श्रीनारायणीयम्
अष्टनवतितमदशकम्
ब्रह्मा से जगत् की उत्पत्ति आदि का निरूपण
श्रीकृष्ण! जिसके ब्रह्मस्वरूप को देवगण तथा मुनीश्वर नहीं जान सके, तब, भला, औरों की क्या गणना है? जो मन-वचन के अगोचर है, जिसके प्रकाश से यह सारा जगत् प्रकाशित हो रहा है, जिसमें यह प्रतिष्ठित है, जिससे यह उत्पन्न हुआ है और जिसमें यह पुनः लीन हो जाता है, जो इस जगत् रूप में वर्तमान है और जिसका स्वरूप इस जगत् से व्यतिरिक्त है, ऐसे आपको नमस्कार है।।1।।
विष्णो! जिसमें परमार्थतः जन्म, कर्म, गुण, दोष आदि कुछ भी नहीं है, तथापि जो जगत् पर अनुग्रह करने के हेतु माया का आश्रय लेकर स्वयं ही उन जन्म-कर्मादिकों को अंगीकार करता है, विभिन्न शक्तियों को धारण करता है और रूपरहित होते हुए भी स्थावर जंगमभेद से अनेकों रूपों में दृष्टिगोचर हो रहा है, अतएव जिसका स्वरूप महान् आश्चर्यजनक है तथा जो कैवल्य का धाम एवं परमानन्द रस से परिपूर्ण है, ऐसे आपको प्रणाम है।।2।। |
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