श्रीनारायणीयम्
त्रिनवतितमदशकम्
पचीस गुरुओं की शिक्षा का वर्णन
प्रभो! आपकी ही कृपा से आप में चित्त निवेशित करके मैं कौटुम्बिक स्नेह का त्याग कर दूँ और सारे जगत् को माया का विलास समझकर सारे विधि-निषेधमय कर्म का परित्याग करके विचरण करूँ; क्योंकि वर्णाश्रमादि भेद भ्रान्तिजन्य होने के कारण गुण-दोष का ज्ञान होने पर ही विधि निषेध होते हैं। परंतु जिसकी बुद्धि आपमें निहित है अतएव जिसका नानात्वभ्रम नष्ट हो गया है, ऐसे मेरे लिए विधि निषेध कैसे हो सकते हैं।।1।।
इस भूतल पर भूख-प्यास की निवृत्ति के लिए सतत् प्रयत्न करने वाले पशु आदि असंख्य जीव हैं, परंतु विज्ञान संपन्न होने के कारण मनुष्य उन सबसे श्रेष्ठ है। इसीलिए मनुष्य जन्म का प्राप्त होना दुर्लभ ही है। मनुष्यों में भी आत्मा ही अपना मित्र तथा आत्मा ही अपना शत्रु है। जो आपमें दत्तचित्त होकर मोक्षोपाय को जानता है, वह सुहृद् है और उससे भिन्न अपना वैरी है।।2।। |
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