श्रीनारायणीयम्
चतुस्त्रिंशत्तमदशकम्
वहाँ यज्ञमण्डप के द्वार पर स्थित होकर बाणों द्वारा मारीच को खदेड़ कर (उड़ाकर) अन्य राक्षसों का संहार किया। पुनः मार्ग में अपनी चरण धूलि से अहल्या को स्वस्थ (शापरहित) करते हुए विदेह की राजधानी में जा पहुँचे। वहाँ शिव जी के पिनाक को तोड़कर लक्ष्मीस्वरूपिणी धरणिसुता सीता को प्राप्त करके अपने तीनों सपत्नीक वीर भाइयों के साथ आप अपने राज्य कोसल को प्रस्थित हुए।।3।।
मार्ग में भृगुकुलतिलक परशुराम जी क्रोधान्ध होकर आपसे उलझ पड़े, परंतु अंत में वे अपना वैष्णव तेज आप में संस्थापित करके चले गये। कान्तमूर्ते! तब आप अयोध्या को गये और वहाँ प्रियतमा सीता के साथ सुखपूर्वक निवास करने लगे। तदनन्तर एक समय जबकि भरत शत्रुघ्न के साथ अपने मामा के घर गये हुए थे, पिता दशरथ जी ने आपका अभिषेक कार्य आरंभ किया, परंतु केकयराजकुमारी कैकेयी ने उसमें विघ्न डाल दिया।।4।। |
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