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वजेश्वरी को आज नीलमणि ने, राम ने, अन्य गोप-शिशुओं ने ऐसे-ऐसे नये-नये खेल दिखलाये कि मैया आनन्दमुग्ध हो गयीं। आदि से अन्त तक निर्णयत्री मैया ही बनी और इसीलिये सच में विजयश्री नीलमणि को ही मिली। नीलमणि परमानन्द में निमग्न होकर मैया के कण्ठ में झूलने लगते हैं। अंशुमाली अस्ताचल में चले गये, तब कहीं इस आनन्द क्रीड़ा का अवसान हुआ। अब मैया नीलमणि को, राम को एवं अन्य समस्त गोपशिशुओं को ब्यारू कराती हैं। तदनन्तर गोप-सुन्दरियाँ अपने-अपने पुत्रों को घर ले जाती हैं और श्रीकृष्णचन्द्र आज वहीं प्रांगण में ही निदित हो जाते हैं-
- आँगन में हरि सोइ गए री।
- दोउ जननी मिलि कै हरुऐं करि, सेज सहित तब भवन लए री।।
- नैकु नहीं घर में बैठत हैं, खेलहिं के अब रंग रए री।
- इहिं बिधि स्याम कबहुँ नहिं सोए, बहुत नींद के बसहिं भये री।।
- कहति रोहिनी-सोवन देहु न, खेलत-दौरत हारि गए री।
- सूरदास प्रभु कौ मुख निरखत हरषत जिय नित नेह नए री।।
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