श्रीनारायणीयम्
चतुर्नवतितमदशकम्
तत्त्वज्ञानोत्पत्ति प्रकार, बन्ध-मोक्षस्वरूप तथा अभक्त- निन्दापूर्वक भक्ति-प्रार्थना
निष्काम-धर्मों के अनुष्ठान से शुद्ध हुए भक्तजन श्रेष्ठ गुरु के उपदेश से आपके उस शुद्ध परब्रह्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, जो देह-इंद्रिय आदि से व्यतिरिक्त तथा सबमें व्याप्त है। आपके उस स्वरूप की जो स्थूलता और कृशता रूप से नानात्व की प्रतीति होती है, वह तो मायामय शरीरोपाधि द्वारा उसी प्रकार कल्पित है, जैसे विभिन्न काष्ठों में स्थित अग्नि में अपने आधारानुकूल महत्त्व, अणुत्व, दीप्तिमत्त्व तथा शान्ततत्त्व की प्रतीति होती है।।1।।
आचार्य नामक नीचे के मन्थनकाष्ठ से जब शिष्य रूप ऊपर का मन्थनकाष्ठ सम्मिलित होता है, तब दोनों के संघर्ष से सम्यग् ज्ञानरूप अग्नि प्रकट हो जाती है। उस ज्ञानाग्नि के द्वारा जब सजातीयकर्मोत्पादक संस्कारजनित शरीरादिप्रपञ्चविषयक अज्ञानरूप वनसमूह भस्म हो जाता है, तब इन्धनाभाव के कारण वह ज्ञानाग्नि स्वयं शान्त हो जाती है। उस समय केवल त्वन्मयी अवस्था शेष रह जाती है अर्थात् भक्त सच्चिदानन्द स्वरूप हो जाता है।।2।। |
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