|
केवल एक गोपी, मानो किसी अज्ञातशक्ति ने, उसमें चेतना भर दी हो, इस प्रकार जननी की सारी चेष्टाओं को देखने की क्षमता आ पायी है। उसने श्रीकृष्णचन्द्र की ओर देखा। बन्धन से पूर्व तो वे प्रायः शान्त से हो गये थे; पर ज्यों ही मैया ने ऊखल में गाँठ लगायी कि उनके नेत्रों से पुनः झर-झर करता हुआ अश्रुप्रवाह बह चलता है। यह देखते ही गोपी तो व्याकुल हो गयी। इतने में मैया आँगन की ओर मुड़ जाती हैं। अब गोपी से रहा नहीं गया। आगे बढ़कर वह व्रजेश्वरी का हाथ पकड़ लेती है तथा नन्दनन्दन को शीघ्र-से-शीघ्र छुड़ा लेने के उद्देश्य से उनके मुखचन्द्र की ओर देखने के लिये उनसे प्रार्थना करती है-
- मुख-छबि देखि हो, नँद-घरनि!
- सरद-निसि कौ अंसु अगनित इंदु आभा हरनि।।
- ललित श्री गोपाल-लोचन-लोल-आँसू-ढरनि।
- मनहुँ बारिज बिथकि बिभ्रम परे पर-बस परनि।।
- कनक-मनिमय-जटित-कुंडल-जोति जगमग करनि।
- मित्र मोचन मनहुँ आए तरल गति द्वै तरनि।।
- कुटिल कुंतल, मधुप मिलि मनु, कियौ चाहत लरनि।
- बदन-कांति बिलोकि, सोभा सकै सूर न बरनि।।
|
|