श्रीनारायणीयम्
पञ्चनवतितमदशकम्
भक्ति द्वारा विशुद्धचित्त की ही भगवत्स्वरूप-ध्यानयोग्यता का वर्णन
विश्वयोने! सृष्टि के आदि में आप संपूर्ण जीवमय हिरण्यगर्भ संबंधी शरीर धारण करते हैं अर्थात् ब्रह्मा के रूप में प्रकट होते हैं। तत्पश्चात् जीवत्व को प्राप्त होकर माया के गुण समूहों से संयुक्त हो संसारी का सा व्यवहार करते हैं। उस समय बढ़े हुए अतएव भक्तिभाव को प्राप्त हुए सत्त्वगुम से रज-तम- इन दोनों गुणों का छेदन करके पुनः सत्त्वगुण को भी त्यागकर उपाधिरहित हो जाते हैं और एकमात्र आप ही शेष रहते हैं, उस अवस्था में मैं आपसे अभिन्न हो जाता हूँ।।1।।
भूमन्! ‘सत्त्वगुण के उद्रेक से कभी-कभी विषय रस के आस्वादन में दोष का ज्ञान होने पर भी रजोगुण और तमोगुण के उत्कृष्ट होने पर उन विषयों में प्रवृत्ति को रोकना दुष्कर हो जाता है; क्योंकि उस समय विषय और चित्त परस्पर ग्रथित हो जाते हैं, अतः उन सबका त्याग करने के लिए अवस्थात्रयातीत आपकी भक्ति ही एकमात्र शरण है’- ऐसा उपदेश हंसरूपधारी आपने ब्रह्मा के समक्ष सनकादिकों को दिया था।।2।। |
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज