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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
37. व्रजवासियों के यमनुा-पार जाने का वर्णन; श्रीकृष्ण का वृन्दावन की शोभा का निरीक्षण करके प्रफुल्लित होना, शकटों द्वारा आवास-निर्माण
श्रीकृष्णचन्द्र कभी तो दौड़ते हैं और कभी किसी अतिशय प्रिय, स्निग्ध वयस्क गोपबालक के कंधे पर चढ़ जाते हैं। गोपशिशुओं का उत्साह भी बढ़ता ही जा रहा है। वे श्रीकृष्णचन्द्र को नव-नव निकुन्जस्थली की ओर, लता-पल्लव जाल से आवृत सुरम्य वनस्थली की ओर संकेत करके ले जाते हैं एवं वहाँ की शोभा निहारकर प्रफुल्लित होते हैं। श्रीकृष्णचन्द्र भी अपने सखाओं को एक से एक सुन्दर स्थानों का दर्शन करा रहे हैं- इस प्रकार, मानो वे यहाँ से, यहाँ के अणु-अणु से चिरपरिचित हों। दल-दल के मृग एवं मयूर अपनी भंगिमा से शुभ शकुन की सूचना देते हुए श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख आते हैं, ललकभरे नेत्रों से उनकी ओर देखते रहते हैं, फिर चौकड़ी भरते, नृत्य करते सघन वन की ओट में छिप जाते हैं। उन्हीं का अनुसरण करते हुए श्रीकृष्णचन्द्र भी इस कुंज से उस कुंज में, कभी तट से वन की ओर एवं कभी वन से कालिन्दी कूल की ओर अनवरत विचरण कर रहे हैं। यदि व्रजेश्वरी की भेजी हुई परिचारिकाएँ उन्हें बुलाने न आ जातीं तो पता नहीं, श्रीकृष्णचन्द्र आज ही समस्त वन का निरीक्षण कर लेते। परिचारिकाओं के अनुरोध से बाध्य होकर, उनकी मनुहार से द्रवित होकर वे जननी के समीप चल तो पड़ते हैं, पर दृष्टि बार-बार जा रही है गिरिराज गोवर्धन के चरणप्रान्त में जाने वाले तरु-लतामण्डित सुरम्य पथ की ओर ही। यदि किंचिन्मात्र भी और विलम्ब करके वे दासियाँ न पहुँचतीं तो श्रीकृष्णचन्द्र को वहाँ कदापि नहीं पातीं। मृग शावक की भाँति दौड़कर एक बार तो वे आज ही उस परम सुन्दर अतिशय आकर्षक भूधर को अत्यन्त निकट से देख ही लेते। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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