भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज

महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 47 के अनुसार भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज का वर्णन इस प्रकार है[1]-

भीष्म के देहत्याग के समय उपस्थित ब्राह्मणों व ऋषियों के नाम

जनमेजय ने पूछा - बाण शय्या पर सोये हुए भरतवंशियों के पितामह भीष्मजी ने किस प्रकार अपन शरीर का त्याग किया और उस समय उन्होंने किस योग की धारणा की ? वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! कुरुश्रेष्ठ! तुम सावधान, पवित्र और एकाग्रचित्त हांकर महात्मा भीष्म के देहत्याग का वृत्तान्त सुनो। राजन्! जब दक्षिणायन समाप्त हुआ और सूर्य उत्तरायण में आ गये, तब माघ मास के शक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को राहिणी नक्षत्र में मध्यान्ह के समय भीष्मजी ने ध्यानमग्न होकर अपने मन को परमात्मा में लगा दिया। चारों ओर अपनी किरणें बिखेरने वाले सूर्य के समान सैंकड़ों बाणों से छिदे हुए भीष्म उत्तम शोभा से सुशोभित होने लगे, अनेकानेक श्रेष्ठ ब्राह्मण उन्हें घेरकर बैठे थे। वेदों के ज्ञाता व्यास, देवर्षि नारद, देवस्थान, वात्स्य, अश्मक, सुमन्तु, जैमिनी, महातमा पैल, शाण्डिल्य, देवल, बुद्धिमान् मैत्रेय, असित, वसिष्ठ, महात्मा कौशिक ( विश्वामित्र ), हारीत, लोमश, बुद्धिमान् दत्तात्रेय, बृहस्पति, शुक्र, महामुनि च्यवन, सनत्कुमार, कपिल, वाल्मीकि, तुम्बुरु, कुरु, मौद्गल्य, भृगुवंशी परशुराम, महामुनि तृणबिन्दु, पिप्पलाद, वायु, संवर्त, पुलह, कच, कश्यप, पुलत्स्य, क्रतु, दक्ष, पराशर, मरीचि, अंगिरा, काशय, गौतम, गालव मुनि, धौम्य, विभाण्ड, माण्डव्य, धौम्र, कृष्णानुभौतिक, श्रेष्ठ ब्राह्मण उलूक, महामुनि मार्कण्डेय, भास्करि, पुरण, कृष्ण और परम धार्मिक सूत - ये तथा और भी बहुत से सौभाग्यशाली महात्मा मुनि, जो श्रद्धा, शम, दम आदि गुणों से सम्पन्न थे, भीष्मजी को घेरे हुए थे। इन ऋषियों के बीच में भीष्म जी ग्रहों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान शोभा पा रहे थे।
पुरुषसिंह भीष्म शय्या पर ही पड़े-पड़े हाथ जोड़ पवित्र भाव से मन, वाणी और क्रिया द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगे। ध्यान करते-करते वे हृष्ट-पुष्ट स्वर से भगवान् मधुसूदन की स्तुति करने लगे। वाग्वेत्ताओं में श्रेष्ठ , शक्तिशाली, परम धर्मात्मा भीष्म ने हाथ जोडत्रकर योगेश्वर पद्मनाभ, सर्वव्यापी, विजयशील जगदीश्वर वासुदेव की इस प्रकार स्तुति आरम्भ की। भीष्मजी बोले - मैं श्रीकृष्ण के आराधन की इच्छा मन में लेकर जिस वाणी का प्रयोग करना चाहता हूँ, वह विस्तृत हो या संक्षिप्त, उसके द्वारा वे पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों। जो स्वयं शुद्ध हैं, जिनकी प्राप्ति का मार्ग भी शुद्ध है, जो हंस स्वरूप, तत् पद के लक्ष्यार्थ परमात्मा और प्रजापालक परमेष्ठी हैं, मैं सब ओर से सम्बन्ध तोड़ केवल उन्हीं से नाता जोड़कर सब प्रकार से उन्हीं सर्वत्मा श्रीकृष्ण की शरण लेता हूँ। उनका न आदि है न अन्त। वे ही परब्रह्म परमात्मा हैं। उनको न देवता जानते हैं न ऋषि। एकमात्र सबका धारण-पोषण करने वाले से भगवान् श्रीनारायण हरि ही उन्हें जानते हैं। नारायण ही ऋषिगण, सिद्ध, बड़े-बड़े नाग, देवता तथा देवर्षि भी उन्हें अविनाशी परमात्मा के रूप में जानने लगे हैं। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग भी जिनके विषय में यह नहीं जानते हैं कि ‘ये भगवान् कौन हैं तथा कहाँ से आये हैं ? उन्हीं में सम्पूर्ण प्राणी स्थित हैं और उन्हीं में उनका लय होता है। जैसे डोरे में मन के पिरोये होते हैं, उसी प्रकार उन भूतेश्वर परमात्मा में समस्त त्रिगुणात्मक भूत पिरोये हुए हैं।

भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति

भगवान सदा नित्य विद्यमान ( कभी नष्ट न होने वाले ) और तने हुए एक सुदृढ़ सूत के समान हैं। उनमें यह कार्य-कारण रूप जगत् उसी प्रकार गुँथा हुआ है, जैसे सूत में फूल की माला। यह सम्पूर्ण विश्व उनके ही श्रीअंग में स्थित है; उन्होंने ही इस विश्व की सृष्टि की है। उन श्रीहरि के सहस्रों सिर, सहस्रों चरण और सहस्रों नेत्र हैं, वे सहस्रों भुजाओं, सहस्रों मुकुटों तथा सहस्रों मुखों से देदीप्यमान रहते हैं। वे ही इस विश्व के परम आधार हैं। इन्हीं को नारायणदेव कहते हैं। वे सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और स्थूल से भी स्थूल। वे भारी-से-भारी ओर उत्तम से भी उत्तम हैं। वाकों[2] और अनुवाकों[3], निषदों[4] और उपनिषदों[5] में तथा सच्ची बात बताने वाले साममन्त्रों में उन्हीं को सत्य और सत्यकर्मा कहते हैं। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध - इन चार दिव्य गोपनीय और उत्तम नामों द्वारा ब्रह्म, जीव, मन और अहंकार - इन चार स्वरूपों में प्रकट हुए उनहीं भक्तप्रतिपालक भगवान श्रीकृष्ण की पेजा की जाती है, जो सबके अनतःकरण में विद्यमान हैं।
भगवान् वासुदेव की प्रसन्नता के लिये ही नित्य तप का अनुष्ठान किया जाता है; क्योंकि वे सबके हृदयों में विराजमान हैं। वे सबके आत्मा, सबको जानने वाले जैसे अरणि प्रज्वलित अग्नि को प्रकट करती है, उसी प्रकार देवकीदेवी ने इस भूतल पर रहने वाले ब्राह्मणों, वेदों, यज्ञों की रक्षा के लिये उसन भगवान् को वसुदेवजी के तेज से प्रकट किया था। सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके अनन्य भाव से स्थिर रहने वाला साधक मोक्ष के उद्देश्य से अपने विशुद्ध अन्तःकरण में जिन पापरहित शुद्ध-बुद्ध परमात्मा गोविन्द का ज्ञानदृष्टि से साक्षात्कार करता है, जिनका पराक्रम वायु और इन्द्र से बहुत बढ़कर है, जो अपने तेज से सूर्य को भी तिरस्कृत कर देते हैं तथा जिनके स्वरूप तक इन्द्रिय, मन और बुद्धि की भी पहुँच नहीं हो पाती, उन प्रजापालक परमेश्वर की मैं शरण लेता हूँ। पुराणों में जिनका ‘पुरुष्’ नाम से वर्णन किया गया है, जो युगों के आरम्भ में ‘ब्रह्म’ और युगान्त में ‘संकर्षण’ कहे गये हैं, उन उपास्य परमेश्वर की हम उपासना करते हैं। जो एक होकर भी अनेक रूपों में प्रकट हुए हैं, जो इन्द्रियों और उनके विषयों से ऊपर उठे होने के कारण ‘अधोक्षज’ कहलाते हैं, उपासकों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाने हैं, यज्ञादि कर्म और पूजन में लगे हुए अनन्य भक्त जिनका यजन करते हैं, जिन्हें जगत् का कोषागार कहा जाता है, जिनमें सम्पूर्ण प्रजाएँ स्थित हैं, पानी के ऊपर तैरने वाले जल पक्षियों की तरह जिनके ही ऊपर इस सम्पूर्ण जगत् की चेष्टाएँ हो रही हैं, जो परमार्थ सत्यस्वरूप और एकाक्षर ब्रह्म ( प्रणव ) हैं, सत् और असत् से विलक्षण हैं, जिनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है, जिन्हें न देवता ठीक-ठीक जानते हैं और न ऋषि, अपने मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए सम्पूर्ण देवता, असुर, गन्धर्व, सिद्ध, ऋषि, बड़े-बड़े नारायण जिनकी सदा पूजा किया करते हैं, जो दुःखरूपी रोग की सबसे बड़ी औषधि हैं, जन्म-मरण से रहित, स्वयम्भू एवं सनातन देवता हैं, जिन्हें इन चर्म-चक्षुओं से देखना और बुद्धि के द्वारा सम्पूर्ण रूप से जानना असम्भव है, उन भगवान श्रीहरि नारायण देव की मैं शरण लेता हूँ।[6] जो इस विश्व के विधाता और चराचर जगत् के स्वामी हैं, जिन्हें संसार का साक्षी और अविनाशी परम पद कहते हैं, उन परमात्मा की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।। जो सुवर्ण के समान कान्तिमान्, अदिति के गर्भ से उत्पन्न, दैत्यों के नाशक तथा एक होकर भी बारह रूपों में प्रकट हुए हैं, उन सूर्यस्वरूप परमेश्वर को नमसकार है। जो अपनी अमृतमयी कलाओं से शुक्लपक्ष में देवताओं को और कृष्णपक्ष में पितरों को तृत्प करते हैं तथा जो सम्पूर्ण द्विजों के राजा हैं, उन सोमस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है। अग्नि जिनके मुख में है, वे देवता सम्पूर्ण जगत् को धारण करते हैं, जो हविष्य के सबसे पहले भोक्ता हैं, उन अग्निहोत्र स्वरूप परमेश्वर को नमस्कार है।। जो अज्ञानमय महान् अन्धकार सपरे और स्सनालोक से अत्यन्त प्रकाशित होने वाले आत्मा हैं, जिन्हें जान लेने पर मनुष्य मृत्यु से सदा के लिये छूट जाता है, उन ज्ञेयरूप परमेश्वर नमस्कार है। उक्थ नामक बृहत् यज्ञ के समय, अग्न्याधानकाल में तथा महायाग में ब्राह्मणवृन्द जिनका ब्रह्म के रूप में स्तवन करते हैं, उन वेदस्वरूप भगवान् को नमस्कार है। ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद जिसके आश्रय हैं, पाँच प्रकार का हविष्य जिसका स्वरूप है, गायत्री आदि सात छन्द ही जिसके सात तन्तु हैं, उस यज्ञ के रूप में प्रकट हुए परमात्मा को प्रणाम है। चार1, चार2, दो3, पाँच4, दो5 - इन सत्रह अक्षरों वाले मन्त्रों से जिन्हें हविष्य अर्पण किया जाता है, उन होम स्वरूप परमेश्वर को नमस्कार है। जो ‘यजुः’ नाम धारण करने वाले वेदरूपी पुरुष हैं, गायत्री आदि छन्द जिनके हाथ-पैर आदि अवयव हैं, यज्ञ ही जिनका मस्तक है तथा ‘रथन्तर’ और ‘बृहत्’ नामक साम ही जिनकी सान्त्वनाभरी वाणी है, उन स्तोत्ररूपी भगवान को प्रणाम है। जो ऋषि हजार वर्षों में पूर्ण होने वाले प्रजापतियों के यज्ञ में सोने की पाँख वाले पक्षी के रूप में प्रकट हुए थे, उन हंसरूपधारी परमेश्वर को प्रणाम है। पदों के समूह जिनके अंग हैं, सन्धि जिनके शरीर की जोड़ है, स्वर और व्यंजन जिनके लिये आभूषण का काम देते हैं तथा जिन्हें दिव्य अक्षर कहते हैं, उन परमेश्वर को वाणी के रूप में नमस्कार है। जिन्होंने तीनों लोकों का हित करने के लिये यज्ञमय वराह का स्वरूप धारण करके इस पृथ्वी को रसातल से ऊपर उठाया था, उन वीर्यस्वरूप भगवान् को प्रणाम है। जो अपनी योगमाया का आश्रय लेकर शेषनाग के हजार फनों से बने हुए पलंग पर शयन करते हैं, उन निद्रास्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।[7]

विश्वेदेव, मरुद्गण, रुद्र, इन्द्र, आदित्य, अश्विनिकुमार, वसु, सिद्ध और साध्य - ये सब जिनकी विभूतियाँ हैं, उन देवस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।। अव्यक्त प्रकृति, बुद्धि ( महत्तत्त्व ), अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ और उनका कार्य - वे सब तिनके ही स्वरूप हैं, उन तत्त्वमय परमात्मा को नमस्कार है।। जो भूत, वर्तमान और भविष्य - काल रूप हैं, जो भूत आदि की उत्पत्ति और प्रलय के कारण हैं, जिन्हें सम्पूर्ण प्राणियों का अग्रज बताया गया है, उन भूतात्मा परमेश्वर को नमस्कार है।। सूक्ष्म तत्त्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुष जिस परम सूक्ष्म तत्त्व का अनुसंधान करते रहते हैं, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, वह ब्रह्म जिनका स्वरूप हैं, उन सूक्ष्मात्मा को नमस्कार है।। जिन्होंने मत्स्य शरीर धारण करके रसातल में जाकर नष्ट हुए सम्पूर्ण वेदों को ब्रह्माजी के लिये शीघ्र ला दिया था, उन मत्स्य रूपधारी भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है।। जिनहोंने अमृत के लिये समुद्र मन्थन के समय अपनी पीठ पर मछराचल पर्वत को धारण किया था, उन अत्यन्त कठोर देहधारी कच्छपरूप भगवान् श्रीकृष्ण् को नमस्कार है। जिन्होंने वाराहरूप धारण करके अपने एक दाँत से वन और पर्वतों सहित समूची पृथ्वी का उद्धार किया था, उन वाराहरूपधारी भगवान् को नमस्कार है।। जिन्होंने नृसिंहरूप धारण करके सम्पूर्ण जगत् के लिये भयंकर हिरण्यकशिपु नामक राक्षस का वध किया था, उन नृसिंहस्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है।। जिन्होंने वामनरूप धारण करके माया द्वारा बलि को बाँधकर सारी त्रिलोकी को अपने पैरों से नाप लिया था, उन क्रान्तिकारी वामनस्पधारी श्रीकृष्ण को प्रणाम है।। जिनहोंने शास्त्रधारियों में श्रेष्ठ जमदग्निपुत्र परशुराम का रूप धारण करके इस पृथ्वी को क्षत्रियों से हीन कर दिया, उन परशुराम स्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है।। जिन्होंने अकेले की धर्म के प्रति गौरव का उल्लंघन करने वाले क्षत्रियों का युद्ध में इक्कीस बार संहार किया, उन क्रोधात्मा परशुराम को नमस्कार है। जिन्होंने दशरथनन्दन श्रीराम का रूप धारण करके शुद्ध में पुलत्स्य कुलनन्दन रावण का वध किया था, उन क्षत्रियात्मा श्रीराम स्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है। जो सदा हल, मूसल धारण किये अद्भुत शोभा से सम्पन्न हो रहे हैं, जिनके श्रीअंगों पर नील वस्त्र शोभा पाता है, उन शेषावतार रोहिणीनन्दन राम को नमस्कार है। जो शंख, चक्र, शारंग धनुष, पीताम्बर और वनमाला धारण करते हैं, उन श्रीकृष्ण स्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है।। जो कंस वध के लिये वसुदेव के शोभाशाली पुत्र के रूप में प्रकट हुए और नन्द के गोकुल में भाँति-भाँति की लीलाएँ करते रहे, उन लीलामय श्रीकृष्ण को नमस्कार है। जिन्होंने यदुवंश में प्रकट हो वासुदेव के रूप में आकर पृथ्वी का भार उतारा है, उन श्रीकृष्णात्मा श्रीहरि को नमस्कार है।। जिन्होंने अर्जुन का सारथित्व करते समय तीनों लोकों के उपकार के लिये गीता-ज्ञानमय अमृत प्रदान किया था, उन ब्रह्मात्मा श्रीकृष्ण को नमस्कार है।। जो सृष्टि की रक्षा के लिये दानवों को अपने अधीन करके पुनः बुद्धभाव को प्राप्त हो गये, उन बुद्धस्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है।। जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिये म्लेच्छों का वध करेंगे, उन कल्किरूप श्रीहरि को नमस्कार है।। जिन्होंने तारामय संग्राम में दानवराज कालनेमि का वध करके देवराज इन्द्र को सारा राज्य दे दिया था, उन मुख्यात्मा श्रीहरि को नमस्कार है।। जो समसत प्राणियों के शरीर में साक्षी रूप से स्थित हैं तथा सम्पूर्ण क्षर ( नाशवान् ) भूतों में अक्षर ( अविनाशी ) स्वरूप से विराजमान हैं, उन साक्षी परमात्मा को नमस्कार है।। महादेव! आपको नमस्कार है। भक्तवत्सल! आपको नमस्कार है। सुब्रह्मण्य ( विष्णु )! आपको नमस्कार है। परमेश्वर! आप मुझपर प्रसन्न हों। प्रभो! आपने अव्यक्त और व्यक्त रूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त कर रखा है। मैं सहस्रों नेत्र धारण करने वाले, सब ओर मुख वाले हिरण्यनाभ, यज्ञांग स्वरूप, अमृतमय, सब ओर मुख वाले और कमलनयन पुरुषोत्तम श्रीनारायणदेव की शरण लेता हूँ। जिनके हृदय में मंगलभवन देवेश्वर श्रीहरि विराजमान हैं, उनका सभी कार्यों में सदा मंगल ही होता है - कभी किसी भी कार्य में अमंगल नहीं होता।। भगवान् विष्णु मंगलमय हैं, मधुसूदन मंगलमय हैं कमलनयन मंगलमय हैं और गरुड़ध्वज मंगलमय हैं।। जिनका सारा व्यवहार केवल धर्म के ही लिये है, उन वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा जो मोक्ष के साधनभूत वैदिक उपायों से काम लेकर सातों की धर्म-मर्यादा का प्रयास करते हैं, उन सत्यस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।जो भिन्न-भिन्न धर्मों का आचरण करके अलग-अलग उनके फलों की इच्छा रखते हैं, ऐसे पुरुष पृथक् धर्मों के द्वारा जिनकी पूजा करते हैं, उन धर्मस्वरूप भगवान को प्रणाम है।[8] जिस अनंग की प्रेरणा से सम्पूर्ण अंगधारी प्राणियों का जन्म होता है, जिससे समस्त जीव उन्मत्त हो उठते हैं, उस काम के रूप में प्रकट हुए परमेश्वर को नमस्कार है।। जो स्थूल जगत् में अव्यक्त रूप से विराजमान है, बड़े-बड़े महर्षि जिसके तत्त्व का अनुसंधान करते रहते हैं, जो सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ के रूप में बैठा हुआ है, उस क्षेत्ररूपी परमात्मा प्रणाम है। जो सत्, रज और तम - इन तीन गुणों के भेद से त्रिविध प्रतीत होते हैं, गुणों के कार्यभूत सोलह विकारों से आवृत्त होने पर भी अपने स्वरूप में ही स्थित हैं, सांख्यमत के अनुयायी जिन्हें सत्रहवाँ तत्त्व ( पुरुष ) मानते हैं, उन सांख्यरूप परमात्मा को नमस्कार है। जो नींद को जीतकर प्राणों पर विजय पर चुके हैं और इन्द्रियों को अपने वश में करके शुद्ध सत्त्व में स्थित हो गये हैं, वे निरन्तर योगाभ्यास में लगे हुए योगिजन जिनके ज्योतिर्मय स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं, उन योगरूप परमात्मा को प्रणाम है। पाप और पुण्य का क्षय हो जाने पर पुनर्जन्म के भय से मुक्त हुए शान्तचित्त संन्यासी जिन्हें प्राप्त करते हैं, उन मोक्षरूप परमेश्वर को नमस्कार है। सृष्टि के एक हजार युग बीतने पर प्रचण्ड ज्वालाओं से युक्त प्रजयकालीन अग्नि का रूप धारण कर जो सम्पूर्ण प्राणियों का संहार करते हैं, उन घोररूपधारी परमात्मा को नमस्कार है। इस प्रकार सम्पूर्ण भूतों का भक्षण करके जो इस जगत् को जलमय कर देते हैं और स्वयं बालक का रूप धारण कर अक्षयवट के पत्ते पर शयन करते हैं, उन मायामय बालमुकुन्द को नमस्कार है। जिस पर यह विश्व टिका हुआ है, वह ब्रह्माण्ड कमल जिन पुण्डरीकाक्ष भगवान् की नाभि से प्रकट हुआ है, उन मनलरूपधारी परमेश्वर को प्रणाम है। जिनके हजारों मस्तक हैं, जो अन्तर्यामीरूप से सबके भीतर विराजमान हैं, जिनका स्वरूप किसी सीमा में आबद्ध नहीं है, जो चारों समुद्रों के मिलने से एकार्णव जो जाने पर योगनिद्रा का आश्रय लेकर शयन करते हैं, उन योगनिद्रारूप भगवान् को नमस्कार है। जिनके मस्तक के बालों की जगह मेघ हैं, शरीर की सन्धियों में नदियाँ हैं और उदर में चारों समुद्र हैं, उन जलरूपी परमात्मा को प्रणाम है। सृष्टि और प्रलयरूप समस्त विकार जिनसे उत्पन्न होते हैं और जिनमें ही सबका लय होता है, उन कारणरूप परमेश्वर को नमस्कार है। जो रात में भी जागते रहते हैं और दिन के समय साक्षी रूप से स्थित रहते हैं तथा जो सदा ही सबके भले-बुरे को देखते रहते हैं, उन दृष्टारूपी परमात्मा को प्रणाम है। जिन्हें कोई भी काम करने में रुकावट नहीं होती, जो धर्म का काम करने में सर्वदा उद्यत रहते हैं तथा जो वैकुण्ठधाम के स्वरूप हैं, उन कार्यरूप भगवान् को नमस्कार है। जिन्होंने धर्मात्मा होकर भी क्रोध में भरकर धर्म के गौरव का उल्लंघन करने वाले क्षत्रिय-समाज का युद्ध में इक्कीस बार संहार किया, कठोरता का अभिनय करने वाले उन भगवान् परशुराम को प्रणाम है। जो प्रत्येक शरीर के भीतर वायुरूप में स्थित हो अपने को प्राण-अपान आदि पाँच स्वरूपों में विभक्त करके सम्पूर्ण प्राणियों को क्रियाशील बनाते हैं, उन वायुरूप परमेश्वर को नमस्कार है।। जो प्रत्येक युग में योगमाया के बल से अवतार धारण करते हैं और मास, ऋतु, अयन तथा वर्षों के द्वारा सृष्टि और प्रलय करते रहते हैं, उन कालरूप परमात्मा को प्रणाम है।[9]

ब्राह्मण जिनके मुख हैं, सम्पूर्ण क्षत्रिय-जाति भुजा है, वैश्य ज्रघा एवं उदर हैं और शूद्र जिनके चरणों के आश्रित हैं, उन चातुर्वण्र्यरूप परमेश्वर को नमस्कार है। अग्नि जिनका मुख है, स्वर्ग मसतक है, आकाश नाभि है, पृथ्वी पैर है, सूर्य नेत्र हैं और दिशाएँ कान हैं, उन लोकरूप परमात्मा को प्रणाम है। जो काल से परे हैं, यज्ञ से भी परे हैं और परे से भी अत्यन्त परे हैं, जो सम्पूर्ण विश्व के आदि हैं; किन्तु जिनका आदि कोई भी नहीं है, उन विश्वात्मा परमेश्वर को नमस्कार है। जो मेघ में विद्युत और उदर में जठरानल के रूप में स्थित हैं, जो सबको पवित्र करने के कारण पावक तथा स्वरूपतः शुद्ध होने से ‘शुचि’ कहलाते हैं, समसत भक्ष्य पदार्थों को दग्ध करने वाले वे अग्निदेव जिनके ही स्वरूप हैं, उन अग्निमय परमात्मा को नमस्कार है।। वैशेषिक दर्शन में बताये हुए रूप, रस आदि गुणों के द्वारा आकृष्ट हो जो लोग विषयों के सेवन में प्रवृत्त हो रहे हैं, उनकी उन विषयों की आसक्ति से जो रक्षा करने वाले हैं, उन रक्षक रूप परमात्मा को प्रणाम है। जो अन्न-जलरूपी ईंधन को पाकर शरीर के भीतर रस और प्राणशक्ति को बढ़ाते तथा सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करते हैं, उन प्राणातमा परमेश्वर को नमस्कार है। प्राणों की रक्षा के लिये जो भक्ष्य, भोज्य, चोष्य लेह्य - चार प्रकार के अन्नों का भोग लगाते हैं और स्वयं ही पेट के भीतर अग्निरूप में स्थित भोजन को पचाते हैं, उन पाकरूप परमेश्वर को प्रणाम है। जिनका नरसिंहरूप दानवराज हिरण्यकशिपु का अन्त करने वाला, उस समय जिनके नेत्र और कंधे के बाल पीले दिखायी पड़ते थे, बड़ी-बड़ी दाढ़े और नख ही जिनके आयुध थे, उन दर्परूपधारी भगवान नरसिंह को प्रणाम है। जिन्हें न देवता, न गन्धर्व, न दैत्य और न दानव ही ठीक-ठीक जान पाते हैं, उन सूक्ष्मस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है। जो सर्वव्यापक भगवान् श्रीमान् अनन्त नामक शेषनाग रूप में रसातल मे रहकर सम्पूर्ण जगत् को अपने मस्तक पर धारण करते हैं, उन वीर्यरूप परमेश्वर को प्रणाम है। जो इस सुष्टि-परम्परा की रक्षा के लिये सम्पूर्ण प्राणियों को स्नेहपाश में बाँधकर मोह में डाले रखते हैं, उन मोहरूप भगवान् को नमस्कार है। अन्नमयादि पाँच कोषों में स्थित अन्तरतम आत्मा का ज्ञान होने के पश्चात् विशुद्ध बोध के द्वारा विद्वान् पुरुष जिन्हें प्राप्त करते हैं, उन ज्ञान स्वरूप परब्रह्म को प्रणाम है। जिनका स्वरूप किसी प्रमाण का विषय नहीं है, जिनके बुद्धिरूपी नेत्र सब ओर व्याप्त हो रहे हैं तथा जिनके भीतर अनन्त विषयों का समावेश है, उन दिव्यात्मा परमेश्वर को नमस्कार है। जो जटा और दण्ड धारण करते हैं, लम्बोदर शरीर वाले हैं तथा जिनका कमण्डलु ही तूणीर का काम देता है, उन ब्रह्माजी के रूप में भगवान् को प्रणाम है।। जो त्रिशूल धारण करने वाले और देवताओं के स्वामी हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो महात्मा हैं तथा जिन्होंने अपने शरीर पर विभूति रमा रखी है, उन रुद्ररूप परमेश्वर को नमस्कार है। जिनके मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट और शरीर पर सर्प का यज्ञोपवीत शोभा दे रहा है, जो अपने हाथ में पिनाक और त्रिशूल धारण करते हैं, उन उग्ररूपधारी भगवान् शंकर को प्रणाम है।[10]

जो सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा और उनकी जन्म-मृत्यु के कारण हैं, जिनमें क्रोध, द्रोह और मोह का सर्वथा अभाव है, उन शान्तात्मा परमेश्वर को नमस्कार है। जिनके भीतर सब कुछ रहता है, जिनसे सब उत्पन्न होता है, जो स्वयं ही सर्वस्वरूप हैं, सदा ही सब ओर व्यापक हो रहे हैं और सर्वमय हैं, उन सर्वात्मा को प्रणाम है। इस विश्व की रचना करने वाले परमेश्वर! आपको प्रणाम हैं। विश्व के आत्मा और विश्व की उत्पत्ति के स्थानभूत जगदीश्वर! आपको नमस्कार है। आप पाँचों भूतों से परे हैं और सम्पूर्ण प्राणियों के मोक्ष स्वरूप ब्रह्म हैं। तीनों लोकों में व्याप्त हुए आपको नमस्कार है, त्रिभुवन में परे रहने वाले आपको प्रणाम है, सम्पूर्ण दिशाओं मे व्यापक आप प्रभु को नमस्कार है; क्योंकि आ सब पदार्थो से पूर्ण भण्डार हैं। संसार की उत्पत्ति करने वाले अविनाशी भगवान् विष्णु! आपको नमस्कार है। हृषीकेश! आप सबके जन्मदाता और संहारकर्ता हैं। आप किसी से पराजित नहीं होते। मैं तीनों लोकों में आपके दिव्य जन्म-कर्म का रहस्य नहीं जान पाता; मैं तो तत्त्वदृष्टि से आपका जो सनातन रूप है, उसी की और लक्ष्य रखता हूँ। स्वर्गलोक आपके मस्तक से, पृथ्वी देवी आपके पैरों से और तीनों लोक आपके तीन पगों से व्याप्त हैं, आप सनातन पुरुष हैं। दिशाएँ आपकी भुजाएँ, सूर्य आपके नेत्र और प्रजापति शुक्राचार्य आपके वीर्य हैं। आपने ही अत्यन्त तेजस्वी वायु के रूप में ऊपर के सातों मार्गों को रोक रखा है।। जिनकी कान्ति अलसी के फूल की तरह साँवली है, शरीर पर पीताम्बर शोभा देता है, जो अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते, उन भगवान् गोविन्द को जो लोग नमस्कार करते हैं, उन्हें कभी भय नहीं होता। भगवान् श्रीकृष्ण को एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेध यज्ञों के अन्त में किये गये स्नान के समान फल देने वाला होता है। इसके सिवा प्रणाम में एक विशेषता है - दस अश्वमेध करने वाले का तो पुनः इस संसार में जनम होता है, किंतु श्रीकृष्ण को प्रणाम करने वाला मनुष्य फिर भव-बन्धन में नहीं पड़ता। जिन्होंने श्रीकृष्ण-भजन का ही व्रत ले रखा है, जो श्रीकृष्ण का निरन्तर स्मरण करते हुए ही रात को सोते हैं और उन्हीं का स्मरण करते हुए सवेरे उठते हैं, वे श्रीकृष्णस्वरूप होकर उनमें इस तरह मिल जाते हैं, जैसे मन्त्र पढ़कर किया हुआ घी अग्नि में मिल जाता है।। जो नरक के भय से बचाने के लिये रक्षा मण्डल का निर्माण करने वाले और संसार रूपी सरिता की भँवर से पार उतारने के लिये काठ की नाव के समान हैं, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार है। जो ब्राह्मणों के प्रेमी तथा गौ और ब्राह्मणों के हितकारी हैं, जिनसे समस्त विश्व का कल्याण होता है, उन सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् गोविन्द को प्रणाम है।। ‘हरि’ ये दो अखर दुर्गम पथ के संकट के समय प्राणों के लिये राह-खर्च के समान हैं, संसाररूपी रोग से छुटकारा दिलवाने के लिये औषध तुल्य हैं तथा सब प्रकार के दुःख-शोक से उद्धार करने वाले हैं। जैसे सत्य विष्णुमय है, जैसे सारा संसार विष्णुमय है, जिस प्रकार सब कुछ विष्णुमय है, उस प्रकार इस सत्य के प्रभाव से मेरे सारे पाप नष्ट हो जायँ। देवताओं में श्रेष्ठ कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण! मैं आपका शरणागत भक्त हूँ और अभीष्ट गति को प्राप्त करना चाहता हूँ; जिसमें मेरा कल्याण हो, वह आप ही सोचिये।[11] जो विद्या और तप के जन्मस्थान हैं, जिनको दूसरा कोई जन्म देने वाला नहीं है, उन भगवान् विष्णु का मैंने इस प्रकार वाणी रूप यज्ञ से पूजन किया है। इससे वे भगवान् जनार्दन मुझ पर प्रसन्न हों। नारायण ही परब्रह्म हैं, नारायण ही परम तप हैं। नारायण ही सबसे बड़े देवता हैं और भगवान् नारायण ही सदा सब कुछ हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! उस समय भीष्मजी का मन भगवान् श्रीकृष्ण में लगा हुआ था, उन्होंने ऊपर बतायी हुई स्तुति करने के पश्चात् ‘नमः श्रीकृष्णाय’ कहकर उन्हें प्रणाम किया। भगवान भी अपने योगबल से भीष्म जी की भक्ति को जानकर उनके निकट गये और उन्हें तीनों लोकों की बातों का बोध कराने वाला दिव्य ज्ञान देकर लौट आये। योग पुरुष प्राण त्याग के समय जिन्हें बड़े यत्न से अपने हृदय में स्थापित करते हैं, उनहीं श्रीहरि को अपने सामने देखते हुए भीष्म जी ने जीवन का फल प्राप्त करके अपने प्राणों का परित्याग किया था।। जब भीष्मजी का बोलना बंद हो गया, तब वहाँ बैठे हुए ब्रह्मवादी महर्षियों ने आँखों में आँसू भरकर गद्गद कण्ठ से परम बुद्धिमान् भीष्मजी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वे ब्राह्मण शिरोमणि सभी महर्षि पुरुषोत्तम भगवान् केशव की स्तुति करते हुए धीरे-धीरे भीष्मजी की बारंबार सराहना करने लगे। इधर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण भीष्म जी के भक्तियोग को जानकर सहसा उठे और बड़े हर्ष के साथ रथ पर जो बैठे। एक रथ से सात्यकि और श्रीकृष्ण चले तथा दूसरे रथ से महामना युधिष्ठिर और अर्जुन भीमसेन और नकुल-सहदेव तीसरे रथ पर सवार हुए। चौथे रक्ष से कृपाचार्य, युयुत्सु और शत्रुओं को तपाने वाला सारथि संजय - से तीनों चल दिये। वे पुरुषप्रवर पाण्डव और श्रीकृष्ण नगराकार रथों द्वारा उनके पहियों के गम्भीर घोष से पृथ्वी को कँपाते हुए बड़े वेग से गये। उस समय बहुत-से ब्राह्मण मार्ग में पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की स्तुति करते और भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न मन से उसे सुनते थे। दूसरे बहुत से लोग हाथ जोड़कर उनके चरणों में प्रणाम करते और केशिहन्ता केशव मन-ही-मन आनन्दित हो उन लोगों का अभिनन्दन करते थे। जो मनुष्य शारंग धनुष धारण करने वाले यदुकुलनन्दन श्रीकृष्ण की इस स्तुति को याद करते, पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे इस शरीर का अन्त होने पर भगवान् श्रीकृष्ण में प्रवेश कर जाते हैं। चक्रधारी श्रीहरि उनके सारे पापों का नाश कर डालते हैं।। गंगानन्दन भीष्म ने पूर्वकाल में जिसका गान किया था, अद्भुतकर्मा विष्णु का वही यह स्तवराज पूरा हुआ। यह बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला है।। यह स्तो़राज पापियों के समस्त पापों का नाश करने वाला है, संसार-बन्धन से छूटने की इच्छावाला जो मनुष्य इसका पवित्रभाव से पाठ करता है, वह निर्मल सनातन लोकों को भी लाँघकर परमात्मा श्रीकृष्ण के अमृमय धाम को चला जाता है।[12]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 47 श्लोक 1-21
  2. सामान्यतः कर्ममात्र को प्रकाशित करने वाले मन्त्रों को ‘वाक’ कहते हैं।
  3. मन्त्रों को खोलकर बताने वाले ब्राह्मण ग्रन्थों के जो वाक्य हैं, उनका नाम ‘अनुवाक’ है।
  4. कर्म के अंग आदि से सम्बन्ध रखने वाले देवता आदि का ज्ञान कराने वाले वचन ‘निषद्’ कहलाते हैं।
  5. विशुद्ध आतमा एवं परमात्मा का ज्ञान कराने वाले वचनों की ‘उपनिषद्’ संज्ञा है।
  6. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 47 श्लोक 22-37
  7. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 47 श्लोक 38-49
  8. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 47 श्लोक 50-51
  9. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 47 श्लोक 52-67
  10. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 47 श्लोक 68-82
  11. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 47 श्लोक 83-98
  12. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 47 श्लोक 99-109

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राजधर्मानुशासन पर्व
युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन | युधिष्ठिर का कर्ण को शाप मिलने का वृत्तांत पूछना | नारद का कर्ण को शाप प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना | कर्ण को ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुराम का शाप | कर्ण की मदद से दुर्योधन द्वारा कलिंगराज कन्या का अपहरण | कर्ण के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर जरासंध का उसे अंगदेश का राजा बनाना | युधिष्ठिर का स्त्रियों को शाप | युधिष्ठिर का अर्जुन से आन्तरिक खेद प्रकट करना | अर्जुन का युधिष्ठिर के मत का निराकरण करना | युधिष्ठिर का वानप्रस्थ एवं संन्यासी जीवन का निश्चय | भीम का राजा के लिए संन्यासी का विरोध | अर्जुन का इंद्र और ऋषि बालकों के संवाद का वर्णन | नकुल का गृहस्थ धर्म की प्रशंसा करते हुए युधिष्ठिर को समझाना | सहदेव का युधिष्ठिर को ममता और आसक्ति से मुक्त राज्य करने की सलाह देना | द्रौपदी का युधिष्ठिर को राजदण्डधारणपूर्वक शासन के लिए प्रेरित करना | अर्जुन द्वारा राज राजदण्ड की महत्ता का वर्णन | भीम का राजा को मोह छोड़कर राज्य-शासन के लिए प्रेरित करना | युधिष्ठिर द्वारा भीम की बात का विरोध एवं मुनिवृत्ति-ज्ञानी महात्माओं की प्रशंसा | जनक का दृष्टांत सुनाकर अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर को संन्यास ग्रहण से रोकना | युधिष्ठिर द्वारा अपने मत की यथार्थता का प्रतिपादन | मुनिवर देवस्थान का युधिष्ठिर को यज्ञानुष्ठान के लिए प्रेरित करना | देवस्थान मुनि द्वारा युधिष्ठिर के प्रति उत्तम धर्म-यज्ञादि का उपदेश | क्षत्रिय धर्म की प्रशंसा करते हुए अर्जुन पुन: युधिष्ठिर को समझाना | व्यास जी द्वारा शंख और लिखित की कथा सुनाना | व्यास द्वारा सुद्युम्न के दण्डधर्मपालन का महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिर को आज्ञा देना | व्यास का युधिष्ठिर को हयग्रीव का चरित्र सुनाकर कर्तव्यपालन के लिए जोर देना | सेनजित के उपदेश युक्त उद्गारों का उल्लेख करके व्यास का युधिष्ठिर को समझाना | युधिष्ठिर द्वारा धन के त्याग की महत्ता का प्रतिपादन | युधिष्ठिर को शोकवश शरीर त्यागने को उद्यत देख व्यास का समझाना | अश्मा ऋषि एवं जनक के संवाद द्वारा व्यास द्वारा युधिष्ठिर को समझाना | श्रीकृष्ण द्वारा नारद-सृंजय संवाद के रूप में युधिष्ठिर के शोक निवारण का प्रयत्न | महर्षि नारद और पर्वत का उपाख्यान | सुवर्णष्ठीवी के जन्म, मृत्यु और पुनर्जीवन का वृत्तांत | व्यास का अनेक युक्तियों से युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश | ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन | राजा पृथु के चरित्र का वर्णन | वर्णधर्म का वर्णन | आश्रम धर्म का वर्णन | ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व | वर्णाश्रम धर्म का वर्णन | राजर्धम का वर्णन | इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद | राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल | राष्ट्र की रक्षा और उन्नति | राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन | वसुमना और बृहस्पति का संवाद | राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन | राजा के प्रधान कर्तव्य | दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन | राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण | धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म | राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता | विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान | राज्य के कर्तव्य का वर्णन | युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन | 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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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