श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग मलार
(40) उद्धव जी! हमें यहाँ कुछ नहीं कहना हैं। कुब्जा रमण की ये ज्ञान की बातें सुनकर एवं विचार करके उन्हें ग्रहण (धारण) करना है।। 1 ।। उनकी आज्ञा पाकर, उसे सिर चढ़ाकर घर में रहकर ही परमगति (ब्रह्म) को प्राप्त करना है। (अब तो हमें) बुद्धिरूपी मटकी में (ब्रह्मज्ञानरूप) मृगतृष्णा का जल भरकर घृत (आनन्द) के लिये उसको मन-ही-मन मथना है (उसमें कहीं आनन्द तो है नहीं- केवल मन की कल्पना है) ।। 2 ।। (श्रीकृष्ण के प्रेम की पुरानी गाथा को) दबाये रखने में ही भलाई है, उसे उखाड़ना (प्रकट करना) उचित नहीं (उससे तो रोग तथा दुःख ही बढे़गा)। (अब तो) आ पड़ने पर उसे निबाहना ही होगा। तुलसीदास जी कहते हैं- अब तो तुम्हारे स्वामी (श्रीकृष्ण) को, तुमको और हम सब (गोपियों) को हृदय में एक प्रकार से वेदना ही सहनी है (कुब्जा से प्रीति करके तुम्हारे स्वामी अथवा उनके सेवक तुम भी सुखी रह सकोगे, ऐसी बात नहीं है और हम तो वियोग.दुःख में जलती हैं) ।। 3 ।। |
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