श्रीनारायणीयम्
द्वादशस्कन्धपरिच्छेदः
सप्तनवतितमदशकम्
उत्तम भक्ति के लिए प्रार्थना और मार्कण्डेय-चरित
इस भुवन में जो ज्ञान, श्रद्धा, कर्ता, वास स्थान, सुख कर्म और विभिन्न प्रकार के आहार आदि वस्तुएं हैं, वे सभी त्रिगुणमय होने के कारण उत्तम, मध्यम और नीच के भेद से भिन्न रूपवाली हैं। परंतु जो आपके क्षेत्र और आपकी सेवा आदि हैं, वे सब भवत्परक ही हैं। उन्हें निर्गुण कहा जाता है। उनका अनुभजन (निरन्तर सेवन) करके मैं भी शीघ्र ही सिद्ध हो जाऊँ।।1।।
अयि भगवन्! मुझे ऐसा कर दीजिए कि मैं आपमें ही दत्तचित् होकर सुखपूर्वक विचरण करूँ। आपके निमित्त ही सारे कर्म करूँ। आपके भक्तों द्वारा सेवित तथा आश्रित पुण्यदेशों में ही निवास करूँ। दस्यु में, ब्राह्मण में और पशुओं में भी मेरी बुद्धि एक सी बनी रहे। मैं अपमान, स्पर्धा और असूया आदि दोषों से रहित हो समस्त प्राणियों में निरन्तर आपकी पूजा करता रहूँ।।2।। |
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