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अस्तु, इस प्रकार हास-परिहास का रस लेकर, परम सुन्दर वृन्दावन की शोभा निहार कर प्रसन्न चित्त हुए श्रीकृष्णचन्द्र अब गोप शिशुओं के सहित गिरिराज-परिसर में अवस्थित मानसगंगा तट पर गोसंचारण करते हुए विविध क्रीड़ा की अवतारणा करने चले। उनका दिव्य नित्य नवीन दैनंदिन विहार आरम्भ हुआ-
- एवं वृदावनं श्रीमत् कृष्ण: प्रीतमना: पशून्।
- रेमे संचारयन्नद्रे: सरिद्रोधस्तु सानुग:॥[1]
- एहि बिधि बल सौं बरनि कृपाला।
- लखि बृंदाबन-प्रभा बिसाला।।
- अति प्रसन्न मन सखन समेता।
- रमत भए हरि कृपा-निकेता।।
- गिरि समीप सरिता-तट सुंदर।
- धेनु चरावत हरि गुन-मंदिर।।
- सो छबि बरनि सकै नहिं कोऊ।
- सेष आदि लखि छकि रहे सोऊ।।
- एहि बिधि विहरत बृंदाबन में।
- छिन-छिन अति रति उपजत मन में।।
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