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एक वृद्धा गोपी में तो कुछ दैवी आवेश हो गया, उसके नेत्रों में रोष भर आया, सारे अंग किसी विचित्र तेजःपुन्ज से व्याप्त हो गये। वह यशोदारानी की भर्त्सना करती हुई भगवतत्त्व की बातें बताने लगी और श्रीकृष्णचन्द्र को छोड़ देने के लिये व्रजेश्वरी को शपथ देने लगी-
- (जसोदा!) तेरौ भलौ हियौ है, माई!
- कमल-नैन माखन कें कारन बाँधे ऊखल ल्याई।।
- जो संपदा देव-मुनि दुर्लभ, सपनेहुँ देइ न दिखाई।
- याही तैं तू गर्ब भुलानी, घर बैठें निधि पाई।।
- जो मूरति जल-थल में ब्यापक, निगम न खोजत पाई।
- सो मूरति तैं अपनें आँगन, चुटकी दै जु नचाई।।
- तब काहू सुत रोवत देखति, दौरि लेति हिय लाई।
- अब अपने घर के लरिका सौं इती करति निठुराई।।
- बारंबार सजल लोचन करि, चितवत कुँवर कन्हाई।
- कहा करौं, बलि जाउँ, छोरि तू, तेरी सौहँ दिवाई।।
- सुर पालक, असुरनि उर सालक, त्रिभुवन जाहि डराई।
- सूरदास प्रभु की यह लीला, निगम नेति नित गाई।।
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