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कितना अनुराग है तुम्हारा इन गोपबालकों के प्रति, गोवत्सों के प्रति, भगवन। अभी-अभी तुम परमानन्दस्वरूप होकर भी कितनी आतुरता से इन्हें वन प्रान्तरों में दौड़-दौड़कर ढूँढ़ रहे थे, नाथ! और तुम्हारी वह दैनंदिनी दिनचर्या- जब अल्पवयस्क गोवत्स द्रुतगति से चलने में श्रान्त-से दीखने लगते हैं, उस समय दौड़कर उन्हें अपनी नन्हीं-सी गोद में धारण कर लेने का तुम्हारा प्रेमिल प्रयास-अपने परम सौहार्द का ऐसा दान यहाँ के अतिरिक्त कहाँ उपलब्ध है, देव! इसे भी जाने दो, चंचल गोप -शिशुओं के द्वारा पुष्प चयन के समय किसी पुण्य वृक्ष को खण्डित हुए देखकर तुम कितने व्यथित हो जाते हो! उस समय अपने कोमल कर स्पर्श से वृक्ष की वेदना हर लेने की तुम्हारी चेष्टा, वृक्ष-गुल्म-लताओं के प्रति भी स्नेहदान का यह अद्भुत निदर्शन इस व्रज के सिवा और कहाँ सम्भव है, विभो! बस, धन्य हैं व्रजराज महाराज नन्द! धन्य हैं गोप! धन्य हैं व्रज के अधिवासी! अहोभाग्य है व्रजवासी मात्र का- यहाँ के पशु-पक्षी, कीट-पतंग-भृंग, तरु-लता-गुल्म प्रभृति तक का, जिनके पूर्णब्रह्म सनातन परमानन्दस्वरूप तुम स्वयं मित्र हो।’-
- अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम्।
- यन्मित्रं परमानन्दं पूर्ण ब्रह्म सनातनम्।।[1]
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