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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
25. ग्वालिनों के उपालम्भ पर माँ यशोदा की चिन्ता और उलाहना देनेवाली पर खीझ
जो हो, जननी की चिन्ता की छाया श्रीकृष्णचन्द्र के चंचल नेत्रों में व्यक्त हो गयी। प्रांगण में खेलते हुए श्रीकृष्णचन्द्र खेल छोड़कर जननी के पास चले आये, चिबुक पकड़कर बोले- ‘मैया! तू क्या सोच रही है?’ फिर जननी के कण्ठ में भुजाएँ डालकर झूलने लग गये। इसी बीच में, न जाने कब, अघटघटनापटीयसी योगमाया ने जननी के हृत्पट पर अंकित उस चिन्ता-बिन्दु को अपनी तूलिका से पोंछ डाला था। वे अनुभव कर रही थीं- ‘ओह! कहाँ तो नीलमणि इतना सरल, इतना भोला, ऐसा नन्हा-सा और कहाँ व्रजतरुणियों का विस्तृत वागजाल! इसके लिये वे कैसी-कैसी कितनी बातें गढ़ लेती हैं। अब जो वे आयीं तो मैं उन्हें अच्छी तरह डाँटूँगी।’ जननी ने नीलमणि को अपने प्यार से नहलाकर, नीलमणि के सुठाम युग्म कपोलों पर शतसहस्र चुम्बन अंकित कर निर्बाध खेलने की अनुमति दे दी। अवश्य ही कालिन्दीतट एवं सरोवर पर जाने से सर्वथा निषेध कर दिया। नीलमणि पिंजरमुक्त विहंगम-शावक की भाँति पुरवीथी की ओर भाग चले। इसके दूसरे ही दिन अरुणोदय होते-न-होते एक नवतरुणी उलाहना लेकर आ ही तो गयी। पहले भी यह कई बार आ चुकी है, किंतु इस बार तो जननी रोष में भरकर उल्टा उसे ही सुनाने चलती हैं। वे अपने नीलमणि का श्रृंगार करने के लिये प्रफुल्ल मालती-कुसुमों का चकन कर रही थीं। वह स्थगित कर उसे झिड़कने लगती हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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