नारद द्वारा भगवान की स्तुति

महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 209 के अनुसार नारद द्वारा भगवान की स्तुति का वर्णन इस प्रकार है[1]-


नारद जी द्वारा भगवान कृष्ण की स्तुति

मेघ, पृथ्‍वी, सस्‍य, काल, धर्म, कर्म और कर्म का अभाव –ये सब जिनके स्‍वरूप हैं, गुणों के भण्‍डाररूप वे श्‍यामवर्ण भगवान वासुदेव मुझपर प्रसन्‍न हों। जो अग्नि, चन्‍द्रमा, सूर्य, तारागण, ब्रह्मा, रुद्र, इन्‍द्र तथा योगियों के भी तेज को जीत लेते हैं, वे भगवान विष्‍णु मुझ पर प्रसन्‍न हों। योग के आवास स्‍थान! आपको नमस्‍कार है। सबके निवास स्‍थान, वरदायक, यज्ञगर्भ, सुनहरे रंगों वाले पचयज्ञमय परमेश्‍वर! आपको नमस्‍कार है। आप श्रीकृष्‍ण, बलभद्र, प्रद्युम्‍न और अनिरुद्ध –इन चार रूपों वाले, परमधामस्‍वरूप, लक्ष्‍मीनिवास, परमपूजित, सबके आवासस्‍थान और प्रकृति के भी प्रवर्तक हैं ।

वासुदेव! आपको नमस्‍कार है। आप अजन्‍मा हैं, अगम्‍य मार्ग हैं, निराकार हैं अथवा जगत् के सम्‍पूर्ण आकार आप ही धारण करते हैं, आप ही संहारकारी रुद्र हैं। आप प्रात:, सगव, मध्‍याह्रन, अपराह्रण और सायाह्रन – इन पाँच कालों को जानने वाले हैं। ज्ञानसागर! आपको नमस्‍कार हैं। जिन अव्‍यक्‍त परमात्‍मा से इस व्‍यक्‍त जगत् की उत्‍पत्ति हुई है, जो व्‍यक्‍त से परे और अविनाशी हैं, जिनसे उत्‍कृष्‍ट दूसरी कोई वस्‍तु नहीं हैं, उन भगवान विष्‍णु की मैं शरण में आया हूँ। प्रकृति और महत्त्व – ये दोनों जड़ हैं। पुरुष चेतन और अजन्‍मा हैं। इन दोनों क्षर और अक्षर पुरुषों से जो उत्‍कृष्‍ट और विलक्षण हैं, उन भगवान पुरुषोतम की मैं शरण लेता हूँ।

ब्रह्मा और शिव आदि देवता जिन भगवान का सदा चिन्‍तन करते रहने पर भी उनके स्‍वरूप के संबंध में किसी निश्‍चय तक नहीं पहुँच पाते, उन परमेश्‍वर की मैं शरण लेता हूँ। ज्ञानी और ध्‍यानपरायण जितेन्द्रिय महात्‍मा जिन्‍हें पाकर फिर इस संसार में नहीं लौटते हैं, उन भगवान श्री हरि की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जो सर्वव्‍यापी परमेश्‍वर इस सम्‍पूर्ण जगत् को अपने एक अंश से धारण करके स्थित हैं, जो किसी इन्द्रिय विशेष के द्वारा ग्रहण नहीं किये जाते तथा जो निर्गुण एवं नित्‍य हैं, उन परमात्‍मा की मैं शरण में जाता हूँ। आकाश में जो सूर्य और चन्‍द्रमा का तेज प्रकाशित होता है तथा तारागणों की जो ज्‍योति जगमगाती रहती हैं, वह सब जिनका ही स्‍वरूप हैं, वे परमात्‍मा मुझ पर प्रसन्‍न हों। जो समस्‍त गुणों के आ‍दि कारण और स्‍वयं निर्गुण हैं, आदि पुरुष, लक्ष्‍मीवान्, चेतन, अजन्‍मा, सूक्ष्‍म, सर्वव्‍यापी तथा योगी हैं, वे महात्‍मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्‍न हों। जो अव्‍यक्‍त सबके अधिष्‍ठाता, अचिन्‍त्‍य और सत्-असत् से विलक्षण हैं, आधाररहित एवं प्रकृति से श्रेष्‍ठ हैं, वे महात्‍मा श्री हरि मुझ पर प्रसन्‍न हों।

जो जीवात्‍मारूप से पाँच ज्ञानेन्द्रियरूपी मुखों द्वारा शब्‍द आदि पाँच विषयों का उपभोग करते हैं तथा स्‍वयं महान् होकर भी जो गुणों का अनुभव करते हैं, वे महात्‍मा श्री हरि मुझ पर प्रसन्‍न हों। सर्वस्‍वरूप परमेश्‍वर! आपको सब ओर से नमस्‍कार हैं, आपके सब ओर नेत्र, मस्‍तक और मुख हैं। निर्विकार परमात्‍मन्! आपको नमस्‍कार है। आप प्रत्‍येक क्षेत्र (शरीर) मे साक्षीरूप से स्थित हैं। इन्द्रियातीत परमेश्‍वर! आपको नमस्‍कार है। व्‍यक्‍त लिंगों द्वारा आपका ज्ञान होना असम्‍भव है। संसार में जो आपको नहीं जानते, वे जन्‍म–मृत्‍यु के चक्‍कर में पड़े रहते हैं। जो काम और क्रोध से मुक्‍त, राग-द्वेष से रहित तथा आपके अनन्‍य भक्‍त हैं, वे ही आपको जान पाते हैं। जो विषयों के नरक में पड़े हुए द्विज हैं, वे आपको नहीं जानते हैं।

नारद द्वारा भगवान का गुणगान

जो आपके अनन्‍य भक्‍त, द्वन्‍द्वों से रहित तथा निष्‍काम कर्म करने वाले हैं, जिन्‍होंने ज्ञानमयी अग्नि से अपने समस्‍त कर्मो को दग्‍ध कर दिया हैं, वे आपके प्रति दृढ़ निष्‍ठा रखनेवाले पुरुष आपमें ही प्रवेश करते हैं। आप शरीर में रहते हुए भी उसमे रहित हैं तथा सम्‍पूर्ण देहधारियों में समभाव से स्थित हैं। जो पुण्‍य और पाप से मुक्‍त हैं, वे भक्‍तजन आप में ही प्रवेश करते हैं। अव्‍यक्‍त प्रकृति, बुद्धि (महत्‍व ), अहंकार, मन,पंच महाभूत तथा सम्‍पूर्ण इन्द्रियाँ सभी आपमें हैं और उन सबमें आप हैं, किंतु वास्‍तव में न उनमें आप हैं, न आपमें वे हैं। एकत्‍व, अन्‍यत्‍व और नानात्‍व का रहस्‍य जो लोग अच्‍छी तरह जानते हैं, वे आप परमात्‍मा को प्राप्‍त होते हैं ।[2]- आप सम्‍पूर्ण भूतों में सम हैं। आपका न कोई द्वेषपात्र है और न प्रिय। मैं अनन्‍य चित्‍त से आपकी भक्ति के द्वारा समत्‍व पाना चाहता हूँ। चार प्रकार का जो यह चराचर प्राणिसमुदाय हैं, वह सब आपसे व्‍याप्‍त है। जैसे सूत में मणियाँ पिरोये होते हैं, उसी प्रकार यह सारा जगत् आप में ही ओत प्रोत है। आप जगत् के स्‍त्रष्‍टा, भोक्‍ता और कूटस्‍थ हैं। तत्‍वरूप होकर भी उसमे सर्वथा विलक्षण हैं। आप कर्म के हेतु नहीं हैं। अविचल परमात्‍मा हैं। प्रत्‍येक शरीर में पृथक्-पृथक् जीवात्‍मारूप से आप ही विद्यमान हैं। वास्‍तव में प्राणियों से आपका संयोग नहीं है। आप भूत, तत्‍व और गुणों से परे हैं। अहंकार, बुद्धि और तीनों गुणों से आपका कोई सम्‍बन्‍ध नहीं है। न आपका कोई धर्म है और न कोई अधर्म। न कोई आरम्‍भ है न जन्‍म। मैं जरा-मृत्‍यु से छुटकारा पाने के लिये सब प्रकार से आपकी शरण में आया हूँ। जगन्‍नाथ! आप ईश्‍वर हैं, इसलिये परमात्‍मा कहलाते हैं ।[2]

देव! सुरेश्‍वर! भक्‍तों के लिये जो हित की बात हो, उसका मेरे लिये चिन्‍तन कीजिये। विषयों और इन्द्रियों के साथ फिर मेरा कभी समागम न हो। मेरी घ्राणेन्द्रिय पृथ्‍वी तत्‍व में मिल जाय और रसना जल में, रूप (नेत्र) अग्नि में, स्‍पर्श (त्‍वचा) वायु में, श्रोत्रेन्द्रिय आकाश में और मन वैकारिक अहंकार में मिल जाय। अच्‍युत! इन्द्रियाँ अपनी-अपनी योनियों में मिल जायॅ, पृथ्‍वी जल में, जल अग्नि में, अग्नि वायु में, वायु आकाश में, आकाश मन में, मन समस्‍त प्राणियों को मोहनेवाले अहंकार में, अंहकार बुद्धि (महत्त्व) में और बुद्धि अव्‍यक्‍त प्रकृति में मिल जाय। जब प्रधान प्रकृति को प्राप्‍त हो जाय और गुणों की साम्‍यावस्‍थारूप महाप्रलय उपस्थित हो जाय, तब मेरा समस्‍त इन्द्रियों और उनके विषयों से वियोग हो जाय।[2]

तात! मैं तुम्‍हारे लिये परम मोक्ष की आकांशा रखता हूँ। फिर आपके साथ मेरा एकीभाव हो जाय। इस संसार में फिर मेरा जन्‍म न हो। मृत्‍युकाल उपस्थित होनेपर मेरी बुद्धि आपमें ही लगी रहे। मेरे प्राण आप में ही लीन रहें। मेरा आपमें ही भक्तिभाव बना रहे और मैं सदा आपकी ही शरण में पड़ा रहूँ। इस प्रकार मैं निरन्‍तर आपका ही स्‍मरण करता हूँ। पूर्व शरीर में मैंने जो दुष्‍कर्म किये हो, उनके फलस्‍वरूप रोग-व्‍याधि मेरे शरीर में प्रवेश करें और नाना प्रकार के दु:ख मुझे आकर सतावें। इन सबका जो मेरे ऊपर ऋण है, वह उतर जाय।[2]

देवेश्‍वर! मैंने इसलिये आपका स्‍मरण किया है कि फिर मेरा जन्‍म न हो; अत: फिर कहता हूँ कि मेरे कर्म नष्‍ट हो जायें और मुझ पर किसी का ऋण बाकी न रह जाय। पूर्व जन्‍म में जिन कर्मो का मेरे द्वारा संचय किया गया हैं, वे सभी रोग मेरे शरीर में उपस्थित हो जायॅ। मैं सबसे उऋण होकर भगवान विष्‍णु के परमधाम को जाना चाहता हूँ।[3]

नारायण का नारद की स्तुति सुन उनको उपदेश देना

श्रीभगवान बोले – नारद! मैं उस सौभाग्‍यशाली भक्‍त का हूँ और वह भक्‍त भी मेरा सनातन सखा है। मैं उसके लिये कभी अदृश्‍य नहीं होता और न वही कभी मेरी दृ‍ष्टि से ओझल होता है। साधक पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियों को संयम में रखकर उन दसों इन्द्रियों को मन में विलीन करे। मन को अहंकार में, अहंकार को बुद्धि में और बुद्धि को आत्‍मा में लगावे। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को संयम में रखकर बुद्धि के द्वारा परात्‍पर परमात्‍मा का अनुभव करे कि यह परमेश्‍वर मेरा है और मैं इसका हूँ, तथा इसी ने इस सम्‍पूर्ण जगत् को व्‍याप्‍त कर रखा है। स्‍वयं ही अपने-आपको परमात्‍मा के ध्‍यान में लगाकर निरन्‍तर उनका स्‍मरण करे, तदन्‍तर बुद्धि से भी परे परमात्‍मा को जानकर मनुष्‍य फिर इस संसार में जन्‍म नहीं लेता। जो मृत्‍युकाल आने पर इस प्रकार मेरा स्‍मरण करता है, वह पुरुष पहले का पापाचारी रहा हो तो भी परम गति को प्राप्‍त होता है। समस्‍त देहधारियों के परमात्‍मा तथा भक्‍तों के प्रति एकमात्र निष्‍ठा रखने वाले उन सनातन भगवान नारायण को नमस्‍कार है। यह दिव्‍य वैष्‍णवी – अनुस्‍मृति विद्या है। मनुष्‍य एकाग्रचित्त होकर सोते, जागते और स्‍वाध्‍याय करते समय जहाँ कहीं भी इसका जप करता रहे। पूर्णिमा, अमावास्‍या तथा विशेषत: द्वादशी तिथि को मेरे श्रद्धालु भक्‍तों को इसका श्रवण करावे। यदि कोई अंहकार का आश्रय लेकर यज्ञ, दान और तपरूप कर्म करे तो उकसा फल उसे मिलता है। परंतु वह आवागमन के चक्‍कर में डालनेवाला होता है। जो देवताओं और पितरों की पूजा, पाठ, होम और बलिवैश्‍वदेव करते तथा अग्नि में आहुति देते समय मेरा स्‍मरण करता है, वह परम गति को प्राप्‍त होता है। यज्ञ, दान और तप – ये मनीषी पुरुषों को पवित्र करने वाले है; अत: यज्ञ, दान और तप का निष्‍काम भाव से अनुष्‍ठान करें।[3]

नारद! जो मेरा भक्‍त श्रद्धापूर्वक मेरे लिये केवल नमस्‍कार मात्र बोल देता है, वह चाण्‍डाल ही क्‍यों न हो, उसे अक्षयलोक की प्राप्ति होती है। फिर जो साधक मन और इन्द्रियों को संयममें रखकर मेरेआश्रित हो श्रद्धा और विधि के साथ मेरी आराधना करते हैं, वे मुझे ही प्राप्‍त होते हैं, इसमें तो कहना ही क्‍या है ? देवर्षे! सारे कर्म और उनके फल आदि अन्‍तवाले है; परंतु मेरा भक्‍त अन्‍तवान् (विनाशशील) फल का उपभोग नहीं करता; अत: तुम सदा आलस्‍य रहित होकर मेरा ही ध्‍यान करो। इससे तुम्‍हें परम सिद्धि प्राप्‍त होगी और तुम मेरे परमधाम का दर्शन कर लोगे। जो धर्मापदेश के द्वारा अज्ञानी पुरुष को ज्ञान प्रदान करता है अथवा जो किसी को समूची पृथ्‍वी का दान कर देता है तो उस ज्ञानदान का फल इस पृथ्‍वीदान के बराबर ही माना जाता है।[3] नरेश्रेष्‍ठ नारद! इसलिये साधु पुरुषों को जन्‍म और बन्‍धन के भय को दूर करने वाला ज्ञान ही देना चाहिये। इस प्रकार ज्ञान देकर मनुष्‍य कल्‍याण और बल प्राप्‍त करता है। जो दस लाख अश्‍वमेध-यज्ञों का अनुष्‍ठान कर ले, वह भी उस पद को नहीं पा सकता, जो मेरे भक्‍तों को प्राप्‍त हो जाता है। भीष्‍म जी कहते है – सुव्रत! इस प्रकार पूर्वकाल में देवर्षि नारद के पूछने पर कल्‍याणमय भगवान विष्‍णु ने उस समय जो कुछ कहा था, वह सब तुम्‍हें बता दिया। तुम भी एकचित्‍त होकर उन गुणातीत परमात्‍मा का ध्‍यान करो और सम्‍पूर्ण भक्ति-भाव से उन्‍हीं अवि‍नाशी परमात्‍मा का भजन करो। भगवान नारायण का कहा हुआ वह दिव्‍य वचन सुनकर अत्‍यन्‍त भक्तिमान् देवर्षि नारद भगवान के प्रति एकाग्रचित्त हो गये। जो पुरुष अनन्‍यभाव से दस वर्षोतक ऋषि-प्रवर नारायणदेव का ध्‍यान करते हुए इस मन्‍त्र का जप करता हैं, वह भगवान विष्‍णु के परम दस को प्राप्‍त कर लेता है। जिसकी भगवान जनार्दन में भक्ति हैं, उसे बहुत से मन्‍त्रों द्वाराक्‍या लेना है ? ‘ॐ नमो नारायणाय’ यह एकमात्र मन्‍त्र ही सम्‍पूर्ण मनोरथों की सिद्धि करने वाला है। इस परम गोपनीय अनुस्‍मृति विद्या का स्‍वाध्‍याय करके मनुष्‍य भगवान के प्रति दृढ़ निष्‍ठा रखनेवाली बुद्धि प्राप्‍त कर लेता है। वह सारे दु:खों को दूर करके संकट से मुक्‍त एवं वीतराग हो इस पृथ्‍वीपर सर्वत्र विचरण करता है।[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 209 भाग 4
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 209 भाग 4
  3. 3.0 3.1 3.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 209 भाग 6
  4. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 209 भाग 7

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राजधर्मानुशासन पर्व
युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन | युधिष्ठिर का कर्ण को शाप मिलने का वृत्तांत पूछना | नारद का कर्ण को शाप प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना | कर्ण को ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुराम का शाप | कर्ण की मदद से दुर्योधन द्वारा कलिंगराज कन्या का अपहरण | कर्ण के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर जरासंध का उसे अंगदेश का राजा बनाना | युधिष्ठिर का स्त्रियों को शाप | युधिष्ठिर का अर्जुन से आन्तरिक खेद प्रकट करना | अर्जुन का युधिष्ठिर के मत का निराकरण करना | युधिष्ठिर का वानप्रस्थ एवं संन्यासी जीवन का निश्चय | भीम का राजा के लिए संन्यासी का विरोध | अर्जुन का इंद्र और ऋषि बालकों के संवाद का वर्णन | नकुल का गृहस्थ धर्म की प्रशंसा करते हुए युधिष्ठिर को समझाना | सहदेव का युधिष्ठिर को ममता और आसक्ति से मुक्त राज्य करने की सलाह देना | द्रौपदी का युधिष्ठिर को राजदण्डधारणपूर्वक शासन के लिए प्रेरित करना | अर्जुन द्वारा राज राजदण्ड की महत्ता का वर्णन | भीम का राजा को मोह छोड़कर राज्य-शासन के लिए प्रेरित करना | युधिष्ठिर द्वारा भीम की बात का विरोध एवं मुनिवृत्ति-ज्ञानी महात्माओं की प्रशंसा | जनक का 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युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश | ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन | राजा पृथु के चरित्र का वर्णन | वर्णधर्म का वर्णन | आश्रम धर्म का वर्णन | ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व | वर्णाश्रम धर्म का वर्णन | राजर्धम का वर्णन | इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद | राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल | राष्ट्र की रक्षा और उन्नति | राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन | वसुमना और बृहस्पति का संवाद | राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन | राजा के प्रधान कर्तव्य | दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन | राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण | धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म | राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता | विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान | राज्य के कर्तव्य का वर्णन | युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन | उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा 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राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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