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व्रजराज की अनुमति मिलने में अब विलम्ब ही क्या था; श्रीकृष्णचन्द्र समस्त गोवत्सों के अधिनायक बन गये और त्रिभुवन जनपावनी जननी यशोदा की प्रातश्चर्या यह बनी-किरणमाली की स्वर्णिम किरणें व्रजपुर को रंजित करने आतीं, उससे पूर्व ही मैया अपने नीलमणि के शयन पर्यंक पर पुनः आ विराजतीं। व्रजराजमहिषी परिचित हैं अपने समस्त पुर वासियों के स्वभाव से। उनके नीलमणि का दर्शन पाने के लिये गोपसुन्दरियों के प्राणों में कितनी आतुरता है, व्रजरानी से अब छिपा नहीं रहा है। निशा का अवसान होते ही गोपसुन्दरियाँ कोई न कोई बहाना लेकर आने लगती हैं और तब से रात्रि आरम्भ होने तक-जब तक श्रीकृष्णचन्द्र नन्दभवन में विराज रहे हैं, तब तक उनका क्रम नहीं टूटता। विशाल व्रजपुर है, असंख्य गोपसुन्दरियाँ हैं और बहानों का ही क्या अभाव है। कोई प्रातःकाल ही राम-श्याम के लिये निमन्त्रण लेकर आती है, व्रजरानी स्वीकार करें या न करें, कोई-न-कोई प्रतिदिन प्रस्ताव लायेगी ही-
- जसोदा एक बोल जो पाऊँ
- राम कृष्ण दोउ तुम्हरे सुत कौं सखन समेत जिमाऊँ।।
- जो तुम नंदराय सौं सकुचौ, तौ हौं उन्हें सुनाऊँ।
- जो पै आज्ञा देहु कृपा करि, भोजन-ठाठ बनाऊँ।।
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