण माना गया है।[3]

इस उन्‍नीसवें गुण से परे काल नामक दूसरा गुण और है। इसे बीसवाँ गुण समझिये। इसी से प्राणियों की उत्‍पत्ति और लय होते हैं। इन बीस गुणों का समुदाय एवं पाँच महाभूत तथा सद्वावयोग[4] और अस्‍द्रावयोग[5]-ये दो अन्‍य प्रकाशक गुण, ये सब मिलकर सत्‍ताईस हैं। ये जो बीस और सात गुण बताये गये हैं, इनके सिवा तीन गुण और हैं— विधि[6], शुक्र[7] और बल[8]। इस प्रकार गणना करने से बीस और दस तीस गुण होते हैं। ये सारे-के-सारे गुण जहाँ विद्यमान हैं, उसको शरीर कहा गया है। कोई-कोई विद्वान् अव्‍यक्‍त प्रकृति को इन तीस कलाओं का उपादान कारण मातने हैं। दूसरे स्‍थूलदर्शी विचारक व्‍यक्‍त अर्थात् परमाणुओं को कारण मानते हैं तथा कोई-कोई अव्‍यक्‍त और व्‍यक्‍त को अर्थात् प्रकृति और परमाणु—इन दोनों को उनका उपादान कारण समझते हैं। अव्‍यक्‍त हो, व्‍यक्‍त हो, दोनों हों अथवा चारों (ब्रह्मा, माया, जीव और अविद्या) कारण हों, अध्‍यात्‍म तत्‍व का चिन्‍तन करने वाले विद्वान् प्रकृति को ही सम्‍पूर्ण भूतों का उपादान कारण समझते हैं। राजेन्‍द्र! यह जो अव्‍यक्‍त प्रकृति सबका उपादान कारण है, यही पूर्वोक्‍त तीस कलाओं रूप में व्‍यक्‍त भाव को प्राप्‍त हुई है। मैं, आप तथा जो अन्‍य शरीरधारी हैं, उन सबके शरीरों की उत्‍पत्ति प्रकृति से ही हुई है। प्राणियों की वीर्य स्‍थापना से लेकर रजोवीर्य संयोग- सम्‍भूत कुछ ऐसी अवस्‍थाएँ हैं, जिनके सम्मिश्रण से ही ‘कलल’ नामक एक पदार्थ उत्‍पन्‍न होता है। कलल से बुद्बुद की उत्पत्ति होती है। बुद्बुद से मांसपेशी का प्रादुर्भाव माना गया है। पेशी से विभिन्‍न अंगों का निर्माण होता है और अंगों से रोमावलियाँ तथा नख प्रकट होते हैं। मिथिलानरेश! गर्भ में नौ मास पूर्ण हो जाने पर जीव जन्‍म ग्रहण करता है। उस समय उसे नाम और रूप प्राप्‍त होता है तथा वह विशेष प्रकार के चिह्न से स्‍त्री अथवा पुरुष समझा जाता है। जिस समय बालक का जन्‍म होता उस समय उसका जो रूप देखने में आता है, उसके नख और अंगुलियाँ ताँबे के समान लाल-लाल होती हैं, फिर जब वह कुमारावस्‍था को प्राप्‍त होता है तो उस समय उसका पहले का वह रूप नहीं उपलब्‍ध होता है। इसी प्रकार कुमारावस्‍था से जवानी को और जवानी से बुढ़ापे को वह प्राप्‍त होता है। इस क्रम से उत्‍तरोत्‍तर अवस्‍था में पहुँचने पर पूर्व-पूर्व अवस्‍था का रूप नहीं देखने में आता है। सभी प्राणियों में विभिन्‍न प्रयोजन की सिद्धि के लिये जो पूर्वोक्‍त कलाएँ हैं, उनके स्‍वरूप में प्रतिक्षण भेद या परिवर्तन हो रहा है; परंतु वह इतना सूक्ष्‍म है कि जान नहीं पड़ता। राजन्! प्रत्‍येक अवस्‍था में इन कलाओं का लय और उद्भव होता रहता है, किंतु दिखायी नहीं देता है; ठीक उसी तरह जैसे दीपक को लौ क्षण-क्षण में मिटती और उत्‍पन्‍न होती रहती है, पर दिखायी नहीं देती।[9]

जैसे दौड़ता हुआ अच्‍छा घोड़ा इतनी तीव्र गति से एक स्‍थान को छोड़कर पर पहुँच जाता है कि कुछ कहते नहीं बनता, उसी प्रकार यह प्रभावशाली लोक निरन्‍तर वेगपूर्वक एक अवस्‍था से दूसरी अवस्‍था में जा रहा है, अत: उसके विषय में यह प्रश्‍न नहीं बन सकता है कि ‘कौन कहाँ से आता है और कौन कहाँ से नहीं आता है, यह किसका है?किसका नहीं है?किससे उत्‍पन्‍न हुआ है और किससे नहीं हुआ है?प्राणियों का अपने अंगों के साथ भी यहाँ क्‍या सम्‍बन्‍ध है ?’ अर्थात् कुछ भी सम्‍बन्‍ध नहीं है। जैसे सूर्य की किरणों का सम्‍पर्क पाकर सूर्यकान्‍त- मणि से आग प्रकट हो जाती है, परस्‍पर रगड़ खाने पर काठ से अग्नि का प्रादुर्भाव हो जाता है, इसी प्रकार पूर्वोक्‍त कलाओं के समुदाय से जीव जन्‍म ग्रहण करते हैं। जैसे आप स्‍वयं अपने द्वारा अपने ही में आत्‍मा का दर्शन करते हैं, उसी प्रकार अपने द्वारा दूसरों में आत्‍मा का दर्शन क्‍यो नहीं करते हैं?

यदि आप अपने में और दूसरे में भी समभाव रखते हैं तो मुझसे बारंबार क्‍यों पूछते हैं कि ‘आप कौन हैं और किसकी हैं? मिथिलानरेश! ‘यह मुझे प्राप्‍त हो जाय, यह न हो।’ इत्‍यादि रूप से जो द्वन्‍द्वविषयक चिन्‍ता प्राप्‍त होती है, उससे यदि आप मुक्‍त हैं तो ‘आप कौन हैं? किसकी हैं?अथवा कहाँ से आयी हैं ?’ इन वचनों द्वारा प्रश्‍न करने से आपका क्‍या प्रयोजन है? शत्रु-मित्र और और मध्‍यस्‍थ के विषय में, विजय, संधि और विग्रह के अवसरों पर जिस भूपालने यथोचित कार्य किये हैं, उसमें जीवन्‍मुक्‍त का क्‍या लक्षण है?धर्म, अर्थ और काम को त्रिवर्ग कहते हैं। यह सात रूपों मे अभिव्‍यक्‍त होता है। जो कर्मों में इस त्रिवर्ग को नहीं जानता तथा जो सदा त्रिवर्ग से सम्‍बन्‍ध रखता है, ऐसे पुरुष में जीवन्‍मुक्‍त का क्‍या लक्षण है? प्रिय अथवा अप्रिय में, दुर्बल अथवा बलवान् में जिसकी समदृष्टि नहीं है, उसमें मुक्‍त का क्‍या लक्षण है? नरेश्‍वर! वास्‍तव में आप योगयुक्‍त नहीं हैं तथापि आपको जो जीवन्मुक्ति का अभिमान हो रहा है, वह आपके सुहृदों को दूर कर देना चाहिये अर्थात् यह नहीं मनना चाहिये कि आप जीवन्मुक्‍त हैं, ठीक उसी तरह जैसे अपथ्‍यशील रोगी को दवा देना बंद कर दिया जाता है। शत्रुओं दमन करने वाले महाराज! नाना प्रकार के जो-जो पदार्थ हैं, उन सबको आसक्ति के स्‍थान समझकर अपने द्वारा अपने ही मे अपने को देखे। इसके सिवा मुक्‍त का और क्‍या लक्षण हो जाता है? राजन्! अपने मोक्ष का आश्रय लेकर भी ये और दूसरे जो कुछ चार अंगों में प्रवृत्त आसक्ति के जो सूक्ष्‍म स्‍थान हैं, उनको भी अपना रखा है, उन्‍हें बताती हैूँ, आप मुझसे सुनें। जो इस सारी पृथ्‍वी का एकच्‍छत्र शासन करता है, वह एक ही सार्वभौम नरेश भी एकमात्र नगर में ही निवास करता है। उस नगर में भी उसके लिये एक ही महल होता है, जिसमें वह निवास करता है। उस महल में भी उसके लिये एक ही शय्या होती है, जिस पर वह रात में सोता है।[10]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 60-74
  2. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 75-91
  3. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 92-109
  4. 'इस घटो अस्ति (यहाँ घड़ा है)'- इत्‍यादि रूपा से सत्‍तासूचक व्‍यवहार होता है, उसका नाम ‘सद् भावयोग’ है।
  5. ‘इह घटो अस्ति (यहाँ घड़ा नहीं है)’—इत्‍यादि रूप से जो असत्तासूचक व्‍यवहार होता है, वही ‘असद् भावयोग’ है।
  6. यहाँ ‘विधी’ शब्‍द से वासना के बीजभूत धर्म और अधर्म समझने चाहिये।
  7. वासना का उद्वोधक संस्‍कार ही ‘शुक्र’ है।
  8. वासना के अनुसार विषय की प्राप्ति के अनुकूल जो यत्‍न है, वही ‘बल’ है।
  9. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 110-123
  10. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 124-137

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भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश | ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन | राजा पृथु के चरित्र का वर्णन | वर्णधर्म का वर्णन | आश्रम धर्म का वर्णन | ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व | वर्णाश्रम धर्म का वर्णन | राजर्धम का वर्णन | इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद | राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल | राष्ट्र की रक्षा और उन्नति | राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन | वसुमना और बृहस्पति का संवाद | राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन | राजा के प्रधान कर्तव्य | दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन | राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण | धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म | राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता | विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान | राज्य के कर्तव्य का वर्णन | युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन | उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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