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अस्तु, इस वासन्ती श्री से विभूषित परम रमणीय वृन्दावन में श्रीकृष्णचन्द्र का विहार हो रहा है। पहले तो अरण्य-शोभा निरीक्षण का कार्य हुआ, फिर गोवत्स-संचारण-संलालन का। और अब परम अद्भुत निलायन की क्रीड़ा आरम्भ हुई है। प्रस्ताव गोपशिशुओं का था तथा श्रीकृष्णचन्द्र तो नित्य समर्थन है ही। इस खेल में चोर एवं रक्षक का अभिनय होगा। श्रीकृष्णचन्द्र एवं उनके सखा लुका-छिपी का खेल खेलेंगे। कुछ गोपशिशु चोर बने, कुछ भेड़ चराने वाले बने और कुछ भूमि पर हाथ टेक कर भेड़ बनने का अभिनय करने लगे। इस प्रकार गिरिराज गोवर्धन पर श्रीकृष्णचन्द्र का, गोपशिशुओं का स्वच्छन्द विहार आरम्भ हुआ, निर्भय होकर सभी खेलने लगे-
- एकदा ते पशून पालाश्चारयन्तोऽद्रिसानुषु।
- चक्रुर्निलायनक्रीडाश्चोरपालापदेशतः।।
- तत्रासन् कतिचिच्चोराः पालाश्च कतिचिन्नृप।
- मेषायिताश्च तत्रैके विजहुरकुतोभयाः।।[1]
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