श्रीनारायणीयम्
पञ्चमदशकम्
भगवन! पहले प्राकृत प्रलय के समय स्थूल-सूक्ष्मस्वरूप यह शरीरादि कुछ भी नहीं था। त्रिगुणों की साम्यावस्था से कार्य के अवरुद्ध हो जाने पर माया भी आप में ही लीन हो गयी थी, जिससे न मृत्यु था न मोक्ष। यहाँ तक कि दिन-रात की स्थिति भी नहीं रह गयी थी। उस समय सच्चिदानन्द स्वरूप से केवल आप ही शेष थे।।1।।
विभो! जब आपकी स्वरूपानुसंधानस्वरूपा लीला में रति उत्पन्न होती है, उस समय काल, कर्म, गुण, जीवसमूह, अखिल विश्व-माया के ये सब कार्य चित्स्वरूप आप में अदृश्य हो जाते हैं। उस समय भी श्रुतियाँ कारण रूप से आप में स्थित हुए इन काल कर्मादि को सत्ताहीन नहीं बतलातीं। अन्यथा यदि इन्हें सत्ताहीन मान लिया जाय तो आकाश-कुसुम के समान क्या इनका पुनः प्रलय के अंत में उत्पन्न होना संभव हो सकेगा अर्थात नहीं।।2।। |
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