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इस क्रिया में लीलाविहारी किंचित् रोने लग जाते हैं। पर यह क्रन्दन भी इतना मधुर होता है, मानों किसी अभिनव वीणा की मधुराति मधुर स्वर झंकृति हो; यशोदा के कर्ण पुटों में अमृत-निर्झर झरने लग जाता है। देखते-देखते आज का दिन समाप्त हो जाता है, संध्या आ जाती है। प्रतिदिन की तरह आज भी व्रजरानी स्तन-पान से तृप्त हुए पुत्र को पालने में लिटाकर मन्द-मन्द झुलाती हुई लोरी देने लग जाती हैं-
- जसोदा हरि पालनें झुलावै।
- हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ सोई कछु गावै।।
- मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहें न आनि सुवावै।
- तू काहें न वेगि-सी आवै, तोकौं कान्ह बुलावै।।
- कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै।
- सोवत जानि मौन ह्वै कें, रहि करि-करि सैन बतावै।।
- इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरें गावै।
- जो सुख सूर अमर-मुनि दुर्लभ, सो नँदभामिनि पावै।।
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