श्रीनारायणीयम्
एकोनषष्टितमदशकम्
वेणुगीत और गोपियों का अनुराग
प्रभो! आपका श्रीअंग नये केराव के समान कोमल, प्रेमपूरक तथा सबके मन को मोह लेने वाला है। वह ब्रह्मतत्त्व से भी उत्कृष्ट एवं चिदानन्दमय है। उसका दर्शन करके व्रजांगनाएँ प्रतिदिन मोहित रहती थीं।।1।।
हरे! गोपियों के मन को आपके प्रति उत्पन्न अतिशय प्रीति ने मथ डाला था। वे क्रमशः जहाँ-तहाँ खड़ी होकर आपके दर्शन में ही तत्पर रहती थीं। प्रातःकाल गोचारण के लिए आपका वन में जाना भी वे सहन नहीं कर पाती थीं।।2।।
जब आप वन में जाने के लिए घर से निकलते, तब मृगनयनी गोप सुंदरियों की आँखें आपकी ओर ही लगी रहती थीं। उनका मन भी आपमें ही लगा होता था। वे दूर से आपकी वंशीध्वनि सुनकर आपके लीला-विलास की चर्चा में ही रत रहती थीं।।3।। |
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