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‘अहा! प्रियतम श्रीकृष्ण कितने मनोहर हैं। उनक वर्ण पिसे हुए काजल के समान सुचिक्कण है! परंतु काजल में सुचिक्कणता के अतिरिक्त कौन-सा गुण है? जो काजल सुधा के समान शीतल, सरस, मादक और प्राणों केा आप्यायित करने वाला हो, साथ ही लावण्य एवं मधुरता से युक्त हो, वही श्रीकृष्ण के वर्ण की उपमा को पा सकता है। परंतु उसमें प्रकाश कहाँ? हाँ, इन्द्र नीलमणि उसकी इस कमी को पूरा कर सकती है। पर इन्द्र नीलमणि में प्रकाश होने पर भी वह है अत्यन्त कठोर। फिर उसमें श्रीकृष्ण के वर्ण की समता कैसे आ सकती है। हाँ, नीलकमल उनके अंगों की कोमलता को किसी अंश में पा सकता है। अथवा नवीन तमाल के साथ उनकी तुलना की जा सकती है। सरसता की दृष्टि से हम उनके श्रीअंगों की मेघमाला की उपमा भी दे सकते हैं। उनके अंगों से जो कान्ति की किरणें फूट रही हैं, वे मरकत मणि की आभा को हेय बना दे रही है। परंतु इन सब उपमानों के गुण परिच्छिन्न हैं, ससीम हैं। हमारे प्राण वल्लभ तो माधुर्य एवं लावण्य के अपरिसीम सागर हैं। उनके श्रीअंगों में पीताम्बर झलमला रहा है, वक्षःस्थल पर रंग-बिरंगी वनमाला झूल रही है। अंग-अंग पर रत्न जटित आभूषण शोभा पा रहे हैं। विविध प्रकार के क्रीड़ा-रस के वे अनुपम आकर हैं। लंबी घुँघराली अलके हैं, जिनसे विविध प्रकार का सुवास प्रसरित हो रहा है। केश पाश विभिन्न पुष्प मालाओं से सुशोभित है।
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