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‘और अब तो यह नवीन नगर भी हमारे यथेच्छ आनन्द वर्द्धन के लिये बन गया है, रातों रात किसी ने इसकी रचना कर दी है।’- लीलारसमत्त श्रीकृष्णचन्द्र अपनी ही रचना में, मानो आप ही भूल से जाते हैं। भूलें नहीं तो लीलारस की पुष्टि कैसे हो? इस पुरी की एक-एक वस्तु उन्हें लुब्ध किये रहेगी; बलराम का, यशोदारानी के नीलमणि का मन इनमें ही उलझा रहेगा-!
- मनिन जटित सब भूमि, गुल्म, तरु-लता सुझूमत।
- धवल धौरहर उच्च स्वच्छ कलसा नभ चूमत।।
- झँझरिन झलक अपार द्वार-पट मनिन पटल कर।
- फटिक चटक चौहटनि, चारु चकचौंध अटन पर।।
- भनि ‘मान’ बिपुल व्रंदाबिपिन अर्धचंद्र सम पुरुसचिव।
- मन रमिव राम घनस्याम कहँ तिन इच्छामाया रचिव।।
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