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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
29. ऊखल से बँधे हुए दामोदर यमलार्जुन बने हुए कुबेर पुत्रों पर कृपापूर्ण दृष्टिपात्र
इधर अनुज के प्रति इतनी कठोरता एवं अपनी प्रार्थना की जननीकृत उपेक्षा-दोनों ही रोहिणीनन्दन के लिये असह्य हो जाती हैं। वे क्रोध से दाँत पीसने लगते हैं, किंतु श्रीकृष्णचन्द्र का क्रन्दन क्रमशः शान्त होने लगता है। जब तक गोपसुन्दरियाँ थीं, जननी उपस्थित थीं, जब तक तो वे अत्यन्त व्याकुल थे। पर उनके जाने के कुछ क्षणों के पश्चात् ही वे शान्त होने लगे। धीरे-धीरे क्रन्दन समाप्त हो जाता है और अब तो उसके बदले उनके अरुण अधरों पर मन्द मुस्कान छा जाती है। अवश्य ही अभी यह मुस्कान व्रजरानी के वात्सल्य रसपान से मत्त हुए, अपने अनन्त ऐश्वर्य को विस्मृत हुए स्वयं भगवान व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र की नहीं है; यह मुस्कान है उनके अधरों की ओट में उनके लीलामंच की अधिष्ठात्री योगमाया की! वह व्यक्त हुई है अतिशय व्याकुल बलराम को आश्वासन देने के लिये, क्षणभर के लिये बलराम में उनके अनुज के अनन्त असमोद्धर्व ऐश्वर्य का उन्मेष कर उनकी चिन्ता हर लेने के लिये, साथ ही रसपान प्रमत्त श्रीकृष्णचन्द्र में एक सुदूर अतीत की-अपने परम भक्त नारद के द्वारा दी हुई प्रतिश्रुति की स्मृति जगाने के लिये। उस मुस्कान ने रोहिणीनन्दन की चिन्ता हर ली। ठीक वैसी ही एक किरण उनके अधरों पर भी व्यक्त हो जाती है तथा नेत्रों में ऐश्वर्य का चित्रपट भर जाता है-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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