श्रीकृष्ण द्वारा नारद-सृंजय संवाद के रूप में युधिष्ठिर के शोक निवारण का प्रयत्न

महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 29 के अनुसार श्रीकृष्ण द्वारा नारद-सृंजय संवाद के रूप में युधिष्ठिर के शोक निवारण का प्रयत्न का वर्णन इस प्रकार है[1]-

अर्जुन का श्रीकृष्ण से युधिष्ठिर को समझाने का आग्रह करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सबके समझाने बुझाने पर भी जब धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिर मौन ही रह गये, तब पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा। अर्जुन बोले- माधव! शत्रुओं को संताप देने वाले ये धर्मपुत्र युधिष्ठिर स्वयं भाई-बन्धुओं के शोक से संतप्त हो शोक के समुद्र में डूब गये हैं, आप इन्हें धीर न बँधाइये। महाबाहु जनार्दन! हम सब लोग पुःन महान् संशय में पड़ गये हैं। आप इनके शोक का नाश कीजिये।

श्री कृष्ण का युधिष्ठिर को समझाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! महामना अर्जुन के ऐसा कहने पर अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले कमलनयन भगवान गोविन्द राजा युधिष्ठिर की ओर घूमे- उनके सम्मुख हुए। धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं कर सकते थे; क्योंकि श्रीकृष्ण बाल्यावस्था से ही उन्हें अर्जुन से भी अधिक प्रिय थे। म्हाबाहु गोविन्द ने युधिष्ठिर की पत्थर के बने हुए खम्भे जैसी चन्दनचर्चित भुजा को हाथ में लेकर उनका मनोरंजन करते हुए इस प्रकार बोलना आरम्भ किया। उस समय सुन्दर दाँतों और मनोहर नेत्रों से युक्त उनका मुखार विन्द सूर्यादय के समय पूर्णतः विकसित हुए कमल के समान शोभा पा रहा था। भगवान श्रीकृष्ण बोले- पुरुष सिंह! तुम शोक न करो। शोक तो शरीर को सुखा देने वाला होता है। इस संग्राम में जो वीर मारे गये हैं, वे फिर सहज ही मिल सकें, यह सम्भव नहीं है। राजन्! जैसे सपने में मिले हुए धन जगने पर मिथ्या हो जाते हैं, उसी प्रकार जो क्षत्रिय महासमर में नष्ट हो गये हैं, उनका दर्शन अब दुर्लभ है। संग्राम में शोभा पाने वाले वे सभी शूरवीर शत्रु का सामना करते हुए पराजित हुए हैं। उनमें से कोई भी पीठ पर चोट खाकर या भागता हुआ नहीं मारा गया है। सभी वीर महायुद्ध में जूझते हुए अपने प्राणों का परित्याग करके अस्त्र-शस्त्रों से पवित्र हो स्वर्गलोक में गये हैं, अतः तुम्हें उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये। क्षत्रिय-धर्म में तत्पर रहने वाले, वेद-वेदाताओं के पारंगत वे शेरवीर नरेश पुण्यमयी वीर-गति को प्राप्त हुए हैं। पहले के मरे हुए महानुभाव भूपतियों का चरित्र सुनकर तुम्हें अपने उन बन्धुओं के लिये भी शेाक नहीं करना चाहिये। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, जैसा कि इन देवर्षि नारद जी ने पुत्र शोक से पीड़ित हुए राजा सृंजन से कहा था। ’सृंजय! मैं, तुम और ये समस्त प्रजावर्ग के लोग कोई भी सुख और दुःखों के बन्धन से मुक्त नहीं हुए हैं एक दिन हम सब लोग मरेंगे भी। फिर इसके लिये शोक क्या करना है? ’नरेश्वर! मैं पूर्ववर्ती राजाओं के महान् सौभाग्य का वर्णन करता हूँ। सुनो और सावधान हो जाओ। इससे तुम्हारा दुःख दूर हो जायगा। ’मरे हुए महानुभाव भूपतियों का नाम सुनकर ही तुम अपने मानसिक संताप को शान्त कर लो और मुझसे विस्तार पूर्वक उन सबका परिचय सुनो। ’ उन पूर्ववर्ती राजाओं का श्रवण करने योग्य मनोहर वृत्तान्त बहुत ही उत्तम, क्रूर ग्रहों को शान्त करने वाला और आयु को बढ़ाने वाला है। ’सृंजय! हमने सुना है कि अविक्षित् के पुत्र वे राजा मरुत्त भी मर गये, जिन महात्मा नरेश के यज्ञ में इन्द्र तथा वरुण सहित सम्पूर्ण देवता और प्रजापतिगण बृहस्पति को आगे करके पधारे थे। उन्होंने देवराज इन्द्र से स्पर्धा रखने के कारण अपने यज्ञ वैभव द्वारा उन्हें पराजि कर दिया था। इन्द्र का प्रिय चाहने वाले बृहस्पति जी ने जब उनका यज्ञ कराने से इन्कार कर दिया, तब उन्होंने छोटे-भाई संवर्त ने मरूत्त का यज्ञ कराया था। नृपश्रेष्ठ! राजा मरुत्त जब इस पृथ्वी का शासन करते थे, उस समय यह बिना जोते-बोये ही अन्न पैदा करती थी और समस्त भूमण्डल में देवालयों की माला-सी दृष्टिगोचर होती थी, जिससे इस पृथ्वी की बड़ी शोभा होती थी। ’महामना मरुत्त के यज्ञ में विश्वे देवगण सभासद थे और मरूइन्द्र तथा साध्यगण रसोई परोसने का काम करते थे। ’मरुद्रोण ने मरुत्त के यज्ञ में उस समय खूब सोमरस का पान किया था। राजा ने जो दक्षिणाएँ दी थीं, वे देवताओें मनुष्यों और गन्धर्वों के सभी यज्ञों से बढकर थी। ’सृजय! धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य - इन चारों बातों में राजा मरुत्त तुम से बढ़-चढ़कर थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब औरों की क्या बात है? अतः तुम अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ’सृजय! अतिथिसक्तकार के प्रेमी राजा सुहोत्र भी जीवित नहीं रहे, ऐसा सुनने में आया है। उनके राज्य में इन्द्र ने एक वर्ष तक सोने की वर्षा की थी। ’राजा सुहात्र को पाकर पृथ्वी का वसुमती नाम सार्थक हो गया था। जिस समय वे जनपद के स्वामी थे, उन दिनों वहाँ की नदियाँ अपने जल के साथ-साथ सुवर्ण बहाया करती थीं। ’राजन्! लोकपूजित इन्द्र ने सोने के बने हुए बहुत से कछुए, केकड़े, नाके, मगर, सूँस और मत्स्य उन नदियों में गिराये थे। ’उन नदियों में सैकड़ों और हजारों की संख्या में सुवर्णमय मत्स्यों, ग्रहों और कछुओं को गिराया गया देख अतिथि प्रिय राजा सुहोत्र आश्चर्य चकित हो उठे थे। ’ वह अनन्त सुवर्ण राशि कुरुजांगल देश में छा गयी थी। राजा सुहोत्र न वहाँ यज्ञ किया और उसमें वह सारी धनराशि ब्राह्मणों में बाँट दी। ’श्वेतपुत्र सृजंय! वे धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य -इन चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढ़-चढ़कर थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरों क्या बात है? अतः तुम अपने पुत्र के लिये शोक न करो। उसने न तो कोई यज्ञ किया था और न दक्षिणा ही बाटी थी, अतः उसके लिये शोक न करो, शान्त हो जाओ। ’सृजय! अंगद देश के राजा बृहद्रथ की भी मृत्यु हुई थी, ऐसा हमने सुना है। उन्होंने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञ में दस लाख श्वेत घोड़े और सोने के आभूषणों से भूषित दस लाख कन्याएँ दक्षिणा रूप में बाँटी थीं। ’इसी प्रकार यजमान बृहद्रथ ने उस विस्तृत यज्ञ में सुवर्ण मय कमलों की मालाओं से अलगंकृत दस लाख हाथी भी दक्षिणा में बाँटे थे। ’उन्होंने उस यज्ञ में एक करोड़ सुवर्ण मालाधारी गाय, बैल और उनके सहस्रों सेवक दक्षिणा रूप में दिये।यजमान अंग जब विष्णु पद पर्वत पर यज्ञ कर रहे थे, उस समय इन्द्र वहाँ सोमरस पीकर मतवाले हो उठे थे और दक्षिणाओं से ब्राह्मणों पर आनन्दोन्माद छा गया था। ’राजेन्द्र! प्राचीन काल में अंगराज ने ऐसे-ऐसे सौ यज्ञ किये थे और उन सब में जो दक्षिणाएँ दी गयी थीं, वे देवताओं, गन्धवों और मनुष्यों के यज्ञों से बढ़ गयी थीं।[2] ’अंगराज ने सातों सोम-संस्थाओं[3] में जो धन दिया था, उतना जो दे सके, ऐसा दूसरा न तो कोई मनुष्य पैदा हुआ है और न पैदा होगा। ’सृंजय! पूर्वोक्त चारों कल्याणकारी गुणों में वे बृहद्रथ तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्र से अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो दूसरों की क्या बात है? अतः तुम अपने पुत्र के लिये संतप्त न हो ओ। ’सृजय! जिन्होंने इस सम्पूर्ण पृथ्वी को चमड़े की भाँति लपेट लिया था (सर्वथा अपने अधीन कर लिया था) वे उशीनर पुत्र राजा शिबि भी मरे थे, यह हमने सुना है। ’वे अपने रथ की गम्भीर ध्वनि से पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए एकमात्र विजयशील रथ के द्वारा इस भूमण्डल का एकछत्र शासन करते थे।’आज संसार में जंगली पशुओं सहित जितने गाय-बैल और घोड़े हैं, उतनी संख्या में उशीनर पुत्र शिबि ने अपने यज्ञ में केवल गौओं का दान दिया किया। सृजय! प्रजापति ब्रह्मा ने इन्द्र के तुल्य पराक्रमी उशीनर पुत्र राजा शिबि के सिवा सम्पूर्ण राजाओं में भूत या भविष्य अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम- ये सात सोम संस्थाएँ हैं। काल के दूसरे किसी राजा को ऐसा नहीं माना, जो शिबि का कार्यभार वहन कर सकता हो। ’सृंजय! राजा शिबि पूर्वोक्त चारों कल्याणकारी बातों में तुमसे बहुत बढ़े-चढे थे। तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरे की क्या बात है, अतः तुम आने पुत्र के लिये शोक मत करो। उसने न तो कोई यज्ञ किया था, न दक्षिणा ही दी थी; अतः उस पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। ’सृंजय! दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र महाधनी महा मनस्वी भरत भी मृत्यु भी मृत्यु के अधीन हो गये, यह हमने सुना था। ’उन महातेजस्वी दुष्यन्त कुमार भरत ने पूर्वकाल में देवताओं की प्रसन्नता के लिये यमनुा के तट पर चौदह घोड़े बाँधकर उतने-उतने अश्वमेध यज्ञ किये थे।[पहले द्रोणपर्व जो सोलह राजाओं के प्रसगं आये है, उनमें और यहाँ के प्रसंग में पाठ भेदों के कारण बहुत अन्तर देखा जाता है। वहाँ भरत के द्वारा यमुनातट पर सौ, सरस्वतीतटपर सौ, तीन सौ और गंगातटपर चार सौ अश्वमेघ यज्ञ किये गये थे- यह उल्लेख है।]उन्होंने अपने जीवन में एक सहस्र अश्वमेघ और सौ राजसूय यज्ञ सम्पन्न किये थे। ’जैसे मनुष्य दोनों भुजाओं से आकाश को तैर नहीं सकते, उसी प्रकार सम्पूर्ण राजाओं में भरत का जो महान् कर्म है, उसका दूसरे राजा अनुकरण न कर सके। ’उन्होंने सहस्र से भी अधिक घोड़े बाँधे और यज्ञ-वेदियों का विस्तार करके अश्वमेध यज्ञ किये। उसमें भरत ने आचार्य कण्व को एक हजार सुवर्ण के बने हुए कमल भेंट किये। ’ सृंजय! वे साम, दान, दण्ड और भेद- इन चार कल्याणमयी नीतियों अथवा धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य और ऐश्वर्य- इन चार मंगलकारी गुणों में तुम से बहुत बढे़ हुए थे। तुम्हारे पुत्र की अपेक्षा भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब दूसरा कौन जीवित रह सकता है। अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। ’सृंजय! सुनने में आया है कि दशरथ नन्दन भगवान श्री राम जी यहाँ से परम धाम को चले गये थे, जो सदा अपनी प्रजा पर वैसी ही कृपा रखते थे, जैसे-पिता अपने औरस पुत्रों पर रखता है।[4] ’उनके राज्य में कोई भी स्त्री अनाथ-विधवा नहीं हुई। श्री रामचन्द्र जी ने जब तक राज्य का शासन किया, तब तक वे अपनी प्रजा के लिये सदा ही पिता के समान कृपालु बने रहे। ’मेघ समय पर वर्षा करके खेती को अच्छे ढंग से सम्पन्न करता था- उसे बढ़ने और फूलने-फलने का अवसर देता था। राम के राज्य-शासन काल में सदा सुकाल ही रहता था (कभी अकाल नहीं पड़ता था)।’राम के राज्य का शासन करते समय कभी कोई प्राणी जल में नहीं डूबते थे, आग अनुचित रूप से कभी किसी को नहीं जलाती थी तथा किसी को रोग का भय नहीं होता था। ’श्री रामचन्द्र जी जब राज्य का शासन करते थे, उन दिनों हजार वर्ष तक जीने वाली स्त्रियाँ और सहस्रों वर्ष तक जीवित रहने वाले पुरुष थे। किसी को कोई रोग नहीं सताता था, सभी के सारे मनोरथ सिद्ध होते थे। ’स्त्रियों में भी परस्पर विवाद नहीं होता था; फिर पुरुषों की तो बात ही क्या है? श्री राम के राज्य-शासन काल में समस्त प्रजा सदा धर्म में तत्पर रहती थी। ’श्री रामचन्द्र जी जब राज्य करते थे, उस समय सभी मनुष्य संतुष्ट, पूर्ण काम, निर्भय, स्वाधीन और सत्यव्रती थे। ’श्री राम के राज्यशासन काल में सभी वृक्ष बिना किसी विघ्न-बाधा के सदा फले-फूले रहते थे और समस्त गौएँ एक-एक दोन दूध देती थीं। ’महा तपस्वी श्री राम ने चौदह वर्षों तक वन में निवास करके राज्य पाने के अनन्तर दस ऐसे अश्वमेध यज्ञ किये, जो सर्वथा स्तुति के योग्य थे तथा जहाँ किसी भी याचक के लिये दरवाजा बंद नहीं होता था। ’श्री रामचन्द्र जी नवयुवक और श्याम वर्ण वाले थे। उनकी आँखों में कुछ-कुछ लालिमा शोभा देती थी। वे यूथ पति गजराज के समान शक्तिशाली थ्ज्ञे। उनकी बड़ी-बड़ी भूजाएँ घुटनों तक लंबी थी। उनका मुख सुन्दर और कंधे सिंह के समान थे। ’श्री राम ने अयोध्या के अधिपति होकर ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य किया था। ’सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी यहाँ रह न सके, तब दूसरों की क्या बात है? अतः तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। ’सृंजय! राजा भागीरथ भी काल के गाल में चले गये, ऐसा हमने सुना है। जिनके विस्त्रृत यज्ञ में सोम पीकर मदोन्मत्त हुए सुरश्रेष्ठ भगवान पाकशासन इन्द्र ने अपने बाहुबल से कई सहस्र असुरों को पराजित किया। ’जिन्होने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञ में सोने के आभूषणों से विभूषित दस लाख कन्याओं का दक्षिणा रूप में दान किया था। ’वे सभी कन्याएँ अलग-अलग रथ में बैठी हुई थीं। प्रत्येक रथ में चार-चार घोडे़ जुते हुए थे। हर एक रथ के पीछे सोने की मालाओं से विभूषित तथा मस्तक पर कमल के चिह्नों से अलंकृत सौ-सौ हाथी थे। ’प्रत्येक हाथी के पीछे एक-एक हजार घोडे़, हर एक घोडे़ के पीछे हजार-हजार गायें और एक-एक गाय के साथ हजार-हजार भेड़-बकरियाँ चल रही थीं। ’तट के निकट निवास करते समय गंगा जी राजा भागीरथ की गोद में आ बैठी थीं। इसलिये वे पूर्वकाल में भागीरथी और उर्वशी नाम से प्रसिद्ध हुई। ’त्रिपथगामिनी गंगा ने पुत्री भाव को प्राप्त होकर पर्याप्त दक्षिणा देने वाले इक्ष्वाकुवशी यजमान भगीरथ को अपना पिता माना।[5]

सृंजय! वे पूर्वांक्त चारों बातों में तुमसे बहुत बढे़-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्र से अधिक पुण्यात्मा थे, जब वे भी काल से न बच सके तो दूसरों के लिये क्या कहा जा सकता है? अतः तुम अपने पुत्र के लिये शोक न करो। ’सृंजय! महामना राजा दिलीप भी मरे थे, यह सुनने में आया है। उनके महान् कर्मों का आज भी ब्राह्मण लोग वर्णन करते हैं। ’एकाग्रचित्त हुए उन नरेश ने अपने उस महायज्ञ में रत्न और धन से परिपूर्ण इस सारी पृथ्वी का ब्राह्मणों के लिये दान कर दिया। ’यजमान दिलीप के प्रत्येक यज्ञ में पुरोहित जी सोने के बने हुए एक हजार हाथी दक्षिणा रूप में पाकर उन्हें अपने घर ले जाते थे। ’उनके यज्ञ में सोने का बना हुआ कान्तियुक्त बहुत बड़ा यूप शोभा पाता था। यज्ञ कर्म करते हुए इन्द्र आदि देवता सदा उसी यूप का आश्रय लेकर रहते थे। ’उनके उस सुवर्णमय यूप में जो सोने का चषाल (घेरा) बना था, उसके ऊपर छः हजार देवगन्धर्व नृत्य किया करते थे। वहाँ साक्षात् विश्वावसु बीच में बैठकर सात स्वरों के अनुसार बीणा बजाया करते थे। उस समय सब प्राणी यही समझते थे कि ये मेरे आगे बाजा बजा रहे हैं। ’ राजा दिलीप के इस महान् कर्म का अनुसरण दूसरे राजा नहीं कर सके। उनके सुनहरे साज-बाज और सोने के आभूषणों से सजे हुए मतवाले हाथी रास्ते पर सोये रहते थे। सत्यवादी शतधन्वा महामनस्वी राजा दिलीप का जिन लोगों ने दर्शन किया था, उन्होंने भी स्वर्गलोग को जीत लिया। ’महाराज दिलीप के भवन में वेदों के स्वाध्याय का गम्भीर घोष, शूरवीरों के धनुष की टंकार तथा ’दान दो’ की पुकार- ये तीन प्रकार के शब्द कभी बंद नहीं होते थे। ’’सृंजय! वे राजा दिलीप चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढ़कर थे। तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो दूसरों की क्या बात है? अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये ’सृजय! जिन्हें मरुत्! नामक देवताओं ने गर्भावस्था में पिता के पाश्र्व भाग को फाड़कर निकाला था, वे युवनाश्वर के मान्धाता भी मृत्यु के अधीन हो गये, यह हमारे सुनने में आया है। त्रिलोक विजयी श्रीमान् राजा मान्धाता पृषदाज्य (दधिमिश्रित घी जो पुत्रोत्पत्ति के लिये तैयार करके रक्खा गया था) से उत्पन्न हुए थे। वे अपने पिता महामना युवनाश्वर के पेट में ही पले थे।’जब वे शिशु- अवस्था में पिता के पेट से पैदा हो उनकी गोद में सो रहे थे, उस समय उनका रूप देवताओं के बालकों के समान दिखायी देता था। उस अवस्था में उन्हें देखकर देवता आपस में बात करने लगे ’यह मातृहीन बालक किसका दूध पीयेगा। ’यह सुनकर इन्द्र बोल उठे मां ’धाता-मेरा दूध पीयेगा।’ जब इन्द्र ने इस प्रकार उसे पिलाना स्वीकार कर लिया, तब से उन्होंने ही उस बालक का नाम ’मान्धाता’ रख दिया। ’तदनन्तर उस महामनस्वी बालक युवनाश्वर कुमार की पुष्टि के लिये उसके मुख में इन्द्र के हाथ से दूध की धारा झरने लगी। ’इन्द्र के उस हाथ को पीता हुआ वह बालक एक ही दिन में सौ दिन के बराबर बढ़ गया। बारह दिनों में राजकुमार मान्धाता बारह वर्ष की अवस्था वाले बालक के समान हो गये।[6]

राजा मान्धाता बड़े धर्मात्मा और महामनस्वी थे। युद्ध में इन्द्र के समान शौर्य प्रकट करते थे। यह सारी पृथ्वी एक ही दिन मे उनके अधिकार में आ गयी थी। ’मान्धाता ने समरांगण में राजा अंगराज, मरुत्त, असित, गय तथा अंगराज बृहद्रथ को भी पराजित कर दिया। ’जिस समय युवनाश्वर पुत्र मान्धाता ने रणभूमि में राजा अंगराज के साथ युद्ध किया था, उस समय देवताओं ने ऐसा समझा कि ’उनके धुनष की टंकार से सारा आकाश ही फट पड़ा है,।’जहाँ सूर्य उदय होते हैं वहाँ से लेकर जहाँ अस्त होते हैं वहाँ तक सारा देश युवनाश्वर पुत्र मान्धता का ही राज्य कहलाता था। ’प्रजा नाथ! उन्होंने सौ अश्वमेध तथा सौ राजसूय यज्ञ करके दस योजन लंबे तथा एक योजन ऊँचे बहुत से सोने के रोहित नामक मत्स्य बनवाकर ब्राह्मणों को दान किये थे। ब्राह्ममणों के ले जाने से जो बच गये, उन्हें दूसरे लोगों ने बाँट लिया। ’सृंजय! राजा मान्धाता चारों कल्याणमय गुणों में तुम से बढे-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मारे गये, तब तुम्हारे पुत्र की क्या बिसात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो। ’सृजय! नहुष पुत्र राजा ययाति भी जीवित न रह सके यह हमने सुना है। उन्होंने समुद्रों सहित इस सारी पृथ्वी को जीतकर शम्यापात[शम्या' एक ऐसे काठ के डंडे को कहते है, जिसका निचला भाग मोटा होता है। उसे जब कोई बलवान पुरुष उठाकर जोर से फेंके, तब जितनी दूरी पर जाकर वह गिरे, उतने भूभाग को एक 'शम्यापात कहते हैं। इस तरह एक-एक शम्यापात में एक-एक यशवेदी बनाते और यश वेदी बनाते और यश करते हुए राजा ययाति आगे बढ़ते गये। इस प्रकार चलकर उन्होंने भारतभूमि की परिक्रमा की थी।] के द्वारा पृथ्वी को नाप-नापकर यज्ञ की वेदियाँ बनायीं, जिनसे भूतल की विचित्र शोभा होने लगी। उन्हीं वेदियों पर मुख्य-मुख्य यज्ञों का अनुष्ठान करते हुए उन्होंने सारी भारत भूमि की परिक्रमा कर डाली। ’ उन्होंने एक हजार श्रौतयज्ञों और सौ वाजपेय यज्ञों का अनुष्ठान किया तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणों को सोने के तीन पर्वत दान करके पूर्णतः संतुष्ट किया। ’नहुषपुत्र ययाति ने व्यूह-रचना युक्त आसुर युद्ध के द्वारा दैत्यों और दानवों का संहार करके यह सारी पृथ्वी अपने पुत्रों को बाँट दी थी ’उन्होंने किनारे के प्रदेशों पर अपने तीन पुत्र यदु, द्रुह्य तथा अनु को स्थापित करके मध्य भारत के राज्य पर पुरु को अभिषिक्त किया; फिर अपनी स्त्रियों के साथ वे वन में चले गये ’सृजय! वे तुम्हारी अपेक्षा चारों कल्याणमय गुणों में बढ़े हुए थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारा पुत्र किस गिनती में है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो ’सृंजय! हमने सुना है कि नाभाग के पुत्र अम्बरीष भी मृत्यु के अधीन हो गये थे। उन नृपश्रेष्ठ अम्बरीष को सारी प्रजा ने अपना पुण्यमय रक्षक माना था। ’ब्राह्मणों के प्रति अनुराग रखने वाले राजा अम्बरीषने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञ मण्डप में दस लाख ऐसे राजाओं को उन ब्राह्मणों की सेवा में नियुक्त किया था, जो स्वयं भी दस-दस हजार यज्ञ कर चुके थे। ’उन यज्ञ कुशल ब्राह्मणों ने नाभागपुत्र अम्बरीष की सराहना करते हुए कहा था कि ’ऐसा यज्ञ न तो पहले के राजाओं ने किया है और न भविष्य में होने वाले ही करेंगे,।[7] ’उनके यज्ञ में एक लाख दस हजार राजा सेवा कार्य करते थे। वे सभी अश्वमेध यज्ञ का फल पाकर दक्षिणायन के पश्चात् आने वाले उत्तरायण मार्ग से ब्रह्मलोक में चले गये थे। ’सृंजय! राजा अम्बरीष चारों कल्याणकारी गुयों में तुमसे बढ़कर थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी जीवित न रह सके तो दूसरे के लिये क्या कहा जा सकता है? अतः तुम अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक न करो। ’सृंजय! हम सुनते हैं कि चित्र रथ के पुत्र शशबिन्दु भी मृत्यु से अपनी रक्षा न कर सके। उन महामना नरेश के एक लाख रानियाँ थी और उनके गर्भ से राजा के दस लाख पुत्र उत्पन्न हुए थे। ’ वे सभी राजकुमार सुवर्णमय कवच धारण करने वाले और उत्तम धनुर्धर थे। एक-एक राजकुमार को अलग-अलग सौ-सौ कन्याएँ व्याही गयी थीं। प्रत्येक कन्या के साथ सौ-सौ हाथी प्राप्त हुए थे। हर एक हाथी के पीछे सौ-सौ रथ मिले थे। ’प्रत्येक रथ के साथ सुवर्ण मालाधारी सौ-सौ घोडे़ थे। हर एक अश्व के साथ सौ गायें और एक-एक गाय के साथ सौ-सौ भेड़-बकरियाँ प्राप्त हुई थीं। ’महाराज! राजा शशबिन्दु ने यह अनन्त धनराशि अश्वमेध नामक महायज्ञ में ब्राह्मणों को दान कर दी थी। ’सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मृत्यु से बच न सके, तब तुम्हारे पुत्र के लिये क्या कहा जाय? अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। ’सृंजय! सुनने में आया है कि अमूर्तरया के पुत्र राजा गय की भी मृत्यु हुई थी। उन्होंने सौ वर्षां तक होम से अवशिष्ट अन्न का ही भोजन किया। ’एक समय अग्निदेव ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा, तब राजा गयने ये वर माँगे, ’अग्निेदव! आपकी कृपा से दान करते हुए मेरे पास अक्षय धन का भंडार भरा रहे। धर्म में मेरी श्रद्धा वढ़ती रहे और मेरा मन सदा सत्य में ही अनुरक्त रहे’। ’सुना है कि उन्हें अग्नि देव से वे सभी मनोवाच्छित फल प्राप्त हो गये थे। उन्होंने एक हजार वर्षां तक बारंबार दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य तथा अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था। ’वे हजार वर्षों तक प्रतिदिन सबेरे उठ-उठ कर एक-एक लाख गौओं और सौ-सौ खच्चरों का दान करते थे। ’पुरुष प्रवर! इन्होंने सोमरस के द्वारा देवताओं को, धन के द्वारा ब्राह्मणों को, श्राद्ध कर्म से पितरों को और कामभोग द्वारा स्त्रियों को तृप्त किया था। ’राजा गयने महायज्ञ अश्वमेध में दस व्याम (पचास हाथ) चैड़ी ओर इससे दूनी लंबी सोने की पृथ्वी बनवाकर दक्षिणा रूप से दान की थी। ’पुरुष प्रवर नरेश! गंगा जी में जितने बालू के कण हैं, अमूर्तरया के पुत्र गयने उतनी ही गौओं का दान किया था। ’सृंजय! वे चारों कल्याण कारी गुणों में तुमसे बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी गये तो तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो। ’सृजय! संस्कृति के पुत्र राजा रन्तिदेव भी काल के गाल में चले गये, यह हमारे सुनने में आया है। उन महातपस्वी नरेश ने इन्द्र की अच्छी तरह आराधना करके उनसे यह बर माँगा कि ’हमारे पास अन्न बहुत हो’ हम सदा अतिथियों की सेवा अवसर प्राप्त करें, हमारी श्रद्धा दूर न हो और हम किसी से कुछ भी न माँगें,। [8] ’कठोर व्रत का पालन करने वाले, यशस्वी महात्मा राजा रन्तिदेव के पास गाँवों और जंगलों के पशु अपने-आप यज्ञ के लिये उपस्थित हो जाते थे। वहाँ भीगी चर्म राशि से जो जल बहता था, उससे एक विशाल नदी प्रकट हो गयी, जो चर्मण्वती (चम्बल) के नाम से विख्यात हुई। ’राजा अपने विशाल यज्ञ में ब्राह्मणों को सोने के निष्क दिया करते थे। वहाँ द्व्जिलोग पुकार-पुकार कहते कि ’ब्राह्मणों! यह तुम्हारे लिये निष्क है, यह तुम्हारे लिये निष्क है’ परंतु कोई लेने वाला आगे नहीं बढ़ता था। फिर वे यह कहरक कि ’तुम्हारे लिये एक सहस्र निष्क है’, लेने वाले ब्राह्मणों को उपलब्ध कर पाते थे। ’बुद्धिमान राजा रन्तिदेव के उस यज्ञ में अन्वाहार्य अग्नि में आहुति देने के लिये जो उपकरण थे तथा द्रव्य-संग्रह के लिये जो उपकरण-घड़े, पात्र कड़ाहे, बटलोई और कठौते आदि समान थे, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं था, जो सोने का बना हुआ न हो। संस्कृति के पुत्र राजा रन्ति देव के घर में जिस रात को अतिथियों का समुदाय निवास करता था, उस समय उन्हें बीस हजार एक सौ गौएँ छूकर दी जीती थीं। ’वहाँ विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण किये रसोइये पुकार पुकार कर कहते थे कि ’आप लोग खूब दाल-भात खाइये। आज का भोजन पहले जैसा-नहीं है, अर्थात् पहले की अपेक्षा बहुत अच्छा है’। सृंजय! रन्ति देव तुम से पूर्वोंक्त चारों गुणों में बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो।

’सृजंन! इक्ष्वा कुवंशी पुरुष सिंह महामना सगर भी मरे थे, ऐसा सुनने में आया है। उनका पराक्रम अलौकिक था। ’जैसे वर्षा के अन्त (शरद्) में बादलों से रहित आकाश के भीतर तारे नक्षत्र राज चन्द्रमा का अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार राजा सगर जब युद्ध आदि के लिये कहीं यात्रा करते थे, तब उनके साठ हजार पुत्र उन नरेश के पीछे-पीछे चलते थे। ’पूर्वकाल में राजा के प्रताप से एकछत्र पृथ्वी उनके अधिकार में आ गयी थी। उन्होंने एक सहस्र अश्वमेध यज्ञ करके देवताओं को तृप्त किया था। ’राजा ने सोने के खंभों से युक्त पूर्णतः सोने का बना हुआ महल, जो कमल के समान नेत्रोंवाली सुन्दरी स्त्रियों की शय्याओं से सुशोभित था, तैयार कराकर योग्य ब्राह्मणों को दान किया। साथ ही नाना प्रकार की भोग सामग्रियाँ भी प्रचुरमात्रा में उन्हें दी थीं। उनके आदेश से ब्राह्मणों ने उनका सारा धन आपस में बाँट लिया था। ’एक समय क्रोध में आकर उन्होंने समुद्र से चिह्नित सारी पृथ्वी खुदवा डाली थी। उन्हीं के नाम पर समुद्र की ’सागर’ संज्ञा हो गयी। ’सृजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़ हुए थे। तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो। ’सृंजय! बेन के पुत्र महाराज पृथु को भी अपने शरीर का त्याग करना पड़ा था, ऐसा हमने सुना है। महर्षियों ने महान् वन में एकत्र होकर उनका राज्याभिषेक किया था। ’ऋषियों ने यह सोचकर कि सब लोगों में धर्म की मर्यादा के प्रथित (स्थापित) करेंगे, उनका नाम पृथु रक्खा था। वे क्षत अर्थात् दुःख से सबका त्राण करते थे, इसलिये क्षत्रिय कहलाये।[9]

’वेन नन्दन पृथु को देखकर समस्त प्रजाओं ने एक साथ कहा कि ’हम इनमें अनुरक्त हैं’ इस प्रकार प्रजा का रंजन करने के कारण ही उनका नाम ’राजा’ हुआ। ’पृथृ के शासन काल में पृथ्वी बिना जोते ही धान्य उत्पन्न करती थी, वृक्षों के पुट-पुट में मधु(रस) भरा था और सारी गौएँ, एक-एक दोन दूध देती थीं। ’मनुष्य नीरोग थे। उनकी सारी कामनाएँ सर्वथा परिपूर्ण थीं और उन्हें कभी किसी चीज से भय नहीं होता था। सब लोग इच्छानुसार घरों या खेतों में रह लेते थे। ’जब वे समुद्र की ओर यात्रा करते, उस समय उसका जल स्थिर हो जाता था। नदियों की बाढ़ शान्त हो जाती थी। उनके रथ की ध्वजा कभी मग्न नहीं होती थी। ’राजा पृथु ने अश्वमेध नामक महायज्ञ में चार सौ हाथ ऊँचे इक्कीस सुवर्णमय पर्वत ब्राह्मणों को दान किये थे। ’सृजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र की अपेक्षा बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक न करो। ’सृंजय! तुम चुपचाप क्या सोच रहे हो। राजन्! मेरी इस बात को क्यों नहीं सुनते हो? जैसे मरणासन्न पुरुष के ऊपर अच्छी तरह प्रयोग में लायी हुई औषधि व्यर्थ जाती है, उसी प्रकार मेरा यह सारा प्रवचन निष्फल तो नहीं हो गया?, सृंजय ने कहा - नारद्! पवित्र गन्धवाली माला के समान विचित्र अर्थ से भरी हुई आपकी इस वाणी को मैं सुन रहा हूँ। पुण्यात्मा महामनस्वी और कीर्तिशाली राजर्षियों के चरित्र से युक्त आपका यह वचन सम्पूर्ण शोकों का विनाश करने वाला है। महर्षि नारद! आपने जो कुछ कहा है, आपका वह उपदेश व्यर्थ नहीं गया है। आपका दर्शन करके ही मैं शोक रहित गया हूँ। ब्रह्मवादी मुने! मैं आपका यह तृत्प नहीं हो रहा हूँ और अमृतपान के समान उससे तृप्त नहीं हा रहा हो रहा हूँ। प्रभो! अपका दर्शन अमोध है। मैं पुत्र शोक के संताप से दग्ध हो रहा हूँ। यदि आप मुझपर कृपा करें तो मेरा पुत्र फिर जीवित हो सकता है और आपके प्रसाद से मुझे पुनः पुत्र-मिलन का सुख सुलभ हो जायेगा। नारद जी कहते हैं- राजन् तुम्हारे यहाँ जो यह सुवर्णष्ठीबी नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था और जिसे पर्वत मुनि ने तुम्हें दिया था, वह तो चला गया। अब तो चला गया। अब मे पुनः हिरण्यनाभ नामक नाम एक पुत्र दे रहा हूँ, जिसकी आयु एक हजार वर्षों की होगी।[10]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-19
  2. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 20-36
  3. अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, अक्थय, षोडशी वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम- ये सात सोमसंस्थाएँ हैं।
  4. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 37-51
  5. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 52-69
  6. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 70-86
  7. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 87-102
  8. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 103-121
  9. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 122-138
  10. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 139-149

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महाभारत शान्ति पर्व में उल्लेखित कथाएँ


राजधर्मानुशासन पर्व
युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन | युधिष्ठिर का कर्ण को शाप मिलने का वृत्तांत पूछना | नारद का कर्ण को शाप प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना | कर्ण को ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुराम का शाप | कर्ण की मदद से दुर्योधन द्वारा कलिंगराज कन्या का अपहरण | कर्ण के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर जरासंध का उसे अंगदेश का राजा बनाना | युधिष्ठिर का स्त्रियों को शाप | युधिष्ठिर का अर्जुन से आन्तरिक खेद प्रकट करना | अर्जुन का युधिष्ठिर के मत का निराकरण करना | युधिष्ठिर का वानप्रस्थ एवं संन्यासी जीवन का निश्चय | भीम का राजा के लिए संन्यासी का विरोध | अर्जुन का इंद्र और ऋषि बालकों के संवाद का वर्णन | नकुल का गृहस्थ धर्म की प्रशंसा करते हुए युधिष्ठिर को समझाना | सहदेव का युधिष्ठिर को ममता और आसक्ति से मुक्त राज्य करने की सलाह देना | द्रौपदी का युधिष्ठिर को राजदण्डधारणपूर्वक शासन के लिए प्रेरित करना | अर्जुन द्वारा राज राजदण्ड की महत्ता का वर्णन | भीम का राजा को मोह छोड़कर राज्य-शासन के लिए प्रेरित करना | युधिष्ठिर द्वारा भीम की बात का विरोध एवं मुनिवृत्ति-ज्ञानी महात्माओं की प्रशंसा | जनक का दृष्टांत सुनाकर अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर को संन्यास ग्रहण से रोकना | युधिष्ठिर द्वारा अपने मत की यथार्थता का प्रतिपादन | मुनिवर देवस्थान का युधिष्ठिर को यज्ञानुष्ठान के लिए प्रेरित करना | देवस्थान मुनि द्वारा युधिष्ठिर के प्रति उत्तम धर्म-यज्ञादि का उपदेश | क्षत्रिय धर्म की प्रशंसा करते हुए अर्जुन पुन: युधिष्ठिर को समझाना | व्यास जी द्वारा शंख और लिखित की कथा सुनाना | व्यास द्वारा सुद्युम्न के दण्डधर्मपालन का महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिर को आज्ञा देना | व्यास का युधिष्ठिर को हयग्रीव का चरित्र सुनाकर कर्तव्यपालन के लिए जोर देना | सेनजित के उपदेश युक्त उद्गारों का उल्लेख करके व्यास का युधिष्ठिर को समझाना | युधिष्ठिर द्वारा धन के त्याग की महत्ता का प्रतिपादन | युधिष्ठिर को शोकवश शरीर त्यागने को उद्यत देख व्यास का समझाना | अश्मा ऋषि एवं जनक के संवाद द्वारा व्यास द्वारा युधिष्ठिर को समझाना | श्रीकृष्ण द्वारा नारद-सृंजय संवाद के रूप में युधिष्ठिर के शोक निवारण का प्रयत्न | महर्षि नारद और पर्वत का उपाख्यान | सुवर्णष्ठीवी के जन्म, मृत्यु और पुनर्जीवन का वृत्तांत | व्यास का अनेक युक्तियों से युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का 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उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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