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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
35. वृन्दावन-यात्रा का वर्णन
‘वह एक विचित्र मणिखचित स्वर्णिम वर्णका है। उसके मध्यदेश में उज्ज्वल मृदुल तूलिका (गद्दे) का आरामप्रद आस्तरण बिछा है। सुन्दर सज्जित गृहकोष्ठ के समान उसकी रचना है। नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र के महामरकत श्यामकलेवर से झरती हुई नील ज्योति एवं बलराम के गौर अंगों से निस्सृत उज्ज्वल आभा उसे उद्भासित कर रही है। ऐसे परम सुन्दर शकट में आसीन हुई व्रजेश्वरी एवं बलरामजननी श्रीरोहिणी सुशोभित हो रही हैं।’ इस शकट-पंक्ति से आगे व्रजेश्वर के, व्रजवासियों के अपार गोधन का समूह खड़ा है। बस, अब चलने की तैयारी ही है। अगणित गोपों के द्वारा हुई श्रृंगध्वनि, तुमुल तूर्यनाद और जयघोष से आकाश गूँजने लगता है। गोपों के पुरोहित मंगलपाठ करने लगते हैं। व्रजराजकुलपुरोहित महर्षि शाण्डिल्य आज स्वयं पधारे हैं तथा शिष्यों सहित यात्रा से पूर्व मंगलपाठ, स्तुतिपाठ कर रहे हैं-
नील, पीत आदि विविधि वर्ण के सुन्दर वस्त्र पहने, वक्षःस्थल पर कुंकुम की कान्ति धारण किये, कण्ठ को पदक से अलंकृत किये, अंगों को नानाविध मणि मुक्तास्वर्णा भूषणों से भूषित किये, रथ पर बैठी गोपसुन्दरियाँ भी प्रेमावेश से श्रीकृष्णलीला के गीत गा रही हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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