श्रीनारायणीयम्
षष्टष्टितमदशकम्
धर्मोपदेश तथा क्रीड़ा
प्रेममय कुसुमायुध के बाणों के आघात से विवश हो, अपने पास आयी हुई उन सुलोचनाओं के वाञ्छित मनोरथ पूर्ण करने के लिए यद्यपि आपने मन ही मन निश्चय कर लिया था, तथापि उनसे विपरीत सी बात कही।।1।।
आकाश में मुनियों का समुदाय खड़ा था। उसे सुनाने के लिए आपने गोपियों से कुलवधू के धर्म का वर्णन किया। आप निर्मल परमेश्वर का वचन निश्चय ही धर्मसंगत है- अतः वही विश्वासपूर्वक आचरण में लाने योग्य है। आपका धर्म विश्वसनीय नहीं है- उसका आचरण मानव- शक्ति से परे है; अतएव वह अनुकरण नहीं है।।2।।
आपकी मन के प्रतिकूल वाणी सुनकर वे मृगलोचना गोपियाँ अत्यंत दीन-दुःखी हो गयीं। ‘नहीं-नहीं, करुणा सागर! तुम हमारा त्याग न करो।’- ऐसा कहकर वे दीर्घकाल तक विलाप करती रहीं।।3।। |
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