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उधर सत्यलोक में अभी भी स्रष्टा की विचित्र ही दशा है। वे ब्रह्म पद के आसन पर आसीन अवश्य हैं; किंतु उनके सामने से इस समय ‘तप:, जनः, महः, स्वः, भुवः’- इन लोको का व्यवधान अन्तर्हित हो चुका है और वे व्रजराज कुमार के पुलिन-भोजन के प्रत्यक्ष दर्शन पा रहे हैं। पुनः उनका धैर्य शिथिल हो गया है एवं प्राणों में एक रसमय हाहाकार की लहर-सी उठ रही है- ‘आह! कदाचित मेरा कौए का शरीर होता! फिर तो मेरे सौभाग्य की सीमा नहीं रहती! प्रभु व्रजराज कुमार के अधरामृत से सिक्त दधि मिश्रित इन बिखरे हुए अन्नकणों को अपनी चोंच से चयन कर, इस सुविमल दिव्याति दिव्य सीथ-प्रसाद से उदर पूर्ति करके मैं कृतार्थ हो जाता।’
- सीथ जु परैं दही-रस भरे, सदन जाइ विधि लालच खरे।
- काक न भयौ, फिरयौ इतरातौ, चुनि-चुनि सुंदर सीथन खातौ।।
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