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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
8. श्रीकृष्ण का बलराम जी तथा गोप बालकों के साथ मिलन-महोत्सव, श्री गर्गाचार्य के द्वारा दोनों कुमारों का नामकरण संस्कार
इस प्रकार नामकरण-संस्कार समाप्त हुआ। आचार्य अतिशय लोलुप दृष्टि से बारंबार राम-श्याम की ओर निहारते हुए बिदा लेने लगे। व्रजेन्द्र भी अपने अश्रु जल बिन्दुओं से एक माला बना कर, उसे आचार्य के चरणों में भेंट देकर विदाई दे दी। अपार धन-सम्पत्ति के दान को तो आचार्य ने स्वीकार ही नहीं किया। यही अश्रु-भेंट लेकर वे चल पड़े। उनकी ओर देखते हुए व्रजेन्द्र इस समय अनुभव कर रहे हैं - मेरी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो गयी हैं, मेरे समान सुखी और कोई है ही नहीं! सुख सागर में निमग्न हो कर, सुखमय तरंगों में बहती हुई-सी श्री रोहिणी एवं व्रजेन्द्र गेहिनी भी राम-कृष्ण को गोद में लिये गृह की ओर चल पड़ती हैं। व्रज की रानी यशोदा इस समय किस सुख का अनुभव कर रही है, इसे वे ही जानती हैं। वास्तव में व्रज का सुख सर्वथा स्वसंवेध एवं अत्यन्त अनोखा सुख है-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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